ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 9
श॒तं वा॒ यस्य॒ दश॑ सा॒कमाद्य॒ एक॑स्य श्रु॒ष्टौ यद्ध॑ चो॒दमावि॑थ। अ॒र॒ज्जौ दस्यू॒न्त्समु॑नब्द॒भीत॑ये सुप्रा॒व्यो॑ अभवः॒ सास्यु॒क्थ्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । वा॒ । यस्य॑ । दश॑ । सा॒कम् । आ । अद्यः॑ । एक॑स्य । श्रु॒ष्टौ । यत् । ह॒ । चो॒दम् । आवि॑थ । अ॒र॒ज्जौ । दस्यू॑न् । सम् । उ॒न॒प् । द॒भीत॑ये । सु॒प्र॒ऽअ॒व्यः॑ । अ॒भ॒वः॒ । सः । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं वा यस्य दश साकमाद्य एकस्य श्रुष्टौ यद्ध चोदमाविथ। अरज्जौ दस्यून्त्समुनब्दभीतये सुप्राव्यो अभवः सास्युक्थ्यः॥
स्वर रहित पद पाठशतम्। वा। यस्य। दश। साकम्। आ। अद्यः। एकस्य। श्रुष्टौ। यत्। ह। चोदम्। आविथ। अरज्जौ। दस्यून्। सम्। उनप्। दभीतये। सुप्रऽअव्यः। अभवः। सः। असि। उक्थ्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वन् यस्य ते दश शतं वा योद्धारस्साकं वर्त्तन्ते यद्वाद्य एकस्य श्रुष्टौ चोदमाविथ। अरज्जौ दभीतये हिंसनाय दस्यून् समुनप्सुप्राव्यस्त्वमभवस्तस्मात् स त्वमुक्थ्योऽसि ॥९॥
पदार्थः
(शतम्) (वा) (यस्य) (दश) (साकम्) (आ) (अद्यः) अत्तुं योग्यः (एकस्य) असहायस्य (श्रुष्टौ) प्राप्तव्ये सुखे (यत्) यः (ह) किल (चोदम्) प्रेरणाम् (आविथ) अवति (अरज्जौ) असृष्टौ (दस्यून्) दुष्टाचारान् मनुष्यान् (सम्) सम्यक् (उनप्) उम्भति पूरयति (दभीतये) मारणाय (सुप्राव्यः) सुष्ठुप्रकाशेन रक्षितुं योग्यः (अभवः) भवसि (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥९॥
भावार्थः
येन केनचिद्दश शतं वीराः सत्कृत्य रक्ष्यन्ते स चोरादीन्निवारयितुं शक्नोति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (यस्य) जिन आपके (दशशतं वा) दशसौ एक सहस्र योद्धा (साकम्) साथ में वर्त्तमान हैं वा (यत्,ह) जो ही (अद्यः) भोजन करने योग्य आप (एकस्य) जो सहायरहित है उसके (श्रुष्टौ) पाने योग्य सुख के निमित्त (चोदम्) प्रेरणा को (आविथ) चाहते हो (अरज्जौ) विना किसी रचना विशेष स्थान में (दभीतये) मारने के लिये (दस्यून्) दुष्टाचारी मनुष्यों को (समुनप्) अच्छे प्रकार पूरण करते हो और (सुप्राव्यः) सुन्दरता से प्रकाश के साथ रखने योग्य (अभवः) होते हो इस कारण (सः) वह आप (उक्थ्यः) अनेक के बीच प्रशंसनीय (असि) हो ॥९॥
भावार्थ
जिस किसी से एक सहस्र वीर योद्धा सत्कार करके रक्खे जाते हैं, वह चोरादिकों को निवृत्त कर सकता है ॥९॥
विषय
'आद्य सुप्राव्य' प्रभु
पदार्थ
१. (यस्य) = जिन (एकस्य) = अद्वितीय आपके (श्रुष्टौ) = [Hearing; help; assistance] निर्देशों के श्रवण में (वा) = निश्चय से (दश) = पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ रूप अश्व (शतम्) = सौ वर्षपर्यन्त (साकम्) = हमारे साथ रहते हैं अर्थात् पूर्ण आयुष्य पर्यन्त क्षीणशक्ति नहीं होते। (यत् ह) = और जो निश्चय से (चोदम्) = आपकी प्रेरणा प्राप्त करनेवाले को (आविथ) = आप रक्षित करते हो। २. (दभीतये) = वासनाओं का संहार करनेवाले के लिए आप (अरज्जौ) = रज्जु के अभाव में भी (दस्यून्) = दास्यव-वृत्तियों को (समुनब्) = हिंसित करते हैं। 'दभीति' आपकी सहायता से ही इन दस्युओं का नाश हो पाता है। वस्तुतः (अभवः) = आप ही सबके उपजीव्य हैं - आपके आधार से ही सब जीते हैं। (सुप्राव्यः) = आप ही रक्षण करनेवालों में उत्तम हैं। (सः) = वे आप ही (उक्थ्यः असि) = स्तुति के योग्य हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के निर्देश में चलने पर सब इन्द्रियशक्तियाँ आजीवन ठीक बनी रहती हैं। वे प्रभु ही सबको जिलाते हैं व रक्षित करते हैं ।
विषय
परमेश्वर उत्तम शासक ।
भावार्थ
(यस्य) जिस परमेश्वर के (दश शतं ) दस गुणा सौ, १००० अर्थात् सहस्त्रों ( साकम् ) साथ हैं, जिसकी सहस्रों योगादि द्वारा उपासना करते हैं ( यत् ह ) और जिस ( एकस्य श्रुष्टौ ) एक अद्वितीय परमेश्वर के गुण श्रवण और आनन्द लाभ करने के लिये ( चोदम् ) गुरु द्वारा उपदेश करने योग्य प्रभु प्रेरित वाक्य, वेद को (आविथ) ज्ञान करते और धारण करते हो, और जो ( अरज्जौ ) बिना रस्सी के ही ( दस्यून् ) दुष्ट पुरुषों को ( सम् अनप् ) अच्छी प्रकार बांध लेता है। और जो ( दभीतये ) विनाश से बचने के लिये ( सु प्र-अव्यः ) उत्तम रीति से रक्षा करने में कुशल ( अभवः ) रहा करता है। (सः उक्थ्य: असि ) वह तू हे परमेश्वर ! सबसे प्रशंसा करने योग्य है । ( २ ) जिस राजा के साथ सहस्रों वीर हों, जो तू ( एकस्य श्रुष्टौ ) प्रजा के एक २ व्यक्ति के सुख के लिये भी ( चोदम् आविथ ) आज्ञा या कानून की रक्षा करता है। रस्सी आदि बन्धन के स्थान कैद आदि के बिना ही केवल तेज से दुष्टों को दमन करता है वही विनाशकारी शत्रु के आक्रमण को रोकने और उससे बचने के लिये उत्तम रक्षक है वही प्रशंसनीय है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याच्याकडून एक सहस्र वीर योद्ध्यांचा सत्कार केला जातो तो दुष्टाचरण करणाऱ्यांना नष्ट करू शकतो. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ten, hundred or thousands are with Indra, sole lord of the world, ready for service at his bidding, unbounded his favours and incentives, a thousand-ways his inspirations and exhortations, he knows. He binds the wicked exploiters, criminals and sinners with unfettered chains to break them down. Supreme protector is he just at hand everywhere. So is he adorable in holy chant.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More qualities of the Commander are detailed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned Commander ! over one thousand soldiers are under your charge. You should win their respect and pointers by helping the needy and feeding the hungry. You are merited to kill the enemy or their intelligence men in a secret manner and at a secret place. Because of this, you shine everywhere and become admired.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A good Commander with one thousand brave soldiers is capable to liquidate the gangs of gangsters.
Foot Notes
(अद्य:) अत्तुयोग्यः । = Eatables. (श्रुष्टौ) प्राप्तव्ये सुखे | = In a noble delight. (दशशतं वा) सहस्रम् । = One thousand. (दस्यून् ) दुष्टाचारान् मनुष्यान् = To wicked persons. (समुनप् ) पूरयति = Fully accomplishes. (दभीतये) मारणाय । = For killing or annihilating. (सुप्राव्य:) सुष्ठ्प्रकाशेन रक्षितुं योग्य: = One who is praised eloquently and is worth shining because of his nice fame. (In the history of Assam a Commander controlling and maintaining one thousand soldiers was named as Hazarika, which literally means one thousand-Ed.).
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