ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 12
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अर॑मयः॒ सर॑पस॒स्तरा॑य॒ कं तु॒र्वीत॑ये च व॒य्या॑य च स्रु॒तिम्। नी॒चा सन्त॒मुद॑नयः परा॒वृजं॒ प्रान्धं श्रो॒णं श्र॒वय॒न्त्सास्यु॒क्थ्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठअर॑मयः । सर॑ऽअपसः । तरा॑य । कम् । तु॒र्वीत॑ये । च॒ । व॒य्या॑य । च॒ । स्रु॒तिम् । नी॒चा । सन्त॑म् । उत् । अ॒न॒यः॒ । प॒रा॒ऽवृज॑म् । प्र । अ॒न्धम् । श्रो॒णम् । श्र॒वय॑न् । सः । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरमयः सरपसस्तराय कं तुर्वीतये च वय्याय च स्रुतिम्। नीचा सन्तमुदनयः परावृजं प्रान्धं श्रोणं श्रवयन्त्सास्युक्थ्यः॥
स्वर रहित पद पाठअरमयः। सरऽअपसः। तराय। कम्। तुर्वीतये। च। वय्याय। च। स्रुतिम्। नीचा। सन्तम्। उत्। अनयः। पराऽवृजम्। प्र। अन्धम्। श्रोणम्। श्रवयन्। सः। असि। उक्थ्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वं सरपसस्तराय तुर्वीतये च वय्याय च कं स्रुतिं बोधाय परावृजं प्रान्धं श्रोणमिव श्रवयन् नीचा सन्तमुत्तमे व्यवहारेऽरमय सर्वान्नुदनयोऽस्मात्स त्वमुक्थ्योऽसि ॥१२॥
पदार्थः
(अरमयः) रमयसि (सरपसः) सराणि सृतान्यपांसि पापानि येन तस्य (तराय) उल्लङ्घकाय (कम्) सुखम् (तुर्वीतये) साधनैर्व्याप्तये (च) (वय्याय) तन्तुसन्तानकाय (च) (स्रुतिम्) विविधां गतिम् (नीचा) नीचेन (सन्तम्) (उत्) (अनयः) उन्नेयः (परावृजम्) परागता वृजस्त्यागकारा यस्मात्तम् (प्र) (अन्धम्) चक्षुर्विहीनम् (श्रोणम्) बधिरम् (श्रवयन्) श्रवणं कारयन् (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥१२॥
भावार्थः
यथा शिल्पविदोऽन्याञ्छिल्पविद्यादानेनोत्कृष्टान्सम्पादयन्तोऽन्धं चक्षुष्मन्तमिव संप्रेक्षकान् बधिरं श्रुतिमन्तमिव बहुश्रुतान् कुर्य्युस्तेऽस्मिञ्जगति पूज्याः स्युः ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वान् ! आप (सरपसः) जिससे पाप चलाये जाते हैं (तराय) उसके उल्लंघन और (तुर्वीतये) साधनों से व्याप्त होने के लिये (च) और (वय्याय) सूत के विस्तार के लिये (च) भी (स्रुतिम्) नाना प्रकार की चाल को जताइये और (परावृजम्) लौट गये हैं त्याग करनेवाले जिससे उस मनुष्य को (प्रान्धम्) अत्यन्त अन्धे वा (श्रोणम्) बहिरे के समान (श्रवयन्) सुनाते हुए (नीचा) नीच व्यवहार से (सन्तम्) विद्यमान मनुष्य को उत्तम व्यवहार में (अरमयः) रमाते हैं तथा सबकी (उदनयः) उन्नति करते हो इस कारण (सः) वह आप (उक्थ्यः) प्रशंसनीय (असि) हैं ॥१२॥
भावार्थ
जैसे शिल्पवेत्ता विद्वान् जन औरों को शिल्पविद्या के दान से उत्कृष्ट करते हुए अन्धे को देखते हुए के समान वा बहिरे को श्रवण करनेवाले के समान बहुश्रुत करते हैं, वे इस संसार में पूज्य होते हैं ॥१२॥
विषय
कल्याणकारी प्रभु
पदार्थ
१. ‘रप् व्यक्तायां वाचि' धातु से 'स-रपस्' शब्द बना है- प्रभु के गुणों का व्यक्तोच्चारण करनेवाला । (स-रपसः) = प्रभुस्तवन करनेवालों को (तराय) = संसार-सागर से तराने के लिए (अरमय:) = आप क्रीड़ा कराते हैं। उन्हें सब कर्मों को एक क्रीड़क की मनोवृत्ति से करने की शक्ति देते हैं। इस प्रकार कर्मों को करते हुए वे भवसागर से तैर जाते हैं । २. (तुर्वीतये) = वासनाओं का हिंसन करनेवाले के लिए तथा (वय्याय) = कर्मतन्तु का सन्तान [= विस्तार] करनेवाले के लिए आप (स्रुतिम्) = मार्ग को (कम्) = सुखप्रद करते हैं। तुर्वीति और वय्य बनकर मनुष्य जीवन में उस मार्ग से चलता है जो उसके लिए सुखप्रद होता है। ३. (नीचा सन्तम्) = कितनी भी नीची स्थिति में होते हुए (परावृजम्) = पाप का सुदूर वर्जन करनेवाले को (उद् आनयः) = आप उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कराते हो । (प्रान्धम्) = एकदम दृष्टिशक्ति से हीन तथा (श्रोणम्) = पंगु को भी दृष्टिशक्ति देकर तथा अपंगु बनाकर (श्रवयत्) = आप कीर्तिमान् करते हो। (सः) = वे आप (उक्थ्यः) = अत्यन्त प्रशंसा के योग्य हो ।
भावार्थ
भावार्थ-स्तोता को आप भवसागर से तराते हो। तुर्वीति व वय्य को कल्याणप्रद मार्ग प्राप्त कराते हो। पापवर्जक को उन्नत करते हो । अन्धे को दृष्टि देते हो और पंगु को अपंगु बनाते हो ।
विषय
परमेश्वर उत्तम शासक ।
भावार्थ
हे परमेश्वर ! तू ( सरपसः ) पापों से युक्त पुरुषों को या कर्म फल को छोड़ देने वाले कर्मबन्धन से रहित पुरुषों को इस संसार के कष्टमय महासागर से ( कं ) सुख पूर्वक ( तराय ) तर जाने के लिये ( तुर्वीतये च ) बाधक कारण, कर्म बन्धनों को नाश करने और शीघ्र ही परम पद प्राप्त कराने के लिये और ( वय्याय च ) तन्तु के समान शिष्य परम्परा और पुत्र परम्परा बनाये रखने के लिये भी ( स्रुतिम् ) ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग को ( अरमयः ) रमणीय कर देता है । ( नीचा सन्तम् ) नीच पथ में रहते हुए को भी ( उत् अनयः ) तू ऊपर उठाता है । ( परावृजं ) दूर त्याग किये, जिसको बन्धु बान्धव जन छोड़कर चले गये ऐसे अनाथ को भी ( उत् अनयः ) ऊपर उठाता है । ( अन्धम् ) अन्धे, ज्ञान हीन और ( श्रोणम् ) बहरे, उपदेश विहीन पुरुष को भी ( श्रयवसि ) वेद ज्ञान के उपदेश से युक्त करता है । ( सः असि उक्थ्यः ) वह तू प्रशंसनीय है । ( २ ) राजा पापियों के लिये भी उनको पाप से पार होने, पाप के नाश करने और यज्ञ या उत्तम सन्तति लाभ करने के लिये सन्मार्ग प्रदान करे। नीचे गिरे और अनाथों को दया पूर्ण हाथ से उठावे, अन्धों, बहरों को भी ज्ञान और श्रवण शक्ति देने का उद्योग करे । वह उत्तम है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे शिल्पवेत्ते विद्वान लोक इतरांना शिल्पविद्येने समृद्ध करतात, ते आंधळ्याला डोळस व बहिऱ्याला बहुश्रुत करतात तेच या जगात पूज्य असतात. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you change the dire discipline of holiness to a pleasure path for the sinners to cross the seas and leap to the freedom of Moksha. You accelerate the speed and success of the parent and teacher to continue the family line and the tradition of knowledge. You raise the fallen from the depth, you own and console the rejected and destitute, you give eyes to the blind and ears to the deaf with knowledge to the ignorant. As such, the celebrants adore you in songs of faith and joy.
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