ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यः पु॒ष्पिणी॑श्च प्र॒स्व॑श्च॒ धर्म॒णाधि॒ दाने॒ व्य१॒॑वनी॒रधा॑रयः। यश्चास॑मा॒ अज॑नो दि॒द्युतो॑ दि॒व उ॒रुरू॒र्वाँ अ॒भितः॒ सास्यु॒क्थ्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठयः । पु॒ष्पिणीः॑ । च॒ । प्र॒ऽस्वः॑ । च॒ । धर्म॑णा । अधि॑ । दाने॑ । वि । अ॒वनीः॑ । अधा॑रयः । यः । च॒ । अस॑माः । अज॑नः । दि॒द्युतः॑ । दि॒वः । उ॒रुः । ऊ॒र्वान् । अ॒भितः॑ । सः । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः पुष्पिणीश्च प्रस्वश्च धर्मणाधि दाने व्य१वनीरधारयः। यश्चासमा अजनो दिद्युतो दिव उरुरूर्वाँ अभितः सास्युक्थ्यः॥
स्वर रहित पद पाठयः। पुष्पिणीः। च। प्रऽस्वः। च। धर्मणा। अधि। दाने। वि। अवनीः। अधारयः। यः। च। असमाः। अजनः। दिद्युतः। दिवः। उरुः। ऊर्वान्। अभितः। सः। असि। उक्थ्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे जगदीश्वर यस्त्वं धर्मणा दाने पुष्पिणीश्च प्रस्वश्चावनीरध्यधारयः। योऽसमा दिद्युतो दिवोऽभितो व्यजनः। यश्चोरुरूर्वान् प्रकटयति सोऽस्माभिस्त्वमुक्थ्योऽसि ॥७॥
पदार्थः
(यः) (पुष्पिणीः) बहूनि पुष्पाणि यासु ताः (च) (प्रस्वः) प्रसावित्रीः (च) (धर्मणा) धर्मेण (अधि) उपरिभावे (दाने) दीयते येन तस्मिन् (वि) विशेषेण (अवनीः) पृथिवीः (अधारयः) धरति (यः) (च) (असमाः) असदृशीः (अजनः) जनयति (दिद्युतः) तडितः (दिवः) प्रकाशमयाँल्लोकान् (उरुः) बहुशक्तिः (ऊर्वान्) विनश्वरान् पदार्थान् (अभितः) (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥७॥
भावार्थः
हे मनुष्या येनेश्वरेण बहुपुष्पफलयुक्ता ओषधीः सर्वाधारा पृथिवी विद्दुदादयः पदार्था निर्मिताः स एवाऽस्माभिरुपास्योऽस्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे जगदीश्वर ! (यः) जो आप (धर्मणा) धर्म से (दाने) देने में (पुष्पिणीः) फूलोंवाली (च) वा (प्रस्वः) फल उत्पन्न करनेवाली लतादिकों (च) वा (अवनीः) भूमियों को (अधि, अधारयः) अधिकता से धारण करते (यः) जो (असमाः) असमान (दिद्युतः) बिजुलियों को वा (दिवः) प्रकाशमय लोकों को (अभितः) सब ओर से (वि, अजनः) विशेषता से उत्पन्न करते हैं (च) और जो (उरुः) बहुशक्तिमान् आप (ऊर्वान्) अविनाशी पदार्थों को प्रकट करते हैं (सः) वह आप हम लोगों से (उक्थ्यः) प्रशंसनीयों में प्रसिद्ध (असि) हैं ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस ईश्वर ने बहुत पुष्प और फलयुक्त ओषधी सबकी आधारभूत पृथिवी और बिजुली आदि पदार्थ उत्पन्न किये हैं, वही आप हम लोगों को उपास्य हैं ॥७॥
विषय
सर्वनिर्माता प्रभु
पदार्थ
१. (यः) = जो आप (पुष्पिणीः च) = फूलोंवाली (प्रस्वः च) = और फलोंवाली (वि अवनी:) = विशेषरूप से हमारे जीवनों का रक्षण करनेवाली ओषधियों- लताओं को (दाने) = [दाप् लवने] जिनमें इन ओषधियों का परिपाक होने पर लवन किया जाता है- उन क्षेत्रों में (अधि अधारयः) = आधिक्येन धारण करते हैं । २. (यः च) = और जो आप (दिवः) = सूर्य की (असमाः) = सात किरणों से प्रकट होनेवाली भिन्न-भिन्न (दिद्युतः) = ज्योतियों को (अजनः) = प्रकट करते हैं। सूर्य की सम्पूर्ण किरणों में सात प्रकार के प्राणदायी तत्त्व हैं- इन सब प्राणदायी तत्त्वों का शरीर में भिन्न-भिन्न कार्य है, वस्तुतः इन किरणों से ही सात प्रकार के विटामिन्स ओषधियों में स्थापित किये जाते हैं । गोदुग्ध आदि में भी इन विटामिन्स की स्थापना इन किरणों से ही होती है। ३. हे प्रभो ! (उरुः) = आप विशाल हैं और (अभितः) = सब ओर (ऊर्वान्) = विशाल लोकों का निर्माण करनेवाले हैं। (सः) = वे आप (उक्थ्यः) = प्रशंसनीय व स्तुत्य असि हैं |
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही फूल-फलवाली लताओं को क्षेत्रों में धारण करते हैं। वे ही सूर्यकिरणों में विविध प्राणदायी तत्त्वों को स्थापित करते हैं। विशाल लोकों का सब ओर निर्माण करते हैं ।
विषय
परमेश्वर उत्तम शासक ।
भावार्थ
( यः ) जो परमेश्वर ( धर्मणा ) अपने धारण सामर्थ्य या ईश्वरीय नियम से जगत् को पालन करने के हेतु ( पुष्पिणीः च ) फूलों वाली ( प्रस्वः च ) उत्तम फल उत्पन्न करने वाली और ( अवनीः ) सब प्राणियों को रोगादि से बचानेवाली, नाना ओषधि लताओं को, भूमियों और नारियों को ( दाने ) रोगों को काटने और खेत बनाने और धर्मपूर्वक सन्तानोत्पत्ति के लिये अन्यों को दान देने के निमित्त ( अधारयः ) धारण करता है । और ( यः ) जो ( दिवः ) सूर्य, अन्तरिक्ष और पृथिवी में ( असमाः दिद्युतः ) एक से एक भिन्न, नाना विचित्र चमकानेवाले और पृथिवी आदि पदार्थ ( अजनः ) उत्पन्न करता है, और जो ( उरुः ) स्वयं महान् होकर ( ऊर्वान् ) नाना विनश्वर पदार्थों को भी रचता है ( सः उक्थ्यः असि ) वह तू स्तुति करने योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्या ईश्वराने पुष्कळ पुष्प व फलयुक्त औषधी, सर्वांचा आधार असलेली पृथ्वी व विद्युत इत्यादी पदार्थ उत्पन्न केलेले आहेत, तोच आम्हा सर्वांचा उपास्य आहे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Who, with his law and power, in his profuse generosity, holds and sustains the various lands of flowers and fertility, who is vast and potent and creates the infinite variety of lights and blazing energies in their entirety, he, lord worthy of homage and celebration, is Indra.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of learned persons still goes on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
With His righteousness, God holds and blesses the lands with various flowering and fruit giving-plantations and creepers. He illuminates varying thunderbolts and plants from all directions and creates specialty in them, which establishes, His mighty power and manifests many perishable things. He is, therefore, to be admired by all of us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God has created the lands with flowering creepers and herbal plants, thunderbolts and other substances. O men ! therefore He is only to be worshipped.
Foot Notes
(पुष्पिणी:) बहनि पुष्पाणि यासु ताः । = Flowering. (प्रस्व:) प्रसावित्रि = Creepers producing fruits and flowers. (अवनी:) पृथिवी: = Lands. (ऊरु:) बहुशक्ति: = The mighty power. (ऊर्वान्) विनश्वरान् पदार्थान् । = Perishable substances. (अभितः) सर्वतः दिशाभ्यः = From all directions.
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