ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
ऋ॒तावा॑नः प्रति॒चक्ष्यानृ॑ता॒ पुन॒रात॒ आ त॑स्थुः क॒वयो॑ म॒हस्प॒थः। ते बा॒हुभ्यां॑ धमि॒तम॒ग्निमश्म॑नि॒ नकिः॒ षो अ॒स्त्यर॑णो ज॒हुर्हि तम्॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तऽवा॑नः । प्र॒ति॒ऽचक्ष्य॑ । अनृ॑ता । पुनः॑ । आ । अतः॑ । आ । त॒स्थुः॒ । क॒वयः॑ । म॒हः । प॒थः । ते॒ । बा॒हुऽभ्या॑म् । ध॒मि॒तम् । अ॒ग्निम् । अस्म॑नि । नकिः॑ । सः । अ॒स्ति॒ । अर॑णः । जु॒हुः । हि । तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतावानः प्रतिचक्ष्यानृता पुनरात आ तस्थुः कवयो महस्पथः। ते बाहुभ्यां धमितमग्निमश्मनि नकिः षो अस्त्यरणो जहुर्हि तम्॥
स्वर रहित पद पाठऋतऽवानः। प्रतिऽचक्ष्य। अनृता। पुनः। आ। अतः। आ। तस्थुः। कवयः। महः। पथः। ते। बाहुऽभ्याम्। धमितम्। अग्निम्। अश्मनि। नकिः। सः। अस्ति। अरणः। जुहुः। हि। तम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
य तावानः कवयो महस्पथ आतस्थुस्तेऽतः पुनरनृता प्रतिचक्ष्यैतान्याजहुः। योऽरणो बाहुभ्यामश्मनि धमितमग्निं त्यजन्नकिरस्ति हि खलु तं बोधं प्राप्नोति ॥७॥
पदार्थः
(तावानः) य तानि सत्याचरणानि वनन्ति संभजन्ति ते (प्रतिचक्ष्य) निषेध्य (अनृता) अधर्म्यव्यवहारान् (पुनः) (आ) (अतः) हेतोः (आ) (तस्थुः) समन्तात् तिष्ठन्ति (कवयः) प्राज्ञाः (महः) महतो धर्म्यान् (पथः) मार्गान् (ते) (बाहुभ्याम्) (धमितम्) प्रज्वालितम् (अग्निम्) (अश्मनि) पाषाणे (नकिः) निषेधे (सः) (अस्ति) (अरणः) विज्ञाता (जहुः) त्यजन्ति (हि) खलु (तम्) ॥७॥
भावार्थः
येऽविद्याऽधर्माचरणं प्रत्याख्याय सन्मार्गं सेवन्ते कराभ्यां धमनेन काष्ठादिमग्निमुत्पाद्य कार्य्याणि साध्नुवन्ति तेऽभीष्टं प्राप्नुवन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषयको अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (तावानः) सत्य आचरणों का सेवन करनेहारे (कवयः) पण्डित लोग (महः) बड़े धर्मयुक्त (पथः) मार्गों पर (आ,तस्थुः) अच्छे प्रकार स्थित होते (ते) हे (अतः) इस कारण से (पुनः) बार-बार (अनृता) अधर्मयुक्त व्यवहारों को (प्रतिचक्ष्य) खण्डित कर इनको (आ, जहुः) सब प्रकार छोड़ते हैं जो (अरणः) विज्ञानी (बाहुभ्याम्) हाथों से (अश्मनि) पत्थर पर (धमितम्) प्रज्वलित करके (अग्निम्) अग्नि को त्याग करता (नकिः) नहीं (अस्ति) अर्थात् ग्रहण करता है (सः, हि) वही (तम्) उस बोध को प्राप्त होता है ॥७॥
भावार्थ
जो अविद्या और अधर्माचरण का खण्डन श्रेष्ठ मार्ग का सेवन करते हैं, वे हाथों से धौंपने से काष्ठादिस्थ अग्नि को उत्पन्न कर कार्यों को सिद्ध करते और अभीष्ट को प्राप्त होते हैं ॥७॥
विषय
सकामयज्ञों में न उलझना
पदार्थ
१. (ऋतावानः) = ऋत का पालन करनेवाले (कवयः) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी लोग (अनृता प्रतिचक्ष्य) = अनृतों को छोड़कर (पुनः) = फिर (अतः) = इस संसार से हटकर (महस्पथ:) = महान् पथ पर (आतस्थुः) = आस्थित होते हैं। संसारमार्ग छोड़कर मोक्षमार्ग पर अग्रसर होते हैं। संसारमार्ग अनृत से परिपूर्ण हैइसे वे छोड़ते हैं, ऋत को अपनाते हैं और प्रभु की ओर चलनेवाले बनते हैं । २. (ते) = वे (बाहुभ्याम्) = बाहुओं से (धमितम्) = तप्त की हुई-दीप्त की हुई (तम् अग्निम्) = उस स्वर्गादिप्राप्ति की साधनभूत अग्नि को भी (हि) = निश्चय से (जहुः) = छोड़ देते हैं। वे समझ जाते हैं कि 'प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा: '=यज्ञरूप बेड़े भी दृढ़ नहीं हैं- ये हमें पार न लगाएँगे। वे समझ लेते हैं कि सः वह अश्मनि पत्थर में होनेवाला-अग्निकुण्ड में होनेवाला (नकिः अस्ति) = कुछ महत्त्वपूर्ण नहीं है हुए ये अरणः = ये रमण व आनन्द को देनेवाला नहीं। इस प्रकार सकामयज्ञों में भी न उलझते उपासक प्रभु को आराधित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - ऋतरक्षक ज्ञानी लोग प्रभु का उपासन करते हुए महान् पथ के पथिक होते हैं । वे सकामयज्ञों में भी उलझते नहीं।
विषय
और परमेश्वर उत्तम राजा ।
भावार्थ
( ऋतावानः ) सत्य ज्ञान, वेद का सेवन करने वाले ( कवयः ) क्रान्तदर्शी ज्ञानी लोग ( अनृता ) ऋत अर्थात् सत्य ज्ञान से अविद्या के कार्यों को ( प्रति चक्ष्य ) विवेक पूर्वक त्याग करके ( पुनः ) बार बार ( अतः ) इस लोक से ( महः पथः ) बड़े धर्मयुक्त मार्गों को से ( आ तस्थुः ) प्रस्थान करते हैं । (ते) वे ( बाहुभ्यां ) बाहुओं के बल से (धमितम् ) जलाई (अग्निम्) अग्नि को (अश्मनि) जैसे पत्थर पर वैसे ही व्यापक परमेश्वर के आधार पर ही जानकर ( सः अरणः नकिः अस्ति ) वह स्थूल यज्ञाग्नि रमण करने योग्य सुखद या ज्ञानवान् चेतन नहीं यह देखकर ( तम् ) उस यज्ञाग्नि को ( जहुः ) त्याग देते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १–११, १३–१६ ब्रह्मणस्पतिः । १२ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च देवते ॥ छन्दः–१, ७, ९, ११ निचृज्जगती । १३ भुरिक् जगती । ६, ८, १४ जगती । १० स्वराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे अविद्या व अधर्माचरणाचा त्याग करून श्रेष्ठ मार्ग पत्करतात ते काष्ठ इत्यादीमध्ये असलेला अग्नी घर्षणाने उत्पन्न करून कार्य सिद्ध करतात आणि अभीष्ट प्राप्त करतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Men of truth and rectitude, poets and visionaries, pioneers of action, having perceived, challenged and fought out untruth and evil, come and stand firm by the great paths of right and universal law. By force of arms they keep the fire burning on the rock, in the cave, over the cloud and in the sky. None is a man of truth and knowledge, nor brave, none of them who abandon the fire and desert the truth of life and rectitude.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Characteristics of the learned persons are defined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The learned persons always have right conduct and are firm on righteous path. Because of this, they contradict the untruthful acts directly and give up them. The learned who acquire the knowledge with all the powers at their command, they succeed to achieve right knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who oppose and contradict the evil deeds and ignorance and follow the right path, they ultimately succeed with their knowledge and get the desired results. The knowledge here is compared with fire-wood.
Foot Notes
(ऋतावान:) य ऋतानि सत्याचरणानि वनन्ति संभजन्ति ते। = One who acts on right lines and distinguishes between right and wrong. (प्रतिचक्ष्य) निषेध्य। = By forbidding. (बाहुभ्याम् ) भुजाभ्याम्। = With two arms, i.e. with might at command. (अश्मनि) पाषाणे। = On the stone.
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