ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ऊ॒र्ध्वो ह्यस्था॒दध्य॒न्तरि॒क्षेऽधा॑ वृ॒त्राय॒ प्र व॒धं ज॑भार। मिहं॒ वसा॑न॒ उप॒ हीमदु॑द्रोत्ति॒ग्मायु॑धो अजय॒च्छत्रु॒मिन्द्रः॑॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वः । हि । अस्था॑त् । अधि॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । अध॑ । वृ॒त्राय॑ । प्र । व॒धम् । ज॒भा॒र॒ । मिह॑म् । वसा॑नः । उप॑ । हि । ई॒म् । अदु॑द्रोत् । ति॒ग्मऽआ॑युधः । अ॒ज॒य॒त् । शत्रु॑म् । इन्द्रः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो ह्यस्थादध्यन्तरिक्षेऽधा वृत्राय प्र वधं जभार। मिहं वसान उप हीमदुद्रोत्तिग्मायुधो अजयच्छत्रुमिन्द्रः॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वः। हि। अस्थात्। अधि। अन्तरिक्षे। अध। वृत्राय। प्र। वधम्। जभार। मिहम्। वसानः। उप। हि। ईम्। अदुद्रोत्। तिग्मऽआयुधः। अजयत्। शत्रुम्। इन्द्रः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्याः तिग्मायुधः ऊर्ध्व इन्द्रो स्वन्तरिक्षेऽध्यस्थात्। अध वृत्राय हि वधं प्रजभार मिहं वसान ईमुपादुद्रोच्छत्रुमजयत्तं बुध्यध्वम् ॥३॥
पदार्थः
(ऊर्ध्वः) उपरिस्थितः (हि) किल (अस्थात्) तिष्ठति (अधि) (अन्तरिक्षे) आकाशे (अध) अथ (वृत्राय) वृत्रस्य। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी (प्र) (वधम्) ताडनम् (जभार) हरति (मिहम्) वृष्टिम् (वसानः) आच्छादनयम् (उप) (हि) खलु (ईम्) सर्वतः (अदुद्रोत्) द्रवयति (तिग्मायुधः) तिग्मानि तीव्राण्यायुधानीव किरणा यस्य सः (अजयत्) जयति (शत्रुम्) वैरिणम् (इन्द्रः) मेघस्य छेत्ता ॥३॥
भावार्थः
सूर्य्योऽतिदूरे स्थितो भूमिं धरति जलमाकर्षति यथाऽयं मेघं हत्त्वा भूमौ निपातयति तथैव राजपुरुषैः शत्रवो निपातनीयाः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो (तिग्मायुधः) तीक्ष्ण आयुधों के तुल्य किरणोंवाला (ऊर्ध्वः) ऊपर स्थित (इन्द्रः) मेघ का हन्ता सूर्य (हि) ही (अन्तरिक्षे) आकाश में (अध्यस्थात्) अधिष्ठित है (अध) इसके अनन्तर (वृत्राय) मेघ के (हि) ही (वधम्) ताड़न को (प्र,जभार) प्रहार करता है (मिहम्) वृष्टि को (वसानः) अच्छादन करता हुआ (ईम्) सब ओर से (उप,अदुद्रोत्) समीप से द्रवित करता पिघलाता है इस प्रकार अपने (शत्रुम्) वैरी मेघ को (अजयत्) जीतता है, उसका बोध करो ॥३॥
भावार्थ
सूर्य अतिदूरस्थ हो भूमि को धारण करता जल को खींचता है, जैसे यह मेघ को छिन्न-भिन्न कर भूमि पर गिराता है, वैसे ही राजपुरुषों को शत्रु गिराने चाहिये ॥३॥
विषय
शत्रु-विजय
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार वासना का नियमन करनेवाला हि निश्चय से (ऊर्ध्वः) = विषयों से ऊपर उठा हुआ (अन्तरिक्षे) = मध्यमार्ग में (अधि अस्थात्) = स्थित होता है। वासना ही हमें मध्यमार्ग से विचलित करके 'अति' में ले जाती हैं। (अधा) = अब यह मध्यमार्ग में चलनेवाला व्यक्ति (वृत्राय) = वासना के लिए (वधम्) = नाशक आयुध को (प्रजभार) = प्रहृत करता है-नाशक आयुध से उस पर प्रहार करता है। २. वासनाविनाश द्वारा (मिहम्) = शक्तिसेचन को (वसानः) = धारण करता हुआ-शक्ति को अपने में ही सुरक्षित करता हुआ (हि ईम्) = निश्चय से इस प्रभु के (उप अदुद्रोत्) = समीप गतिवाला होता है। इस सोमशक्ति के रक्षण से प्रभुरूप सोम को प्राप्त होने का सम्भव होता है। ३. यह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (तिग्मायुधः) = इन्द्रिय मन व बुद्धिरूप आयुधों को तीव्र करके (शत्रुम्) = वासनारूप शत्रु को (अजयत्) = जीत लेता है ।
भावार्थ
भावार्थ- मध्यमार्ग में चलता हुआ मनुष्य वासना को नष्ट करता है - ज्ञान को बढ़ाता है और अन्ततः प्रभु को प्राप्त करता है ।
विषय
भूमि सूर्य के दृष्टान्त से राजा को उपदेश ।
भावार्थ
( इन्द्रः ) सूर्य (तिग्मायुधः) तीक्ष्ण प्रहार के साधन रश्मियों से युक्त होकर ( अन्तरिक्षे अधि ऊर्ध्वः अस्थात् ) आकाश में ऊपर ठहरता है। (अध) और ( वृत्राय वधं प्र जभार ) मेघ के लिये हननकारी विद्युत् को प्राप्त करता है । ( मिहं वसानः ) मेघ को आच्छादित करता हुआ ( ईम् ) उस जल को ( अदुद्रोत् ) द्रवित कर देता है उसी प्रकार (इन्द्रः) शत्रुहन्ता, विजिगीषु प्रबल राजा (तिग्मायुधः) तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों से बलवान् होकर । ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष अर्थात् दोनों सेनाओं के बीच में या ऊंचे आकाश में ( ऊर्ध्वः ) सबसे ऊंचे पद या स्थान पर ( अस्थात् ) स्थित हो ( अध ) और ( वृत्राय ) बढ़ते शत्रु के विनाश के लिये ( वधं ) आघातकारी अस्त्र का ( प्र जभार ) प्रहार करे। ( मिहं वसानः ) शस्त्रवृष्टि करने वाले सैन्य पर अधिकार करता हुआ ( ईम् ) शत्रुको ( उप अदुद्रोत् ) भगा दे इस प्रकार ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( शत्रुम् अजयत ) शत्रु का विजय करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य अत्यंत दूर असून भूमीला धारण करतो व जल ओढून घेतो. तो मेघाला जसे छिन्नभिन्न करून भूमीवर पाडतो, तसेच राजपुरुषांनी शत्रूंना मारले पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The sun abides high up in heaven far above the middle region of the sky. And then it bears, raises and strikes the deadly weapon of the thunderbolt upon the cloud and, taking the vapours on all round, it melts the waters to rain. Thus it is that Indra, sunny wielder of the lightning weapon, who conquers the adversary, the dark and deep cloud of rain.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of sun-rays goes further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O persons ! this sun smashes the clouds with its sharp weapons of the rays and rests in the firmament. It also strikes at the lightning and covering the rains from all sides melts and thus overcomes the enemy i.e. the clouds. Let us know this truth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The sun holds the distant earth, extracts the water. The way it smashes the clouds, likewise the enemy should be overcome by the State officials.
Foot Notes
(वृताय ) वृत्तस्य। = Of the clouds (वसान:) आच्छादयन। = Covering. (अदुद्रोत्) द्रवयति = Melts. (तिग्मायुधः) तिग्मानि तीव्राण्यायुधानीव। किरणा यस्य सः। = Equipped with sharp weapon like the rays.
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