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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न मा॑ तम॒न्न श्र॑म॒न्नोत त॑न्द्र॒न्न वो॑चाम॒ मा सु॑नो॒तेति॒ सोम॑म्। यो मे॑ पृ॒णाद्यो दद॒द्यो नि॒बोधा॒द्यो मा॑ सु॒न्वन्त॒मुप॒ गोभि॒राय॑त्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । मा॒ । त॒म॒त् । न । श्र॒म॒त् । न । उ॒त । त॒न्द्र॒त् । न । वो॒चा॒म॒ । मा । सु॒नो॒त॒ । इति॑ । सोम॑म् । यः । मे॒ । पृ॒णात् । यः । दद॑त् । यः । नि॒ऽबोधा॑त् । यः । मा॒ । सु॒न्वन्त॑म् । उप॑ । गोभिः॑ । आ । अय॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न मा तमन्न श्रमन्नोत तन्द्रन्न वोचाम मा सुनोतेति सोमम्। यो मे पृणाद्यो ददद्यो निबोधाद्यो मा सुन्वन्तमुप गोभिरायत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। मा। तमत्। न। श्रमत्। न। उत। तन्द्रत्। न। वोचाम। मा। सुनोत। इति। सोमम्। यः। मे। पृणात्। यः। ददत्। यः। निऽबोधात्। यः। मा। सुन्वन्तम्। उप। गोभिः। आ। अयत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो मे पृणाद्यो मा ददद्यो मा निबोधाद्यो गोभिः सुन्वन्तं मोपायत्स मया सेवनीयः। यो मा न तमन्न श्रमन्नोत तन्द्रद्वयं यमिति न वोचाम तं सोमं यूयं मा सुनोत ॥७॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (मा) माम् (तमत्) अभिकाङ्क्षेत (न) (श्रमत्) श्राम्याच्छ्रमं प्रापयेत्। अत्र द्वाभ्यां विकरणव्यत्ययेन शप् (न) (उत) अपि (तन्द्रत्) मुह्येत् (न) (वोचाम) वदेम। अत्राडभावः (मा) निषेधे (सुनोत) अभिषवं कुरुत (इति) (सोमम्) ओषधिरसम् (यः) (मे) मह्यम् (पृणात्) तर्पयेत् (यः) (ददत्) सुखं दद्यात् (यः) (निबोधात्) निश्चितं बोधयेत् (यः) (मा) माम् (सुन्वन्तम्) यज्ञं कुर्वन्तम् (उप) (गोभिः) इन्द्रियैः सह वर्त्तमानः (आ) समन्तात् (अयत्) प्राप्नुयात् ॥७॥

    भावार्थः

    ये प्रजायां कञ्चिन्न क्लेशयन्ति विरुद्धं कर्म नाऽऽचरन्ति सर्वान् सुखयन्त्युपदेशे बोधयन्ति ते सुखदानेन नित्यं तर्पणीयाः ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यः) जो (मे) मुझे (पृणात्) तृप्त करे (यः) जो मुझको (ददत्) सुख देवे (यः) जो मुझको (निबोधात्) निश्चित बोध करावे (यः) जो (गोभिः) इन्द्रियों से (सुन्वन्तम्) यज्ञ करते हुए (मा) मुझको (उप,आ,अयत्) अच्छे प्रकार समीप प्राप्त होवे वह मुझको सेवने योग्य है जो (मा) मुझको (न) नहीं (तमत्) चाहता (न) नहीं (श्रमत्) श्रम करता (उन) और (न) नहीं (तन्द्रत्) मोह करता, हम लोग जिसको (इति) ऐसा (न) नहीं (वोचाम) कहें उस (सोमम्) ओषधि रस को तुम लोग (मा) मत (सुनोत) खींचो ॥७॥

    भावार्थ

    जो राजपुरुष प्रजा में किसी को क्लेशित नहीं करते, विरुद्ध कर्म का आचरण नहीं करते, सबको सुखी करते, उपदेश से बोध कराते, वे सुख के देने से नित्य तृप्त करने योग्य हैं ॥७॥

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    विषय

    ग्लानि, खेद व आलस्य से दूर

    पदार्थ

    १. इन्द्र (मा) = मुझे (न तमत्) = ग्लानियुक्त न करदे-मैं कर्त्तव्यकर्मों को करने से कभी ऊबूँ नहीं। (न श्रमत्) = मुझे खिन्न भी न करे- मैं उदास होकर कर्त्तव्यकर्मों में कभी प्रमाद न करूँ । 'तमु ग्लानौ, श्रमु खेदे' । (उत) = और वह इन्द्र (न तन्द्रत्) = मुझे तन्द्रायुक्त न कर दे-मुझे आलस्य में मत जाने दे। हम ('सोमम् मा सुनोत') = सोम का सम्पादन न करो - वीर्यशक्ति के रक्षण का इतना महत्त्व नहीं है- (इति मा वोचाम्) = इस प्रकार की बातें न करें । २. इन्द्र वे हैं (यः) = जो (मे पृणात्) = मेरी उत्तम कामनाओं को पूर्ण करते हैं, (यो ददत्) = जो मुझे सब आवश्यक वस्तुओं व धनों को देते हैं, (निबोधात्) = जो मुझे ज्ञानयुक्त करते हैं और (यः) = जो सुन्वन्तम्- सोम का (अभिषव) = वीर्यशक्ति का (यः) = सम्पादन करते हुए (मा) = मुझको (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के साथ-प्रकाश की किरणों के साथ (उप आयत्) = समीपता से प्राप्त होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – हमें ग्लानि, खेद व आलस्य न सताये। हम सोम का (वीर्य का) रक्षण करें। प्रभु हमें प्रकाश की किरणों के साथ प्राप्त हों ।

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    विषय

    वायु, सूर्य, विद्युत् के दृष्टान्त से सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! ( यः ) जो ( मे पृणात् ) मेरे शरीर को पुष्ट करे, ( यः मा ददद् ) जो मुझे बल, ओज, कान्ति और सुख प्रदान करे ( यः निबोधात् ) जो मुझे ज्ञान दे, विशेष रूप से जागृत रखे ( यः ) जो ( सुन्वन्तं मा ) ओषधि रस निकालते हुए मुझको ( गोभिः ) उत्तम इन्द्रियों से ( उप आयत्) युक्त करता हुआ प्राप्त हो अर्थात् जिसे बनाते २ आंख, नाक मुख आदि की शक्ति बढ़े ऐसे (सोमं) ओषधि आदि पदार्थों को ( सुनोत ) रस प्राप्त कर सेवन करो और विद्वान् पुरुष जो ओषधि ( मा ) मुझे ( न तमत् ) आकर्षित न करे, मुझ में अभिलाषा को न जगावे, देखकर जिससे मन परे हटे, ( न श्रमत् ) जो ओषधि मुझ में श्रम अर्थात् तप, सहन शक्ति वीर्य उत्पन्न न करे, ( उत न तन्द्रत ) और जो तन्द्रा, सुख, उत्पन्न न करे और ( न वोचाम ) जिसको बनाने में निषेध कह देवें ऐसी ओषधियों को भी ( मा सुनोत ) मत तैयार करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राजपुरुष प्रजेला त्रास देत नाहीत, विरुद्ध कर्माचे आचरण करीत नाहीत, सर्वांना सुखी करतात, उपदेश करून बोध करवितात त्यांना सुखाने तृप्त करावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, who gives me fulfilment, who gives me wealth and happiness, who gives me enlightenment, and who blesses me with the gift of cows and health of mind and senses, while I offer homage to the lord, may, I pray, never vex me, nor tire me, nor make me feel languid with lassitude. And may we never (with ingratitude) say: “Do not offer homage of soma to the lord.”

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of the State officials still continues.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The State official addresses - O person ! those who satisfy and make me happy and provide positive physical happiness to me in perfuming the Yajna (non-violent sacrificial act), they are in proximity to me. But those who do not like me or do not work hard and are observed with lust or attachment, they are not close to me, and you do not provide them extracted juices of Soma and herbal plants.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The State officials who do not annoy any one and nor act adversely, ehey rather simultaneously make all the people happy with their teachings. Such people are worthy to be appeased to their satisfaction.

    Foot Notes

    (तमत् ) अभिकांक्षेत।- To like. (श्रमत्) श्राम्याच्च्छूमं प्रापयेत् । अत्न द्वाभ्यां विकरणव्यत्येन शप्।= Work hard. (सुनोत) अभिषवं कुरुत। = Extract juice. (सुन्वन्तम् ) यज्ञं कुर्वन्तम्। = Performing the Yajna.

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