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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृह॑स्पते॒ तपु॒षाश्ने॑व विध्य॒ वृक॑द्वरसो॒ असु॑रस्य वी॒रान्। यथा॑ ज॒घन्थ॑ धृष॒ता पु॒रा चि॑दे॒वा ज॑हि॒ शत्रु॑म॒स्माक॑मिन्द्र॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते । तपु॑षा । अश्ना॑ऽइव । वि॒ध्य॒ । वृक॑ऽद्वरसः । असु॑रस्य । वी॒रान् । यथा॑ । ज॒घन्थ॑ । धृ॒ष॒ता । पु॒रा । चि॒त् । ए॒व । ज॒हि॒ । शत्रु॑म् । अ॒स्माक॑म् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते तपुषाश्नेव विध्य वृकद्वरसो असुरस्य वीरान्। यथा जघन्थ धृषता पुरा चिदेवा जहि शत्रुमस्माकमिन्द्र॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते। तपुषा। अश्नाऽइव। विध्य। वृकऽद्वरसः। असुरस्य। वीरान्। यथा। जघन्थ। धृषता। पुरा। चित्। एव। जहि। शत्रुम्। अस्माकम्। इन्द्र॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजपुरुषकर्त्तव्यविषयमाह।

    अन्वयः

    हे बृहस्पत इन्द्र यथा सूर्य्यो वृकद्वरसोऽसुरस्य वीरानश्नेव तपुषा विध्यति तथा दुष्टाँस्त्वं विध्य धृषता पुरैवास्माकं शत्रुं जहि चिदपि दोषाञ्जघन्थ ॥४॥

    पदार्थः

    (बृहस्पते) बृहतां पालक (तपुषा) तापेन (अश्नेव) योऽश्नाति भुङ्क्ते तद्वत् (विध्य) ताडय (वृकद्वरसः) वृकस्य मेघस्य द्वाराणि (असुरस्य) विदुषः शत्रोः (वीरान्) (यथा) (जघन्थ) हन्ति (धृषता) प्रागल्भ्येन (पुरा) (चित्) (एव) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (जहि) (शत्रुम्) (अस्माकम्) (इन्द्र) विदारयितः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ। ये विद्युद्वद्बलवन्तो भूत्वा शत्रून् घ्नन्ति ते सूर्य्यवद्राज्ये प्रकाशमाना भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजपुरुषों के कर्त्तव्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (बृहस्पते) बड़ों के रक्षक (इन्द्र) दुष्टों को विदीर्ण करनेहारे राजपुरुष (यथा) जैसे सूर्य्य (वृकद्वरसः) मेघ के अग्र भागों को (असुरस्य) विद्वान् के शत्रु को (वीरान्) वीरों को (अश्नेव) अच्छे भोजन करनेहारे वीरके तुल्य (तपुषा) अपने ताप से बेधता है वैसे आप दुष्टों को (विध्य) ताड़ना देओ (धृषता) प्रगल्भता के साथ (पुरा) पहले (एव) ही (अस्माकम्) हमारे (शत्रुम्) शत्रु को (जहि) मार (चित्) और दोषों को (जघन्थ) नष्ट कर ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जो लोग बिजली के तुल्य वेग बलयुक्त होकर शत्रुओं को मारते हैं, वे सूर्य्य के तुल्य राज्य में प्रकाशमान होते हैं ॥४॥

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    विषय

    काम-वेधन

    पदार्थ

    १. हे बृहस्पते ज्ञान के स्वामिन् प्रभो ! (तपुषा) = अपनी ज्ञान की दीप्ति से आप (वृकद्वरसः) = इन्द्रियद्वारों को छिन्न करनेवाले (असुरस्य) = कामरूप असुर के [आसुरभाव के] (वीरान्) = वीरों को- काम से उत्पन्न प्रबल विकारों को इस प्रकार विध्य विद्ध करिए जैसे (अश्ना इव) = [अशन्या इव] जैसे विद्युत् से किसी को छिन्न करते हैं। आपकी यह ज्ञानदीप्ति आसुरभावों के लिए विद्युत्पतन के समान हो। इन आसुरभावों को विनष्ट करके आप हमारे इन्द्रियद्वारों को अपना-अपना कार्य करने में समर्थ करिए । २. हे (इन्द्र) = असुरों का संहार करनेवाले प्रभो ! (यथा) = जैसे (पुरा चित्) = आज से पहले भी (धृषता) = अपनी धर्षणशक्ति से (जघन्थ) = आप हमारे शत्रुओं का नाश करते रहे हैं, (एवा) = इसी प्रकार आप (अस्माकम्) = हमारे (शत्रुम्) = इस कामरूप शत्रु को जहि नष्ट करिए । आपकी शक्ति से ही इसका विनाश होना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से दी गई ज्ञानज्योति से आसुरभावों के मूलभूत 'काम' का विनाश हो। इसके विनाश से ही सब इन्द्रियाँ ठीक से कार्य करनेवाली होती हैं।

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    विषय

    वायु, सूर्य, विद्युत् के दृष्टान्त से सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार वायु या सूर्य, (असुरस्य) जल देने वाले मेघ के ( वीरान् = वि-इरान् ) विशेष जलमय (वृकद्वरसः) छिन्न भिन्न द्वारों को (अश्नाइव तपुषा) तीव्र तापकारी व्यापक विद्युत् से आघात करता है उसी प्रकार हे (बृहस्पते) बड़े सैन्य के स्वामिन् ! (असुरस्य) बलवान् (वृकद्वरसः) विशेष तेजस्वी द्वारों पर खड़े, या शस्त्रास्त्र बल के मुख्य व्यूहद्वारों पर स्थित (वीरान्) वीर पुरुषों को (अश्ना इव) बिजुली के समान (तपुषा) तापकारी अस्त्र से (विध्य) ताड़ना कर । ( पुराचित् ) पूर्व विजेताओं के समान ही के ( धृषता ) शत्रु को घर्षण करने वाले अस्त्र शस्त्र बल से ( यथा ) ठीक २ प्रकार ( जघन्थ ) शत्रु सैन्य का हनन कर। हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! तू इस प्रकार ( अस्माकम् शत्रुम् ) हमारे शत्रु को ( जहि एव ) अवश्य विनाश किया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जे लोक विद्युतप्रमाणे बलयुक्त बनून शत्रूंना मारतात, ते सूर्याप्रमाणे राज्यात प्रकाशमान होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, destroyer of enemies, Brhaspati, lord sustainer of the vast world, just as with your mighty blazing thunderous weapon you broke through the front gates of the stronghold of the cloud and destroyed the forces of the demon of darkness and drought earlier, so now destroy our enemy (and throw open the gates of light and prosperity).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the State officials are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O State officials ! you are protector of the great persons and annihilator of the wickeds. As the sun smashes the clouds, you as a voracious eater and brave person finish the enemies of learned persons with your strength. Already with fortitude at your disposal, you finish our enemy and smash the vices.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who kill the enemy with quickness of electricity, they shine in their kingdom like the sun.

    Foot Notes

    (तपुषा) तापेन। = With strength. (अश्नेव ) योऽश्नाति भुङ्क्ते तद्वत्। =Like a voracious eater. (वृकद्वरस:) वृकस्य मेघस्य द्वाराणि = Doors of the wolf-like cloud (इन्द्र) विदारयित:। = Smasher.

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