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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒प्र॒वा॒च॒नं तव॑ वीर वी॒र्यं१॒॑ यदेके॑न॒ क्रतु॑ना वि॒न्दसे॒ वसु॑। जा॒तूष्ठि॑रस्य॒ प्र वयः॒ सह॑स्वतो॒ या च॒कर्थ॒ सेन्द्र॒ विश्वा॑स्यु॒क्थ्यः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप्र॒वा॒च॒नम् । तव॑ । वी॒र॒ । वी॒र्य॑म् । यत् । एके॑न । क्रतु॑ना । वि॒न्दसे॑ । वसु॑ । जा॒तूऽस्थि॑रस्य । प्र । वयः॑ । सह॑स्वतः । या । च॒कर्थ॑ । सः । इ॒न्द्र॒ । विश्वा॑ । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुप्रवाचनं तव वीर वीर्यं१ यदेकेन क्रतुना विन्दसे वसु। जातूष्ठिरस्य प्र वयः सहस्वतो या चकर्थ सेन्द्र विश्वास्युक्थ्यः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽप्रवाचनम्। तव। वीर। वीर्यम्। यत्। एकेन। क्रतुना। विन्दसे। वसु। जातूऽस्थिरस्य। प्र। वयः। सहस्वतः। या। चकर्थ। सः। इन्द्र। विश्वा। असि। उक्थ्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र यतस्त्वमुक्थ्योऽसि हे वीर यस्य जातूष्ठिरस्य सहस्वतस्तव सुप्रवाचनं वीर्यं यद्यस्त्वमेकेन क्रतुना वयो वसु च प्रविन्दसे या विश्वोत्तमानि कर्माणि चकर्थ स त्वमेतेभ्यो नो राजोपदेशकोऽध्यापको वा भव ॥१॥

    पदार्थः

    (सुप्रवाचनम्) सुष्ठुप्रकृष्टमध्यापनं श्रावणम् वा (तव) (वीर) प्रशस्तबलयुक्त (वीर्य्यम्) पराक्रमम् (यत्) (एकेन) (क्रतुना) कर्मणा प्रज्ञानेन वा (विन्दसे) लभसे (वसु) द्रव्यम् (जातूष्ठिरस्य) कदाचिल्लब्धस्थितेः (प्र) (वयः) विज्ञानम् (सहस्वतः) बलवतः (या) यानि (चकर्थ) करोषि (सः) (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (विश्वा) सर्वाणि (असि) (उक्थ्यः) प्रशंसितुं योग्यः ॥११॥

    भावार्थः

    येषां वेदपारगा अध्यापकाः प्रेम्णा प्रज्ञां प्रयच्छन्ति ते कदाचिदपि दुःखिता निन्दिताश्च न भवन्ति ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य की प्राप्ति करनेवाले ! जिस कारण आप (उक्थ्यः) प्रशंसा करने योग्य (असि) हो, हे (वीर) प्रशंसित बलयुक्त ! जिन (जातूष्ठिरस्य) कभी स्थिर पाये हुए (सहस्वतः) बलवान् (तव) आपका (सुप्रवाचनम्) सुन्दर अति उत्कृष्ट पढ़ाना, श्रवण कराना और (वीर्यम्) उत्तम पराक्रम है, (तत्) जो आप (एकेन) एक (क्रतुना) कर्म वा ज्ञान से (वयः) विज्ञान और (वसु) धन को (प्रविन्दसे) प्राप्त होते हैं, (या) जिन (विश्वा) समस्त उक्त कामों को (चकर्थ) करते हैं (सः) वह आप उन कामों के लिये हम लोगों के राजा वा उपदेशक वा अध्यापक हूजिये ॥११॥

    भावार्थ

    जिनके वेद के पारङ्गत अध्यापक विद्वान् प्रेम से उत्तम ज्ञान को देते हैं, वे कभी दुःखी वा निन्दित नहीं होते हैं ॥११॥

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    विषय

    'जातूष्ठिर' का उत्कृष्ट जीवन

    पदार्थ

    १. हे (वीर) = गतमन्त्र के अनुसार संयम द्वारा शक्तिशाली बननेवाले पुरुष ! (तव वीर्यम्) = तेरी वह शक्ति (सुप्रवाचनम्) = उत्तमता से श्लाघनीय होती है, (यत्) = जो तू (एकेन क्रतुना) = अद्वितीय पुरुषार्थ से (वसु) = निवास के लिए आवश्यक धनों को विन्दसे प्राप्त करता है। २. (जातु+स्थिरस्य) = कभी भी, अर्थात् हर समय स्थिरवृत्ति के (सहस्वतः) = बलशाली पुरुष का (प्रवयः) = प्रकृष्ट जीवन होता है। चित्तवृत्ति के न भटकने से शक्ति का वर्धन होता है, शक्ति के बने रहने पर जीवन उत्तम होता है। ३. हे इन्द्र शक्तिशालिन् प्रभो ! (या विश्वा चकर्थ) = जो ये सब कर्म आप करते हो (सः) = वे आप (उक्थ्यः असि) = स्तुति के योग्य हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- साधक को शक्ति प्रभुकृपा से ही प्राप्त होती है। प्रभु ही स्थिरवृत्तिवाले पुरुष के जीवन को उत्कृष्ट बनाते हैं।

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    विषय

    परमेश्वर उत्तम शासक ।

    भावार्थ

    हे ( वीर ) विविध लोकों, पदार्थों को विविध रूपों से चलाने हारे ! परमेश्वर ! ( तत्र ) तेरा ( वीर्यं ) बल पराक्रम ( सु-प्रवाचनम् ) उत्तम रीति से आदर पूर्वक गुरु जनों से उपदेश किया जाने योग्य है । ( यः ) जो तू ( एकेन ) एक ही समान महान् ( क्रतुना ) कर्म और ज्ञान के बल से ( वसु ) समस्त वसे जगत् को ( प्रविन्दसे ) अच्छी प्रकार धारण कर रहा है। यह सब ( जातु-स्थिरस्य ) प्रत्येक उत्पन्न एवं नश्वर पदार्थ में कारण रूप से स्थिर रहने वाले और ( सहस्वतः ) बलवान् तेरा ही ( वयः ) ज्ञान और बल ( प्र ) सर्वोत्कृष्ट है । ( सः ) वह तू (या) जिन ( विश्वा ) इन सब कार्यों को ( चकर्थ ) करता है वही तू ( उक्थ्यः ) प्रशंसनीय है । जो राजा एक ही कर्म से या प्रज्ञा के बल से बहुत सा ‘वसु’ राष्ट्र और ऐश्वर्य प्राप्त करता है वह स्थिर और बलवान् उत्तम है । वही सब कार्यों को करता और प्रशंसा योग्य होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदपारंगत विद्वान अध्यापक ज्यांना प्रेमाने उत्तम ज्ञान देतात ते कधी दुःखी किंवा निन्दित होत नाहीत. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, mighty lord of light and life, noble and powerful is your eloquence, since with a single act of will and divinity you win and command the wealth of the world. Eternal and inviolable, ancient and ever youthful, patient yet potent and victorious, for all the acts of existence and creation you do, you are divine, supremely holy, and adorable in acts and words of piety.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the learned persons are further stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you are blessed with great prosperity and are there for admirable, brave, of strong conviction and are powerful. The way you teach excellently through audio and visual methods, it is a great exercise. You get knowledge and wealth by dint of theory and practice and therefore all your actions turn successful. We request you to teach and preach among us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who study under the care of learned and noble teachers of the Vedas, they never face any hardship or distress.

    Foot Notes

    (सुप्रवाचनम् ) सुष्ठुप्रकृष्टमध्यापनं श्रावणम् । = Those who teach excellently through audio and visual methods. (जातूष्ठिरस्य), कदाचिल्लब्धस्थितेः । = Well entrenched in seeking the knowledge. (सहस्वतः) बलवतः । = Of the powerful.

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