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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ब्रह्म॑णस्पते सु॒यम॑स्य वि॒श्वहा॑ रा॒यः स्या॑म र॒थ्यो॒३॒॑ वय॑स्वतः। वी॒रेषु॑ वी॒राँ उप॑ पृङ्धि न॒स्त्वं यदीशा॑नो॒ ब्रह्म॑णा॒ वेषि॑ मे॒ हव॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑णः । प॒ते॒ । सु॒ऽयम॑स्य । वि॒श्वहा॑ । रा॒यः । स्या॒म॒ । र॒थ्यः॑ । वय॑स्वतः । वी॒रेषु॑ । वी॒रान् । उप॑ । पृ॒ङ्धि॒ । नः॒ । त्वम् । यत् । ईशा॑नः । ब्रह्म॑णा । वेषि॑ । मे॒ । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मणस्पते सुयमस्य विश्वहा रायः स्याम रथ्यो३ वयस्वतः। वीरेषु वीराँ उप पृङ्धि नस्त्वं यदीशानो ब्रह्मणा वेषि मे हवम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मणः। पते। सुऽयमस्य। विश्वहा। रायः। स्याम। रथ्यः। वयस्वतः। वीरेषु। वीरान्। उप। पृङ्धि। नः। त्वम्। यत्। ईशानः। ब्रह्मणा। वेषि। मे। हवम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह।

    अन्वयः

    हे ब्रह्मणस्पते रथ्यो विश्वहेशानस्त्वं ब्रह्मणा मे यद्धवं वेषि तेन नोऽस्मान् सुयमस्य वयस्वतो रायो वीरेषु नोऽस्मान् वीरानुपपृङ्धि यतो वयमभीष्टसिद्धाः स्याम ॥१५॥

    पदार्थः

    (ब्रह्मणः) धनस्य (पते) पालयितः (सुयमस्य) शोभना यमा यस्मात्तस्य (विश्वहा) विश्वं हन्ति जानाति प्राप्नोति वा सः (रायः) धनस्य (स्याम) भवेम (रथ्यः) रथेषु साधुः (वयस्वतः) प्रशस्तं वयो जीवनं विद्यते यस्मिँस्तस्य (वीरेषु) सुभटेषु (वीरान्) शूरान् (उप) (पृङ्धि) सम्बधान (नः) अस्मान् (त्वम्) (यत्) यम् (ईशानः) समर्थः (ब्रह्मणा) वेदेन (वेषि) प्राप्नोषि (मे) मम (हवम्) आह्वानम् ॥१५॥

    भावार्थः

    ये सुसंयताः स्युस्ते चिरं जीवेयुः। ये ब्रह्मचर्यं पालयेयुस्त आत्मशरीराभ्यां सुवीरा जायन्ते ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (ब्रह्मणः) धन के (पते) रक्षक (रथ्यः) रथक्रिया में प्रवीण (विश्वहा) सबको जानने वा प्राप्त होनेवाले (त्वम्) आप (ब्रह्मणा) वेद से (मे) मेरे (यत्) जिस (हवम्) आह्वान बुलाने को (वेषि) प्राप्त होते हो उस आह्वान से (नः) हमको (सुयमस्य) सुन्दर संयम हों जिससे उस और (वयस्वतः) जिसके होने में अच्छा जीवन व्यतीत हो उस (रायः) धनके रक्षक (वीरेषु) वीर सिपाहियों में हम (वीरान्) वीर लोगों से (उप,पृङ्धि) समीप सम्बन्ध कीजिये जिससे हम लोग अभीष्ट कार्य सिद्ध करनेवाले (स्याम) हों ॥१५॥

    भावार्थ

    जो लोग सुन्दर संयमवाले हों, वे बहुत काल जीवें, जो ब्रह्मचर्य्य का पालन करें, वे आत्मा और शरीर से अच्छे वीर होते हैं ॥१५॥

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    विषय

    संयमयुक्त उत्कृष्ट जीवनवाला 'धन'

    पदार्थ

    १. हे ब्रह्मणस्पते ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! हम (विश्वहा सदा रायः) = धन के (रथ्यः) = स्वामी (स्याम) = हों। उस धन के हम स्वामी हों जो कि (सुयमस्य) = उत्तम नियमवाला है- जिस धन के कारण हमारा जीवन असंयत नहीं बन जाता तथा उस धन के हम स्वामी हों जो कि (वयस्वतः) = उत्कृष्ट जीवनवाला है- जो धन हमें प्रशस्त जीवनवाला बनाता है। २. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः वीरेषु) = हमारे वीर सन्तानों में वीरान् वीर ही सन्तानों को (उपपृङ्द्धि) = सम्पृक्त करिए। धनों का ठीक ही प्रयोग करते हुए हम तो वीर हों ही- हमारे सन्तान भी वीर हों- उनके सन्तान भी वीर हों। आप (यत्) = क्योंकि (ईशान:) = ईशान हैं— स्वामी हैं, अतः आप (मे) = मेरी (ब्रह्मणा) = ज्ञानपूर्वक की गई (हवम्) = पुकार व स्तुति को (वेषि) = प्राप्त होते हैं। मैंने और किससे आराधना करनी ! आप ही ईशान हो, आपको छोड़कर मैंने और कहाँ जाना ? आप मेरी प्रार्थना को अवश्य सुनेंगे ही।

    भावार्थ

    भावार्थ– हे प्रभो! आप मुझे संयमयुक्त उत्कृष्ट जीवनवाले धन प्राप्त कराइए । हमारा वंश वीरतावाला हो। आप ही हमारे ईशान हैं। आप से ही हम याचना करते हैं ।

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    विषय

    और परमेश्वर उत्तम राजा ।

    भावार्थ

    ( ब्रह्मणस्पते ) बड़े ऐश्वर्य के पालक ! हम ( सुयमस्य ) उत्तम नियम व्यवस्था के करने वाले ( वयस्वतः ) दीर्घजीवन और बल के उत्पादक ( रायः ) ऐश्वर्य के ही ( विश्वहा ) सब दिनों ( रथ्यः ) रमण करने योग्य पदार्थों के स्वामी या रथ द्वारा विजयी ( स्याम ) हों । (त्वं) तू ( नः ) हम ( वीरान् ) वीर पुरुषों को ( वीरेषु ) वीर पुरुषों के बीच में या उनके अधीन ही ( उप पुङि्ध ) जोड़ रख । (वं ) तू ही ( यत् ) जब ( ईशानः ) सब का स्वामी होकर ( ब्रह्मणा ) वेद ज्ञान के अनुसार ले ( मे ) मेरी ( हवम् ) पुकार या आवेदन या ग्रहण योग्य अन्नादि कर को ( वेषि ) प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १–११, १३–१६ ब्रह्मणस्पतिः । १२ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च देवते ॥ छन्दः–१, ७, ९, ११ निचृज्जगती । १३ भुरिक् जगती । ६, ८, १४ जगती । १० स्वराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक संयमी असतात, ते दीर्घजीवी होतात. जे ब्रह्मचर्याचे पालन करतात ते आत्मा व शरीराने उत्तम वीर पुरुष बनतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brahmanaspati, lord protector of the wealth of the nation of humanity, master of the universal knowledge of existence, you are the hero of the chariot, knower and friend of the whole world. Ruler supreme as you are of the entire existence, come to us in response to my Vedic invocation and join the brave with the brave and eminent with the eminent so that we may be masters and protectors of well-begotten and life-giving wealth and develop it further by noble conduct and development.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the human beings are explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The people who are owners of wealth and are good at transport techniques, are accessible to all-they come to those who invite them to learn the Vedas. By doing this, they make their life regulated and discipline them to lead a noble life. Let us have our association with the owners of wealth and brave soldiers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who lead a regular and disciplined life, they live long and if they observe Brahmacharya, they improve their soul and body, both, and become brave.

    Foot Notes

    (सुयमस्य ) शोभना यमा यस्मात्तस्य। = Of the disciplined and regular. ( रथ्यः) रथेषु साधुः। = Good at transport techniques. (वयस्वतः) प्रशस्तं वयो जीवनं विद्यते यास्मि स्तस्य = Of the ones who lead an ideal life. (हवम् ) आह्वानम् । = Calls or exhortations.

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