ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 4
प्र॒जाभ्यः॑ पु॒ष्टिं वि॒भज॑न्त आसते र॒यिमि॑व पृ॒ष्ठं प्र॒भव॑न्तमाय॒ते। असि॑न्व॒न्दंष्ट्रैः॑ पि॒तुर॑त्ति॒ भोज॑नं॒ यस्ताकृ॑णोः प्रथ॒मं सास्यु॒क्थ्यः॑॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽजाभ्यः॑ । पु॒ष्टिम् । वि॒ऽभज॑न्तः । आ॒स॒ते॒ । र॒यिम्ऽइ॑व । पृ॒ष्ठम् । प्र॒ऽभव॑न्तम् । आ॒ऽय॒ते । असि॑न्वन् । दंष्ट्रैः॑ । पि॒तुः । अ॒त्ति॒ । भोज॑नम् । यः । ता । अकृ॑णोः । प्र॒थ॒मम् । सः । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजाभ्यः पुष्टिं विभजन्त आसते रयिमिव पृष्ठं प्रभवन्तमायते। असिन्वन्दंष्ट्रैः पितुरत्ति भोजनं यस्ताकृणोः प्रथमं सास्युक्थ्यः॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽजाभ्यः। पुष्टिम्। विऽभजन्तः। आसते। रयिम्ऽइव। पृष्ठम्। प्रऽभवन्तम्। आऽयते। असिन्वन्। दंष्ट्रैः। पितुः। अत्ति। भोजनम्। यः। ता। अकृणोः। प्रथमम्। सः। असि। उक्थ्यः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
ये प्रजाभ्यः पुष्टिं विभजन्त आयते प्रभवन्तं पृष्ठं रयिमिवाऽसिन्वन्नासते तैस्सह यो दंष्ट्रैः पितुर्भोजनमत्ति ता प्रथममकृणोः स त्वमुक्थ्योऽसि ॥४॥
पदार्थः
(प्रजाभ्यः) (पुष्टिम्) पोषणार्हान् पदार्थान् (विभजन्तः) विविधतया सेवमानाः (आसते) उपविष्टाः सन्ति (रयिमिव) श्रियमिव (पृष्ठम्) आधारम् (प्रभवन्तम्) उत्पद्यमानम् (आयते) समीपं प्राप्नुवते (असिन्वन्) बध्नन्ति (दंष्ट्रैः) दद्भिः (पितुः) अन्नम् (अत्ति) भक्षयति (भोजनम्) भक्षनीयं वस्तु (यः) (ता) (अकृणोः) (प्रथमम्) (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥४॥
भावार्थः
ये मनुष्या मनुष्याणां विद्याधनवृद्धये बद्धपरिकराः स्युस्ते सुखिनः सन्तः प्रशंसनीया भवेयुः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (प्रजाभ्यः) प्रजाजनों के लिये (पुष्टिम्) पुष्टि के योग्य पदार्थों को (विभजन्तः) विविध प्रकार से सेवन करते हुए जन (आयते) समीप प्राप्त हुए जिज्ञासु जन के लिये (प्रभवन्तम्) उत्पद्यमान (पृष्ठम्) आधार को (रयिमिव) धन के समान (असिन्वन्) बाँधते और (आसते) स्थिर होते हैं उनके साथ (यः) जो (दंष्ट्रैः) दन्तों से (पितुः) अन्न (भोजनम्) भोजन के योग्य पदार्थ को (अत्ति) भक्षण करते हैं (सः) वह आप (उक्थ्यः) कहने योग्य जनों में प्रसिद्ध (असि) हैं ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य दूसरे मनुष्यों की विद्या और धन की वृद्धि के लिये बद्धपरिकर अर्थात् कटिबद्ध होते हैं, वे सुखी होते हुए प्रशंसनीय हैं ॥४॥
विषय
प्रजाहितकारी राजा
पदार्थ
१. उत्तम राजा (प्रजाभ्यः) = प्रजाओं के लिए (पुष्टिम्) = सम्पूर्ण धनों को [Possessions] (विभजन्तः) = बाँटते (आसते) = राष्ट्र के सिंहासन पर बैठते हैं। ये प्रजाओं से कर आदि के रूप में प्राप्त धनों को प्रजाहित के लिए व्ययित करनेवाले होते हैं। ये उसी प्रकार प्रजाओं के लिए धनों को देते हैं (इव) = जैसे कि (आयते) = आनेवाले अतिथि के लिए (पृष्ठम्) = माँगे हुए [asked] (प्रभवन्तम्) = कार्यपूर्ति के लिए समर्थ (पर्याप्त) धन दिया जाता है। २. यह प्रजापालक राजा (असिन्वन्) = किसी भी वस्तु को अपना बन्धन न बनाता हुआ (दंष्ट्रै:) = अपने दाँतों से (पितुः) = [द्यौष्पिता] पितृरूप द्युलोक के (भोजनम्) = भोजन को अत्ति खाता है। द्युलोक से वृष्टि द्वारा पृथिवी में उत्पन्न हुए अन्नादि का ही यह सेवन करता है। इसी से यह क्रूर व अत्याचारी न होकर प्रजाओं को अपने (पुत्रवत्) = पालने की प्रवृत्तिवाला बनता है । हे प्रभो ! (यः) = जो आप (ता) = इन प्रजापालनादिरूप कर्मों को प्(रथमं आकृणोः) = सर्वप्रथम करते हैं। (सः) = वे आप (उक्थ्यः असि) = प्रशंसनीय हैं। प्रभुकृपा से ही राजा उत्कृष्ट गुणों से युक्त बना करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - राजा को चाहिए कि प्रजाओं से प्राप्त धन को प्रजाहित में ही विनियुक्त करे। सदा वानस्पतिक भोजन का सेवन करे ताकि क्रूरवृत्ति न हो ।
विषय
गृहपतिवत् राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( प्रजाभ्यः ) अपनी प्रजाओं के हित के लिये प्रजापति या गृहपति जन जिस प्रकार (पुष्टिं विभजन्तः) पोषणकारी पशु, अन्न, भूमि आदि समृद्धि को विभाग करते हुए ( आसते ) राजा का आश्रय लेकर बैठते हैं उसी प्रकार लोग जिस परमेश्वर को ( प्रजाभ्यः ) प्रजाओं के हित के जिये ( पुष्टिं ) समस्त समृद्धिमय जानकर ( विभजन्तः ) विविध प्रकार से भजन करते, उसकी भक्ति करते हैं और जिस प्रकार ( आयते ) आगामी काल, भविष्य के लिये लोग ( रयिम् ) ऐश्वर्य को ( असिन्वन् ) गांठते हैं और जिस प्रकार लोग भविष्य के लिये ( पृष्ठं असिन्वन् ) अपनी पीठ, या आधार को पक्का, मजबूत बनाते हैं ( इव ) उसी प्रकार जिस परमेश्वर को ( रयिम् ) सर्वस्व धन, बल रूप ( पृष्ठं ) देह में पीठ के समान संसार भर को थामने वाला और ( प्रभवन्तं ) सब का प्रभु होने वाले को ( असिन्वन् ) बांधते, हृदय में गांठते, उसके साथ प्रेम बना कर उसको अपने से जोड़ते हैं । और मनुष्य जिस प्रकार ( दंष्ट्रैः भोजनं अत्ति ) अपनी दांढों से भोजन चबाकर खाता है उसी प्रकार ( यः ) जो परमेश्वर ( पितुः ) सब संसार का पालक होकर भी दाढ़ों से भोजन के समान ही समस्तजगत् को (अत्ति ) प्रलय काल में ग्रास कर जाता है और ( यः ) जो ( ता अकृणोः ) तू हे परमेश्वर ! उन नाना कर्मों को सब से पहले से ही करता आ रहा है ( सः ) वह तू ( उक्थ्यः ) वेदों द्वारा प्रशंसा के योग्य ( असि ) है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे दुसऱ्या माणसांची विद्या व धन यांच्या वृद्धीसाठी बद्धपरिकर असतात ती सुखी होतात व प्रशंसनीय ठरतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The house holders sit at the yajna working, serving and giving for the health, growth and advancement of the people, and while their wealth, property and possessions are rising in assets, they sit and abide by the yajna, sealing and securing the back bone of the nation, a firm foundation and a launching pad for the coming generations of humanity for further progress. And all the while the sagely scholar scientist visionary enjoys yajnic food musticating every particle of it with his teeth. Indra, it is you who plan, ordain and execute all these dispensations, you are adorable in words of celebration.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of learned persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The learned persons provide protective power to the human beings proportionately. Those who stay in their company, they always get growing basic richness, and which thus provides them stability. In return of taking any meals or materials from their admirers, those learned men are eminent in the community.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who help human-beings in securing knowledge and wealth, they become happy and are indeed admirable.
Foot Notes
(पुष्टिम्) पोषणर्हान् पदार्थान् = To the nourishing substances. (विभजन्तः) विविधतया सेवमानाः = Enjoying variously. (आसते) उपविष्टा: सन्ति = Stay in the company of. (पृष्ठं) आधारम् = Basic or fundamental. (प्रभवन्तम्) उत्पद्यमानम् । = Growing. (आयते) समीपं प्राप्नुवते = Get company of (उक्थ्यः) श्रेष्ठः = Excellent.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal