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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सना॒ ता का चि॒द्भुव॑ना॒ भवी॑त्वा मा॒द्भिः श॒रद्भि॒र्दुरो॑ वरन्त वः। अय॑तन्ता चरतो अ॒न्यद॑न्य॒दिद्या च॒कार॑ व॒युना॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सना॑ । ता । का । चि॒त् । भुव॑ना । भवी॑त्वा । मा॒त्ऽभिः । श॒रत्ऽभिः॑ । दुरः॑ । व॒र॒न्त॒ । वः॒ । अय॑तन्ता । च॒र॒तः॒ । अ॒न्यत्ऽअ॑न्यत् । इत् । या । च॒कार॑ । व॒युना॑ । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सना ता का चिद्भुवना भवीत्वा माद्भिः शरद्भिर्दुरो वरन्त वः। अयतन्ता चरतो अन्यदन्यदिद्या चकार वयुना ब्रह्मणस्पतिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सना। ता। का। चित्। भुवना। भवीत्वा। मात्ऽभिः। शरत्ऽभिः। दुरः। वरन्त। वः। अयतन्ता। चरतः। अन्यत्ऽअन्यत्। इत्। या। चकार। वयुना। ब्रह्मणः। पतिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा सूर्यस्य किरणा माद्भिः शरद्भिर्या यानि सना का चिद्भुवना भवीत्वा सन्ति ता दुरो वरन्त तथा यो ब्रह्मणस्पतिर्वो वयुना चकार स युष्माभिः सेव्यः। यावयतन्ताऽध्यापकाऽध्येतारावलसावन्यदन्यदिदेव चरतः कुरुतस्तौ न सत्कर्त्तव्यौ ॥५॥

    पदार्थः

    (सना) सनातनानि (ता) तानि (का) कानि (चित्) अपि (भुवना) भुवनानि (भवीत्वा) भव्यानि (माद्भिः) मासैः (शरद्भिः) शरदाद्यृतुभिः (दुरः) द्वाराणि (वरन्त) वरयन्ति (वः) युष्मान् (अयतन्ता) प्रयत्नरहितौ (चरतः) कुरुतः (अन्यदन्यत्) भिन्नम्-भिन्नम् (इत्) एव (या) यानि (चकार) (वयुना) प्रज्ञानानि (ब्रह्मणः) विद्याधनस्य (पतिः) पालकः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मासानृतून्विभज्य मूर्त्तानां द्रव्याणां यथावत्स्वरूपं दर्शयति तथा ये विद्वांसो पृथिवीमारभ्येश्वरपर्यन्तान्पदार्थान् यथावत् शिक्षया दर्शयेयुस्ते लोके पूजनीयाः स्युर्ये चाऽविद्यायुक्ताऽलसा कापट्यादिना दूषिता दुष्टोपदेशं कुर्वन्ति वा निष्पुरुषार्थास्तिष्ठन्ति ते केनचित्कदाचिन्नैव सेवनीयाः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो जैसे सूर्य के किरण (माद्भिः) महीनों और (शरद्भिः) शरत् आदि तुओं के विभाग से (या) जो (सना) सनातन (का,चित्) कोई (भवीत्वा) होनेवाले (भुवना) लोक हैं (ता) उनको और (दुरः) द्वारों को (वरन्त) विवृत करते प्रकाशित करते हैं तथा जो (ब्रह्मणः, पतिः) विद्या और धन का पालक पुरुष (वः) तुमको (वयुना) विज्ञानयुक्त (चकार) करता है वह तुमको सेवने योग्य है जो (अयतन्ता) प्रयत्नरहित आलसी पढ़ने-पढ़ानेवाले (अन्यदन्यत्, इत्) अन्य-अन्य विरुद्ध ही (चरतः) करते हैं उनका सत्कार कभी न करना चाहिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य महीनों और तुओं को विभक्त कर मूर्त्त द्रव्यों का यथावत्स्वरूप दिखाता है, वैसे जो विद्वान् पृथिवी से लेके ईश्वरपर्यन्त पदार्थों को यथावत् शिक्षा से दिखावें, वे लोक में पूजनीय होवें और जो अविद्यायुक्त आलसी लोग कपट आदि से दूषित दुष्ट उपदेश करते वा निकम्मे बैठे रहते हैं, वे किसी को कभी सेवने योग्य नहीं हैं ॥५॥

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    विषय

    सनातन ज्ञान के द्वारों का उद्घाटन

    पदार्थ

    १. (या) = जिन (वयुना) = प्रज्ञानों को (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु चकार करता है (ता) = वे (सना) = सनातन हैं-सदा से चले आ रहे हैं-प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में दिये जाते हैं। वे का (चित्) = निश्चय से आनन्द देनेवाले हैं। (भुवना) = वे वर्तमान में भी दिए जा रहे हैं । (भवीत्वा) = भविष्यत् काल में भी दिए जाएँगे। अगली सृष्टियों के प्रारम्भ में भी इसी प्रकार प्राप्त कराएँ जाएँगे। इन ज्ञानों के (दुरः) = द्वार (साद्भिः) = महीनों से (वा शरद्भिः) = वर्षों से (वः वरन्त) = तुम्हारे लिए खोले जाते हैं, अर्थात् कई बार इन मन्त्रों के भाव पूर्णतया महीनों व वर्षों में स्पष्ट होते हैं। २. कई बार (अयतन्ता न) = यत्न करते हुए ही पति-पत्नी (अन्यत् अन्यत् इत्) = निश्चय से नयेनये ज्ञान में (चरतः) = विचरण करनेवाले होते हैं, अर्थात् स्वाध्याय द्वारा निरन्तर अभ्यास करते हुए वे कई बार अन्तः प्रकाश के रूप में ही वेदार्थ को जान पाते हैं- यह ज्ञान वस्तुतः उन्हें अन्तः स्थित प्रभु द्वारा ही प्राप्त हो रहा होता है। इसे ही [Flash of light] प्रातिभिक ज्ञान कहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु द्वारा दिए इस सनातन ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सदा यत्नशील रहें ।

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    विषय

    और परमेश्वर उत्तम राजा ।

    भावार्थ

    ( ब्रह्मणः पतिः ) वेदविद्या रूप धन का पालक परमेश्वर या विद्वान् पुरुष ( या वयुना ) जिन ज्ञानों और कर्मों का ( चकार ) प्रकाश करता है ( ता सना ) वे सब सनातन हैं। उनमें से ( काचित् ) कुछ ( वः ) आपके ( भुवना ) भूत कालिक ( भवित्वा ) भावी पदार्थो और कार्यों के ( दुरः ) द्वारों को ( माद्भिः ) मासों और ( शरद्भिः ) वर्षों में ( वरन्त ) खोलते हैं । तब स्त्री पुरुष दोनों ही ( अयतन्ता ) विशेष प्रयत्न न करते हुए ही, अनायास (अन्यत्-अन्यत्) अन्यान्य नाना फलों का ( चरतः ) उपभोग करते हैं। अर्थात् ज्ञानी पुरुष के अविष्कार किये ज्ञान मनुष्यों के आगे भूत और भविष्यत् काल की समस्याओं के द्वार खोला करते हैं। उनके द्वारा ज्ञानवान् होकर स्त्री पुरुष अनायास नाना सुख भोगते हैं । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १–११, १३–१६ ब्रह्मणस्पतिः । १२ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च देवते ॥ छन्दः–१, ७, ९, ११ निचृज्जगती । १३ भुरिक् जगती । ६, ८, १४ जगती । १० स्वराड् जगती । २, ३ त्रिष्टुप् । ४, ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १६ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य महिने व ऋतू यांना विभक्त करून मूर्त द्रव्यांचे यथावत स्वरूप दाखवितो तसे जे विद्वान पृथ्वीपासून ईश्वरापर्यंत पदार्थांचे शिक्षणाद्वारे दर्शन घडवितात, ते लोकात पूजनीय ठरतात व जे अविद्यायुक्त आळशी लोक कपट इत्यादीने दुष्ट उपदेश करतात किंवा निरुद्योगी असतात ते स्वीकारणीय नसतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The acts which Brahmanaspati, lord of the wide world, has performed and the knowledge which he has revealed open by months and years the doors of eternal light and the past and future worlds for you from which the people naturally benefit and spontaneously enjoy without any effort, all in their own ways.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties are defined for a common man.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The rays of the sun create different months and seasons in all the existent and to-be-emerged planets. These also make them shining. A pattern of knowledge and wealth are comparable with the sun which make you well-versed in knowledge. You should seek it. Those who are lazy and idle in the studies and are performer's of adverse actions, they should never be honored by you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The sun creates months and various seasons which ultimately make and present the substances in their proper shape. Likewise, the learned persons who show the correct perspective, they are respectable by all. Those who have lack of knowledge, wicked and lazy and show the wrong path, they should never be sought after.

    Foot Notes

    (सना) सनातनानि। = Eternal. (भवीत्वा ) भव्यानि। = Grand. (मादिभः) मासै:। = By months. (शरद्भिः) शरदाद्यृतुभिः। = By the seasons like autumn. ( दुरः ) द्वाराणि। = Gates. (अयतन्ता) प्रयत्नरहितौ = Idle and inactive persons.

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