ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
यो भोज॑नं च॒ दय॑से च॒ वर्ध॑नमा॒र्द्रादा शुष्कं॒ मधु॑मद्दु॒दोहि॑थ। स शे॑व॒धिं नि द॑धिषे वि॒वस्व॑ति॒ विश्व॒स्यैक॑ ईशिषे॒ सास्यु॒क्थ्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठयः । भोज॑नम् । च॒ । दय॑से । च॒ । वर्ध॑नम् । आ॒र्द्रात् । आ । शुष्क॑म् । मधु॑ऽमत् । दु॒दोहि॑थ । सः । शे॒व॒धिम् । नि । द॒धि॒षे॒ । वि॒वस्व॑ति । विश्व॑स्य । एकः॑ । ई॒शि॒षे॒ । सः । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो भोजनं च दयसे च वर्धनमार्द्रादा शुष्कं मधुमद्दुदोहिथ। स शेवधिं नि दधिषे विवस्वति विश्वस्यैक ईशिषे सास्युक्थ्यः॥
स्वर रहित पद पाठयः। भोजनम्। च। दयसे। च। वर्धनम्। आर्द्रात्। आ। शुष्कम्। मधुऽमत्। दुदोहिथ। सः। शेवधिम्। नि। दधिषे। विवस्वति। विश्वस्य। एकः। ईशिषे। सः। असि। उक्थ्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरविषयमाह।
अन्वयः
हे जगदीश्वर य एकस्त्वं विवस्वति विश्वस्य भोजनं च वर्द्धनं च दयसे ईशिषे शुष्कमार्द्रान्मधुमद्दुदोहिथ स त्वं शेवधिं निदधिषे अतः स त्वमुक्थ्योऽसि ॥६॥
पदार्थः
(यः) (भोजनम्) पालनम् (च) पुरुषार्थम् (दयसे) (च) धरति (वर्द्धनम्) (आर्द्रात्) (आ) समन्तात् (शुष्कम्) अस्नेहम् (मधुमत्) बहुमधुरगुणयुक्तम् (दुदोहिथ) धोक्षि (सः) (शेवधिम्) निधिम् (नि) नितराम् (दधिषे) धरसि (विवस्वति) सूर्ये (विश्वस्य) सर्वस्य जगतः (एकः) असहायोऽद्वितीयः (ईशिषे) ईश्वरोऽसि (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्या यो दयमान ईश्वरः सर्वं जगन्निर्माय संरक्ष्य रक्षणसाधनान्पदार्थान्दत्वा सर्वं विश्वं सुखैः पिपर्त्ति स एक एवोपासितुं योग्योऽस्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे जगदीश्वर ! (यः) जो (एकः) एक असहाय अद्वितीय आप (विवस्वति) सूर्य में अभिव्याप्त होते (विश्वस्य) समस्त जगत् के (भोजनम्) पालन (च) और पुरुषार्थ और वृद्धि की (दयसे) रक्षा करते (ईशिषे) और ईश्वरता को प्राप्त हैं वा (शुष्कम्) सूखे पदार्थ को (आर्द्रात्) गीले पदार्थ से (मधुमत्) मधुर गुणयुक्त (दुदोहिथ) परिपूर्ण करते (सः) वह आप (शेवधिम्) निधिरूप पदार्थ को (निदधिषे) निरन्तर धारण करते हैं इस कारण (सः) वह आप (उक्थ्यः) प्रशंसनीयों में प्रसिद्ध (असि) हैं ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो पालना करता हुआ ईश्वर समस्त जगत् का निर्माण कर और उसी की रक्षा कर सिद्धि करनेवाले पदार्थों को देकर समस्त विश्व को सुखों से परिपूर्ण करता है, वह एक ही उपासना के योग्य है ॥६॥
विषय
सर्वेश प्रभु
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (यः) = जो आप (भोजनं च दयसे) = शरीरपालन के लिए पर्याप्त भोजन देते हैं, (वर्धनं च) और सब प्रकार से शक्तियों की वृद्धि प्राप्त कराते हैं २. (आर्द्रात्) = एकदम गीले काण्ड (तने) से (आशुष्कम्) = एकदम शुष्क व्रीहि [चावल] आदि को, (मधुमत्) = अत्यन्त माधुर्य से युक्त रूप में (दुदोहिथ) = प्रपूरित करते हैं [दुह् प्रपूरणे] । काण्ड गीला होता है- फल के रूप में प्राप्त होनेवाला 'व्रीहि' शुष्क । ये भी वस्तुतः प्रभु की सृष्टि का वैचित्र्य ही है। इस प्रसंग में यह ध्यान देने योग्य बात है कि सर्वव्यापक व गतिशून्य आकाश से सदागति वायु की उत्पत्ति होती है ,'गतिशून्य से गतिवाला होना' यह प्रथम आश्चर्य है। द्वितीय आश्चर्य यह कि नीरूप वायु से रूपवाली अग्नि की उत्पत्ति है। तीसरी बात यह है कि इस उष्ण अग्नि से शीत जल का निर्माण होता है और अन्ततः इस आर्द्र जल से शुष्क भूमि का सम्भव होता है। ३. (सः) = वे आप (विवस्वति) = इस किरणोंवाले सूर्य में (शेवधिम्) = प्राणशक्ति के कोश को (निदधिषे) = स्थापित करते हैं 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः'। वस्तुतः (एकः) = अद्वितीय आप ही (विश्वस्य) = इस ब्रह्माण्ड के (ईशिषे) = ईश हैं। (सः) = वे आप (उक्थ्यः) = प्रशंसनीय असि हैं। आपके स्तवन से ही हम पापों से बचकर शुभमार्ग पर चलने में समर्थ होते हैं । -
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही सबको भोजन व वर्धन प्राप्त कराते हैं। अद्भुत वैचित्र्योंवाली सृष्टि का निर्माण करते हैं। सूर्यकिरणों में प्राणशक्ति को स्थापित करते हैं। सबके ईश हैं— स्तुत्य हैं।
विषय
परमेश्वर उत्तम शासक ।
भावार्थ
( यः ) जो ( विवस्वति ) सूर्य के ऊपर निर्भर कर परमेश्वर ( भोजनं ) भोजन ( च ) और ( वर्धनं ) श्रेष्ठ वृद्धिकर धन का ( दयसे ) प्रदान करता है और जो परमेश्वर ( आर्द्रात् ) गीले वृक्ष से ( शुष्कं ) सूखे फल या काष्ठ के समान ( आर्द्रात् ) गीले जलमय मेघ से ( मधुमत् ) अन्न से युक्त (शुष्कं) बलकारी, परिपक्व, सूखा, पका, खेत ( दुदोहिथ ) प्राप्त कराता है वही परमेश्वर ( विवस्वति ) सूर्य में ही ( शेवधिं ) अपार खजाना ( निदधिषे ) गुप्त रूप से स्थापित करता है और जो ( विश्वस्य ) समस्त संसार का ( एकः ) अकेला ही ( इशिषे ) ईश्वर, स्वामी, उस पर शासन करता है । ( सः उक्थ्यः असि ) वह तु प्रशंसनीय वचनों के योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो दयाळू ईश्वर संपूर्ण जगाची निर्मिती व रक्षण करून निरनिराळे पदार्थ देतो व संपूर्ण विश्व सुखाने परिपूर्ण करतो, तोच उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light, wealth and power, you are the one who organise and control consumption and production, growth and allotment and, with your liquid creativity and energising waters, convert the deserts into honeyed gardens to milk the wealth from the holy earth. O people of the earth, he holds the wealth of the world in the sun and rules the universe solely by himself, alone. Such as you are, O lord of creation and sustenance, you are worthy of celebration in song and yajnic action.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of God is dealt here with.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Almighty God immersed in solar energy provides protection and food grains to the whole world without seeking any assistance from any other power. With His power and urge for protection of all the human beings, He reigns over all The dry, the wet, and the treasured articles always hold Him under them. He is therefore, the Great among all the noble persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God not only guards the human-beings but He also maintains the whole universe after its creation. It is He who inculcates happiness amidst all the worldly substances. Therefore, He is only the Centre of adoration or worship.
Foot Notes
(भोजनम् ) पालनम् = Guards. (शुष्कम् ) अस्नेहम् = Dry. (मधुमत् ) बहुमधुरगुणयुक्तम् = Full of extreme sweetness. (दुदोहिथ ) धोक्षि | = You impart or milk. (विवस्वति) सूर्ये = In the sun or solar world.
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