ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 8
ऋ॒तज्ये॑न क्षि॒प्रेण॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्यत्र॒ वष्टि॒ प्र तद॑श्नोति॒ धन्व॑ना। तस्य॑ सा॒ध्वीरिष॑वो॒ याभि॒रस्य॑ति नृ॒चक्ष॑सो दृ॒शये॒ कर्ण॑योनयः॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तऽज्ये॑न । क्षि॒प्रेण॑ । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । यत्र॑ । वष्टि॑ । प्र । तर् । अ॒श्नो॒ति॒ । धन्व॑ना । तस्य॑ । सा॒ध्वीः । इष॑वः । याभिः॑ । अस्य॑ति । नृ॒ऽचक्ष॑सः । दृ॒शये॑ । कर्ण॑ऽयोनयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतज्येन क्षिप्रेण ब्रह्मणस्पतिर्यत्र वष्टि प्र तदश्नोति धन्वना। तस्य साध्वीरिषवो याभिरस्यति नृचक्षसो दृशये कर्णयोनयः॥
स्वर रहित पद पाठऋतऽज्येन। क्षिप्रेण। ब्रह्मणः। पतिः। यत्र। वष्टि। प्र। तद्। अश्नोति। धन्वना। तस्य। साध्वीः। इषवः। याभिः। अस्यति। नृऽचक्षसः। दृशये। कर्णऽयोनयः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यत्र ब्रह्मणस्पतिरृतज्येन क्षिप्रेण धन्वना यत्प्रवष्टि तदश्नोति तस्य साध्वीरिषवः स्युः। याभिः शत्रूनस्यति ताभिर्दृशये कर्णयोनयो नृचक्षसस्सन्ति ताँस्तत्राश्नोति ॥८॥
पदार्थः
(तज्येन) ता सत्या ज्या यस्मिँस्तेन (क्षिप्रेण) क्षिप्रकारिणा (ब्रह्मणः) धनस्य (पतिः) पालकः (यत्र) यस्मिन् समये (वष्टि) कामयते (प्र) (तत्) (अश्नोति) प्राप्नोति (धन्वना) धनुषा (तस्य) (साध्वीः) श्रेष्ठाः (इषवः) बाणाः (याभिः) (अस्यति) शत्रून् प्रक्षिपतुः (नृचक्षसः) नृभिर्द्रष्टव्याः (दृशये) दर्शनाय (कर्णयोनयः) कर्णं श्रोत्रं योनिर्येषान्ते ॥८॥
भावार्थः
यथा वीरा धनुरादिशस्त्रेणाग्नेयाद्यस्त्रेण च शत्रून् पराजयन्ते तथा धर्मात्मा दोषान् विजयते ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
(यत्र) जहाँ (ब्रह्मणः) धन का (पतिः) स्वामी (तज्येन) ठीक-ठीक प्रत्यञ्चावाले (क्षिप्रेण) शीघ्रकारी (धन्वना) धनुष से जिसको (प्र,वष्टि) अच्छे प्रकार चाहता (तत्) उसको (अश्नोति) प्राप्त होता (तस्य) उसके (साध्वीः) श्रेष्ठ (इषवः) बाण होवें (याभिः) जिनसे शत्रुओं को (अस्यति) हटावे दूर करे उनसे (दृशये) देखने अर्थात् जानने के लिये (कर्णयोनयः) कान आदि कारणवाले (नृचक्षसः) मनुष्यों के देखने योग्य विषय हैं, उनको वहाँ प्राप्त होता है ॥८॥
भावार्थ
जैसे वीर पुरुष धनुष आदि शस्त्र और आग्नेयादि अस्त्र से शत्रुओं को पराजित करते हैं, वैसे धर्मात्मा दोषों को जीत लेता है ॥८॥
विषय
प्रणवो धनुः
पदार्थ
१. ज्ञानीपुरुष 'प्रणव' [ओ३म्] को ही अपना धनुष बनाता है। खाली समय में 'ओ३म्' का ही जप करता है। इस प्रणवरूप धनुष की 'ज्या' [डोरी] ऋत है । यह प्रणव का जप करनेवाला अनृत से सदा दूर रहता है। इसका जीवन क्रियाशील होता है - क्रियाशीलता के द्वारा यह वासनारूप शत्रुओं को अपने से दूर रखता है। वासना- विनाश करके यह उत्कृष्ट लोकों को प्राप्त होता है । (ब्रह्मणस्पतिः) = यह ज्ञानीपुरुष (ऋतज्येन) = ऋत की ज्यावाले (क्षिप्रेण) = शत्रुओं को दूर प्रेरित करनेवाले (धन्वना) = प्रणवरूप धनुष से (यत्र) = जहाँ (वष्टि) = चाहता है (तत्) = उस स्थान को (अश्नोति) = प्राप्त करता है। २. (तस्य) = उस ज्ञानी के (इषवः) = बाण (साध्वी:) = बड़े उत्तम होते हैं । ये बाण (कर्णयोनयः) = श्रोत्रमूलक हैं । श्रोत्र द्वारा श्रवण किये जानेवाले मन्त्र = 'ज्ञान के वचन' ही वस्तुतः वे बाण हैं। (याभि:) = जिन बाणों द्वारा (नृचक्षसः) = [Demon, goblin] दैत्यभावों को (अस्यति) = दूर फेंकता है। इस प्रकार राक्षसवृत्तियों को दूर करके यह दृशये प्रभुदर्शन के लिए होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रणव को धनुष बनाकर आसुरीभावों को क्रियाशीलतारूप बाणों से परे फेंकनेवाले हों। ऋत को जीवन में स्थान दें। ऐसा होने पर ही हम प्रभुदर्शन कर सकेंगे ।
विषय
और परमेश्वर उत्तम राजा ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( ब्रह्मणः पतिः ) बड़े बल का पालक, बलवान् पुरुष ( क्षिप्रेण ऋतज्येन धन्वना ) तेज़ चलने वाले उत्तम डोरी के धनुष से ( यत्र वष्टि तत् अश्नोति ) जिस प्रदेश में चाहे वहां ही भोग्य सुख ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता है ( तस्य इषवः ) उसके बाण भी ( साध्वीः ) उत्तम, निशाने पर लगने वाले ( कर्णयोनयः ) कान तक पहुंचने वाले होते हैं ( याभिः ) जिन से वह ( अस्यति ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकता है इसी प्रकार ( ब्रह्मणस्पतिः ) बड़े राष्ट्र का पालक राजा, वेद विद्या का पालक विद्वान् पुरुष (यत्र वष्टि) जिस प्रदेश या पदार्थ में भी चाहता है (तत्) उस स्थान में या उस पदार्थ को वह (ऋतज्येन) सत्य वचन और व्यवहार रूप डोरी से कसे, ( क्षिप्रेण ) विना विलम्ब के कार्य करने वाले ( धन्वना ) ज्ञान रूप धनुष से ( तत् प्र अश्नोति ) उस २ अभिलषित पदार्थ को भी प्राप्त कर लेता है। वहां (तस्य ) उसकी ( साध्वीः इषवः साध्वीः इषवः ) उसकी उत्तम इच्छाएं ही उत्तम बाण के समान हैं । ( याभिः ) जिनसे वह ( अस्यति ) अपने सब संकटों और दुष्ट भावों को उखाड़ फेंकता है। वे ( कर्ण-योनयः ) कान में स्थान प्राप्त करके अर्थात् वे दूसरे के कर्ण गोचर होकर ( नृचक्षसः ) मनुष्यों को उत्तम उपदेश कहते हुई ( दृशये ) उनको सन्मार्ग दिखाने के लिये होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १–११, १३–१६ ब्रह्मणस्पतिः । १२ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च देवते ॥ छन्दः–१, ७, ९, ११ निचृज्जगती । १३ भुरिक् जगती । ६, ८, १४ जगती । १० स्वराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे वीर पुरुष धनुष्य इत्यादी शस्त्रे व आग्नेय इत्यादी अस्त्रांनी शत्रूंना पराजित करतात तसे धर्मात्मा दोषांना जिंकतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
By the stretch of natural truth and justice and by instant action, the mighty lord of the realm wielding the bow and arrow of law and rectitude reaches wherever he wants and achieves whatever he targets. Accurate and unfailing are the arrows of this watchful ruler and guide of humanity, stretched unto the ear, reaching to the ear and taking the aim even by a whisper and vibration, which the lord shoots and by which he uproots the plants and plans of evil and crime, having seen what is right and what is wrong.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of brave person are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A wealthy man with quick acting (automatic) weapons achieves his targets. Let his arrows or missiles or weapons be of superior qualities which are capable to check the attack from his enemies, through it's efficient and intelligence servicemen. He is capable to see and listen to the reactions of the public.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A brave person defeats his enemy with his bows and arrows and other arms and weapons. Likewise, a pious man wins over his evils and foes.
Foot Notes
(ऋतज्येन ) ऋता सत्या ज्या यस्मिस्तेन । = With a bow set with nice string. (ब्रह्मणस्पतिः) धनस्य पालकः । = Owner of the wealth. (वष्टि) कामयते। = Desirous. (साध्वी:) श्रेष्ठा = Excellent. (इषवः) वाणा। = Arrows. (नृचक्षसः ) नुभिद्रष्टव्याः। = The visible articles or visuals. (कर्णयोनयः) कणंश्रोत्रं योनियेषान्ते । = Matters connected with ears.
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