ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 14
ब्रह्म॑ण॒स्पते॑रभवद्यथाव॒शं स॒त्यो म॒न्युर्महि॒ कर्मा॑ करिष्य॒तः। यो गा उ॒दाज॒त्स दि॒वे वि चा॑भजन्म॒हीव॑ री॒तिः शव॑सासर॒त्पृथ॑क्॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णः । पतेः॑ । अ॒भ॒व॒त् । य॒था॒ऽव॒शम् । स॒त्यः । म॒न्युः । महि॑ । कर्म॑ । क॒रि॒ष्य॒तः । यः । गाः । उ॒त्ऽआज॑त् । सः । दि॒वे । वि । च॒ । अ॒भ॒ज॒त् । म॒हीऽइ॑व । री॒तिः । शव॑सा । अ॒स॒र॒त् । पृथ॑क् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणस्पतेरभवद्यथावशं सत्यो मन्युर्महि कर्मा करिष्यतः। यो गा उदाजत्स दिवे वि चाभजन्महीव रीतिः शवसासरत्पृथक्॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणः। पतेः। अभवत्। यथाऽवशम्। सत्यः। मन्युः। महि। कर्म। करिष्यतः। यः। गाः। उत्ऽआजत्। सः। दिवे। वि। च। अभजत्। महीऽइव। रीतिः। शवसा। असरत्। पृथक्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरध्यापकाः कीदृशाः स्युरित्याह।
अन्वयः
यो महि कर्म करिष्यतो ब्रह्मणस्पतेः सकाशाद्यथावशं सत्यो मन्युरभवत्स यथा दिवे सूर्य्यो गा उदाजत् तथा धर्मं प्रकाशयति या महीव रीतिः शवसा पृथगसरतां च व्यभजत् ॥१४॥
पदार्थः
(ब्रह्मणः) धनस्य (पतेः) पत्युः। अत्र षष्ठीयुक्तश्छन्दसि वेति पतिशब्दस्य घि संज्ञा (अभवत्) भवेत् (यथावशम्) वशमनतिक्रम्य यथा स्यात्तथा (सत्यः) सत्सु साधुः (मन्युः) क्रोधः (महि) महत् (कर्म)। अत्र संहितायामिति दीर्घः (करिष्यतः) (यः) (गाः) किरणान् (उदाजत्) ऊर्ध्वमधो गमयति (सः) (दिवे) (वि) (च) (अभजत्) भजेत् (महीव) यथा पूज्या महती (रीतिः) श्रेष्ठा नीतिः (शवसा) बलेन (असरत्) सरेत् प्राप्नुयात् (पृथक्) ॥१४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये पुरुषार्थिनोऽध्यापकाः सुशिक्षां प्राप्य सत्योपरि प्रीतिमसत्ये क्रोधं ददति ते महतीं सुशीलतां प्राप्य यथेष्टं कार्यं प्राप्नुवन्ति ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अध्यापक लोग कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
(यः) जो (महि) बड़े (कर्म) काम को (करिष्यतः) करनेवाले (ब्रह्मणः,पतेः) धन के स्वामी के समीप से (यथावशम्) वशके अनुकूल विचारपूर्वक (सत्यः) श्रेष्ठ, अधर्म त्यागार्थ ही (मन्युः) क्रोध (अभवत्) होवे (सः) वह जैसे (दिवे) प्रकाश के लिये सूर्य (गाः) किरणों को (उत्,आजत्) ऊपर नीचे पहुँचाता है वैसे धर्म के प्रकाश के लिये होता है जो (महीव) जैसे श्रेष्ठ माननीय (रीतिः) उत्तम रीति नीति (शवसा) बल के साथ (पृथक्) अलग-अलग (असरत्) प्राप्त होवे उसको (च) भी (वि,अभजत्) वह उक्त क्रोध का विभाग करे वा विशेष कर सेवे ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पुरुषार्थी अध्यापक लोग अच्छी शिक्षा को पाकर सत्य में प्रीति और असत्य पर क्रोध को धारण करते हैं, वे बड़ी सुशीलता को प्राप्त होके यथेष्ट कार्य को प्राप्त होते हैं ॥१४॥
विषय
इन्द्रियों का विषयों से उन्नयन
पदार्थ
१. (ब्रह्मणस्पतेः) = ज्ञानी का सब कुछ (यथावशम्) = इच्छा के अनुसार (अभवत्) = हो जाता है । इसका (मन्युः) = ज्ञान (सत्यः) = सत्य होता है। (महि कर्म करिष्यतः) = महत्त्वपूर्ण कर्मों को करते हुए इसका कभी भी कुछ इच्छा के विपरीत नहीं होता। इसका ज्ञान सत्य होता है-अतः इसके कर्म भी सत्य होते हैं 'सत्यप्रतिष्ठायां सर्वकर्मफलाश्रयत्वम्' [योग द०] । २. यह ब्रह्मणस्पति वह है (यः) = जो (गाः उदाजत्) = इन्द्रियरूप गौवों को विषयों से ऊपर उठाता है-विषयों से बद्ध नहीं होने देता । (च) = और (स:) = वह (दिवे) = ज्ञानप्राप्ति के लिए (अभजत्) = इन्हें भागी बनाता है। उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानप्राप्ति के लिए अर्थों के सम्पर्क में आती हैं। (मही रीतिः इव) = महान् जलधारा की भाँति [ री प्रस्त्रावणे] (शवसा) = शक्ति के साथ (पृथक्) = अनायास ही (असरत्) = इसकी ज्ञानधारा प्रवाहित होती है। कर्मेन्द्रियाँ कर्मों में व्याप्त होकर इसे सशक्त बनाती हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ विषयों में न फंसकर इसके ज्ञानप्रवाह को अविच्छिन्नरूप से चलाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ – हम इन्द्रियों को विषयों में न फंसने देंगे तो कर्मेन्द्रियाँ शक्तिवृद्धि का कारण बनेंगी और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानवृद्धि का
विषय
और परमेश्वर उत्तम राजा ।
भावार्थ
( महि कर्म ) बड़ा काम ( करिष्यतः ) करने की इच्छा हुए ( ब्रह्मणः पते ) बड़े भारी धन, जन राष्ट्र के स्वामी का ( मन्युः ) क्रोध भी ( यथावशं ) उसके अपने वश, अधिकार और विशेष जितेन्द्रियता के अनुसार ही ( सत्यः अभवत् ) सत्य अर्थात् उचित फलदायक हुआ करता है । ( यः ) जो पुरुष ( गाः उद् आजत् ) किरणों को सूर्य के समान अपनी वाणियों या आज्ञाओं को अन्यों के ऊपर चलाता है या ( गाः उद् आजत् ) जो भूमियों पर शासन करता है वह उन अधीनों को ( दिवे ) ज्ञान प्रकाश और व्यवहार ज्ञान और विजय के लिये ( वि अभजत् ) विभक्त करता, या प्रदान करता है । और वह स्वयं या उसकी रीति, गति या नीति या आज्ञा ( मही रीतिः इव ) बड़ी भारी बहती नदी के समान ( शवसा ) बड़े अदम्य बल से ( पृथक् ) स्वतन्त्र ही ( असरत् ) निकलती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १–११, १३–१६ ब्रह्मणस्पतिः । १२ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च देवते ॥ छन्दः–१, ७, ९, ११ निचृज्जगती । १३ भुरिक् जगती । ६, ८, १४ जगती । १० स्वराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुषार्थी अध्यापक सुशिक्षण घेऊन असत्यावर अप्रीती दर्शवून सत्यावर प्रीती करतात ते सद्वर्तनी बनून इष्ट कार्य करतात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the righteous passion, even anger, of Brahmanaspati, lord of great action in governance, be true to the purpose of Dharma, and controlled according to the state of affairs, as it is he who directs the vibrations of the nation up and down in the light of heaven and, with his own strength and power, moves forward by himself and abides by custom, tradition and law like the earth in orbit.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the teachers are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
An ideal teacher is destined to accomplish big tasks. He also takes the wealthy persons on the right lines with proper communication. He also shows his anger on the opposite category. Like the sun-rays, he carries the light of truth everywhere, up and down. Those who are really great and lead their life on right lines with determination, and even those who act contrary to it, the teacher should distinguish between such people cautiously and appropriately.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The well learned teachers love truthfulness and ward off the unrighteousness. Such people achieve their aims in an exceedingly good way.
Foot Notes
(पते:) पत्युः = Of the owner. (यथावशम्) वशमनतिक्रम यथास्यात्तथा । = According to capacity. (गा:) किरणान् = To the rays. (उदाजत्) ऊर्ध्वमधो गमयति। = Carries up and down. (रीतिः) श्रेष्ठा नीतिः। = Ideal policy or line.
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