ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्रासोमौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र हि क्रतुं॑ बृ॒हथो॒ यं व॑नु॒थो र॒ध्रस्य॑ स्थो॒ यज॑मानस्य चो॒दौ। इन्द्रा॑सोमा यु॒वम॒स्माँ अ॑विष्टम॒स्मिन्भ॒यस्थे॑ कृणुतमु लो॒कम्॥
स्वर सहित पद पाठप्र । हि । क्रतु॑म् । वृ॒हथः॑ । यम् । व॒नु॒थः । र॒ध्रस्य॑ । स्थः॒ । यज॑मानस्य । चो॒दौ । इन्द्रा॑सोमा । यु॒वम् । अ॒स्मान् । अ॒वि॒ष्ट॒म् । अ॒स्मिन् । भ॒यऽस्थे॑ । कृ॒णु॒त॒म् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र हि क्रतुं बृहथो यं वनुथो रध्रस्य स्थो यजमानस्य चोदौ। इन्द्रासोमा युवमस्माँ अविष्टमस्मिन्भयस्थे कृणुतमु लोकम्॥
स्वर रहित पद पाठप्र। हि। क्रतुम्। बृहथः। यम्। वनुथः। रध्रस्य। स्थः। यजमानस्य। चोदौ। इन्द्रासोमा। युवम्। अस्मान्। अविष्टम्। अस्मिन्। भयऽस्थे। कृणुतम्। ऊँ इति। लोकम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्रासोमा यौ युवं रध्रस्य यजमानस्य हि चोदौ यं प्रबृहथो यां क्रतुं वनुथस्तौ सुखिनौ स्थः। अस्मिन् भयस्थे अस्मानविष्टमु लोकं कृणुतम् ॥६॥
पदार्थः
(प्र) (हि) खलु (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (बृहथः) वर्द्धयेथाम् (यम्) (वनुथः) याचेथाम् (रध्रस्य) संराध्नुवतः (स्थः) भवथः (यजमानस्य) सुखप्रदातुः (चोदौ) प्रेरकौ (इन्द्रासोमा) सेनापत्यैश्वर्य्यवन्तौ (युवम्) युवाम् (अस्मान्) (अविष्टम्) व्याप्नुतम् (अस्मिन्) (भयस्थे) भये तिष्ठतीति तस्मिन् (कृणुतम्) (उ) (लोकम्) द्रष्टुं योग्यम् ॥६॥
भावार्थः
राजपुरुषा बहुबलं धनाढ्याः पुष्कलमैश्वर्य्यं च प्राप्य कस्मैचिद्भयं न दद्युः किन्तु सदैव दरिद्रनिर्बलान् सुखे निवासयेयुः ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्रासोमा) सेनापति और ऐश्वर्य्यवान् महाशयो! (युवम्) जो तुम दोनों (रध्रस्य) सम्यक् सिद्ध करते हुए (यजमानस्य) सुखदाता यजमान के (हि) ही (चोदौ) प्रेरक (यम्) जिसको (प्र,बृहथः) बढ़ाओ और जिस (क्रतुम्) बुद्धि को (वनुथः) माँगो चाहो वे तुम दोनों सुखी (स्थः) होओ (अस्मिन्) इस (भयस्थे) भय में स्थित (अस्मान्) हमको (अविष्टम्) व्याप्त होओ (उ) और (लोकम्) देखने योग्य स्थान वा देश को (कृणुतम्) करो ॥६॥
भावार्थ
राजपुरुष बहुत बल और धनाढ्य लोग यथेष्ट ऐश्वर्य्य को पाकर किसी को भय न देवें किन्तु सदैव दरिद्री और निर्बलों को सुख में स्थापन करें, निवास करावें ॥६॥
विषय
इन्द्र और सोम
पदार्थ
१. 'इन्द्र' शक्ति व शत्रुसंहार का देवता है तो 'सोम' उस शत्रुसंहार व शक्ति का गर्व न करने का देवता है- सौम्यता का देवता है । हे (इन्द्रासोमा) = इन्द्र और सोम! आप (हि) = निश्चय से (यं वनुथ:) = जिस क्रतु को प्राप्त करते हो [वन् to possess] उस (क्रतुम्) = ज्ञान व शक्ति को (प्रवृहथ:) = [to expend] खूब ही बढ़ाते हो। हमारे जीवनों में इन्द्र और सोमतत्त्व का मेल होने पर ज्ञान व शक्ति का खूब वर्धन होता है। आप (रध्रस्य) = संराधना करनेवाले (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुष के (चोदौ स्थ:) = प्रेरक हो । यह रध्र यजमान अपने अन्दर इन्द्र और सोम का स्थापन करता हुआ अपने क्रतु को बढ़ानेवाला होता है । २. हे इन्द्र और सोम ! (युवम्) = आप दोनों (अस्मान् अविष्टम्) = हमारा रक्षण करो । इन्द्र और सोम मिलकर हमारे जीवन को पूर्ण-सा बना देते हैं। हमारे में शक्ति होती है, परन्तु हमें उस शक्ति का गर्व नहीं होता। हमारे में सौम्यता होती है, परन्तु वह निर्बलता को लिये हुए नहीं होती । ३. हे शक्ति और सौम्यते ! आप दोनों मिलकर (अस्मिन् भयस्थे) = इस भय के स्थान में-संसाररूप युद्धक्षेत्र में (उ) = निश्चय से (लोकम्) = हमारे लिए प्रकाश को (कृणुतम्) = करो। हम तम व अन्धकार से आवृत्त होकर मूढ़ न बन जाएँ। मूढ़ बन गये, तब तो पराजय निश्चित ही है ।
भावार्थ
भावार्थ– 'शक्ति व सौम्यता' हमारे जीवन में क्रतु का वर्धन करें तथा हमें इस संसार के रणक्षेत्र में विजयी बनाएँ।
विषय
वायु, सूर्य, विद्युत् के दृष्टान्त से सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रा-सोमा ) इन्द्र ! सेनापति या राजन् ! हे सोम, ऐश्वर्यवन् वैश्यवर्ग ! आप लोग ( यं ) जिसको ( वनुथः ) चाहते हो उस ( क्रतुं ) काम को और उसी ज्ञानयुक्त बुद्धिकौशल को ( हि ) भी ( प्र वृहथः ) प्राप्त करने के लिये उद्यम करो। आप दोनों मिलकर ( रत्रस्य ) वश करने वाले, आराधना वा साधना करने वाले ( यजमानस्य ) दानशील पुरुष को ( चोदौ ) चोदना अर्थात् वेदशास्त्र के अनुसार चलाने हारे ( स्थ ) होकर रहो । ( युवम् ) तुम दोनों ( अस्मान् ) हम सामान्य प्रजाओं की ( अविष्टं ) रक्षा करो और ( अस्मिन् ) इस ( भयस्थे ) भय के स्थान, संसार में ( लोकम् ) प्रकाश, आलोक, ( कृणुतम् ) करो । अन्धकार में भय होता है । प्रकाश होते समय मिट जाता है। इसी प्रकार अज्ञान में भय-संकट है। हमें ज्ञान प्रकाश देकर भय से मुक्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी अत्यंत बल व धनाढ्य लोकांनी यथेष्ट ऐश्वर्य प्राप्त करून कुणालाही भयभीत करू नये, तर सदैव दरिद्री व निर्बलांना सुखात ठेवावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power, and Soma, lord of peace, expand the yajna of development and progress which you love. Abide as inspirers and promoters of the obedient worshipful yajamana. Favour us, protect and promote us, and in this land which is stricken with fear, create a social order free and fearless, full of joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The tasks for the State officials are set below.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Commander of the Army and Great person ! both of you moving together motivate your host (Yajamaana) for advancement, and seek his attention. Let both of you be happy. You ingrain the fearlessness in us and take us to places of interest.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The State officials and wealthy persons crowned with power and prosperity should not frighten anyone. Rather they should resettle and rehabilitate the weaker and the poorer sections.
Foot Notes
(ऋतुम् ) प्रज्ञाम् । = To wisdom. (वनुथ:) याचेथाम्।= Beg for. (यजमानस्य) सुखप्रदातुः। = Of the host or giver of happiness. (इन्द्रासोमा ) सेना त्यैश्वर्य्यवन्तौ । = The Commander of the Army and the Great persons. (भयस्थे) भये तिष्ठतीति तस्मिन्। = Overcome with fear.
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