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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तद्दे॒वानां॑ दे॒वत॑माय॒ कर्त्व॒मश्र॑थ्नन्दृ॒ळ्हाव्र॑दन्त वीळि॒ता। उद्गा आ॑ज॒दभि॑न॒द्ब्रह्म॑णा ब॒लमगू॑ह॒त्तमो॒ व्य॑चक्षय॒त्स्वः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । दे॒वाना॑म् । दे॒वऽत॑माय । कर्त्व॑म् । अश्र॑थ्नन् । दृ॒ळ्हा । अव्र॑दन्त । वी॒ळि॒ता । उत् । गाः । आ॒ज॒त् । अभि॑नत् । ब्रह्म॑णा । व॒लम् । अगू॑हत् । तमः॑ । वि । अ॒च॒क्ष॒य॒त् । स्वरिति॑ स्वः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्देवानां देवतमाय कर्त्वमश्रथ्नन्दृळ्हाव्रदन्त वीळिता। उद्गा आजदभिनद्ब्रह्मणा बलमगूहत्तमो व्यचक्षयत्स्वः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। देवानाम्। देवऽतमाय। कर्त्वम्। अश्रथ्नन्। दृळ्हा। अव्रदन्त। वीळिता। उत्। गाः। आजत्। अभिनत्। ब्रह्मणा। बलम्। अगूहत्। तमः। वि। अचक्षयत्। स्व१रिति स्वः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथा देवानां देवतमाय सूर्याय तत्कर्त्त्वं कर्मास्ति यथायं सूर्य्यो गा उदाजद्ब्रह्मणा बलमभिनद्यत्तमोऽगूहत्प्रकाशमगूहत्तद्यो व्यभिनत्स्वर्व्यचक्षयद्यस्य प्रतापेनोक्तानि वस्तूनि दृढा वीळिता अव्रदन्ताश्रथ्नन् तथा त्वं वर्त्तस्व ॥३॥

    पदार्थः

    (तत्) (देवानाम्) देदीप्यमानानां लोकानाम् (देवतमाय) अतिशयेन प्रकाशयुक्ताय (कर्त्त्वम्) कर्त्तव्यम् (अश्रथ्नन्) विमुक्तानि भवन्ति (दृढा) दृढानि (अव्रदन्त) मृदूनि भवन्ति (वीळिता) प्रशंसितानि (उत्) (गाः) किरणान् (आजत्) अजति प्रक्षिपति (अभिनत्) विदृणाति (ब्रह्मणा) बृहता बलेन (बलम्) आवरकं मेघम् (अगूहत्) संवृणोति (तमः) अन्धकारम् (वि) (अचक्षयत्) दर्शयति (स्वः) अन्तरिक्षस्थान् पदार्थान् ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवद्विद्याप्रकाशकर्माणोऽविद्यान्धकारनिवारकाः प्रमादिनो दुष्टान् शिथिलीकुर्वन्तो विद्वत्तमत्वं गृह्णन्ति ते जगदुपकारकाः सन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वन् जैसे (देवानाम्) प्रकाशमान लोकों में (देवतमाय) अत्यन्त प्रकाशयुक्त सूर्य के लिये (तत्,कर्त्त्वम्) वह कर्त्तव्य कर्म है जैसे यह सूर्य (गाः) किरणों को (उत्,आजत्) उत्कृष्टता से फेंकता (ब्रह्मणा) बड़े बल से (बलम्) आवरणकर्त्ता मेघ को (अभिनत्) विदीर्ण करता और जो (तमः) अन्धकार (अगूहत्) प्रकाश का आवरण करता उसको जो विदीर्ण करता और (स्वः) अन्तरिक्षस्थ सब पदार्थों को (व्यचक्षयत्) विशेष कर दर्शाता है और जिसके प्रताप से उक्त सब वस्तु (दृढा) दृढ (वीळिता) प्रशस्त (अव्रदन्त) कोमल होते तथा (अश्रथ्नन्) विमुक्त होते हैं, वैसे आप वर्त्ताव कीजिये ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के तुल्य विद्या प्रकाश कर्मवाले अविद्यारूप अन्धकार के निवारक प्रमादी दुष्टों को शिथिल करते हुए श्रेष्ठ विद्वत्ता को ग्रहण करते हैं, वे जगत् के उपकारक होते हैं ॥३॥

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    विषय

    प्रभुप्राप्ति का मार्ग

    पदार्थ

    १. (देवानां देवतमाय) = देवों में देवाधिदेव प्रभु के लिए (तद् कर्त्वम्) = यह कर्तव्य होता है कि [क] दृढा-बड़े दृढ़ असुरों के दुर्ग (अश्रथ्न्न) = शिथिल हो जाएँ। आसुरभावों की जड़ों को हम हिला दें। [ख] (वीडिता) = बड़े प्रबल आसुरभाव (अवदन्त) = मृदु हो जाएँ। इनकी प्रबलता समाप्त हो जाए। ३. (गाः) = इन्द्रियरूप गौओं को यह विषयों के बाड़े से (उद् आजत्) = बाहर हांकनेवाला हो । इन्द्रियों को विषयबन्धन से मुक्त करे। (ब्रह्मणा) = ज्ञान द्वारा (वलम्) = [Veil] शान्ति पर परदे के रूप में पड़ जानेवाले ईर्ष्यारूप वलासुर को (अभिनद्) = विदीर्ण करे। ईर्ष्यालु पुरुष कभी प्रभु को नहीं प्राप्त करता । ५. (तमः अगूहत्) = अन्धकार को संवृत कर देता है और (स्वः) = प्रकाश को (व्यचक्षयत्) = प्रकट करता है। स्वाध्याय को अपनाने द्वारा अज्ञानान्धकार दूर करके ज्ञानप्रकाश प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुप्राप्ति का मार्ग यह है कि हम काम क्रोधादि के किलों को तोड़ डालें, प्रबल आसुरभावों की तीव्रता समाप्त कर दें, इन्द्रियों को विषयबन्धन से मुक्त करें, ईर्ष्या से ऊपर उठें और स्वाध्याय द्वारा अज्ञानान्धकार को दूर करें ।

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    विषय

    और परमेश्वर उत्तम राजा ।

    भावार्थ

    ( देवानां ) तेजस्त्रियों में ( देवतमाय ) जो सबसे अधिक तेजस्वी होता है उसका ( तत् कर्त्त्वंम् ) यह अलौकिक कर्म होता है कि उसके समक्ष ( दृढा अश्रथ्नन् ) दृढ़ पदार्थ भी उसके लिये शिथिल हो जाते हैं और ( वीडिता ) बलशाली भी ( अव्रदन्त ) कोमल होकर झुक जाते हैं । वह विद्वान् और राजा ( ब्रह्मणा ) बड़े बल से ( गाः उत् आजत् ) किरणों को सूर्य के समान भूमियों और भूमिवासी प्रजाओं को ( उत् आजत् ) उत्तम मार्ग में चलता और ( गाः उत्आजत् ) उत्तम २ ज्ञान वाणियों का उपदेश करता है ( वलम् ) मेघ को सूर्य के समान स्वबल और शत्रु बल को ( अभिनत् ) भेद डालता और ( तमः ) अज्ञान अन्धकार को ( अगूहत् ) छिपा देता, और ( स्वः वि अक्षयः ) प्रकाश के समान सुख और तेज को प्रकट करता और नाना प्रकार से सन्मार्ग बतलाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १–११, १३–१६ ब्रह्मणस्पतिः । १२ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च देवते ॥ छन्दः–१, ७, ९, ११ निचृज्जगती । १३ भुरिक् जगती । ६, ८, १४ जगती । १० स्वराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे विद्याप्रकाशाचे कर्म करणारे, अविद्यारूपी अंधकाराचे निवारण करणारे, प्रमादी दुष्टांना शिथिल करणारे असून श्रेष्ठ विद्वत्ता ग्रहण करतात ते जगाचे उपकारक असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That exceptional wonder of Karma is worthy of the most brilliant of the divinities of the universe, Indra, refulgent as the sun. He disarms the most obstinate, softens the hardest, releases the rays of light, breaks the cloud with his divine might, dispels the darkness, and reveals the light of heaven.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of learned person are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The functions of the sun are to throw its rays with force and thoroughly in order to smash the bunch of covering clouds. It also removes the darkness and brings in the light, which enables the men to see things thoroughly. O learned person ! as the sun changes it's stand, sometimes mild or sometimes harsh, the same way you should treat appropriately with all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The learned person should act like the sun by spreading the light of knowledge and dispelling the darkness of ignorance. That way the wicked persons get nervous and return to right path of learning. Such people are verily benefactors.

    Foot Notes

    (देवानाम् ) देदीप्यमानानां लोकानाम् = The shining planets. (देवतमाय ) अतिशयेन प्रकाशयुक्ताय । = For the shining sun. (कर्त्वम् ) कत्र्तव्यम् । = Duties. (प्रवदन्त ) मृदूनि भवन्ति । = Treat mildly. (आजत्) अजति प्रक्षिपति। = Throws away. (वलम्) आवरकं मेघम्। = Covering clouds. (स्वः) अन्तरिक्षस्थान् पदार्थान् । = The planets in the firmament.

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