ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
अव॑ क्षिप दि॒वो अश्मा॑नमु॒च्चा येन॒ शत्रुं॑ मन्दसा॒नो नि॒जूर्वाः॑। तो॒कस्य॑ सा॒तौ तन॑यस्य॒ भूरे॑र॒स्माँ अ॒र्धं कृ॑णुतादिन्द्र॒ गोना॑म्॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । क्षि॒प॒ । दि॒वः । अश्मा॑नम् । उ॒च्चा । येन॑ । शत्रु॑म् । म॒न्द॒सा॒नः । नि॒ऽजूर्वाः॑ । तो॒कस्य॑ । सा॒तौ । तन॑यस्य । भूरेः॑ । अ॒स्मान् । अ॒र्धम् । कृ॒णु॒ता॒त् । इ॒न्द्र॒ । गोना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव क्षिप दिवो अश्मानमुच्चा येन शत्रुं मन्दसानो निजूर्वाः। तोकस्य सातौ तनयस्य भूरेरस्माँ अर्धं कृणुतादिन्द्र गोनाम्॥
स्वर रहित पद पाठअव। क्षिप। दिवः। अश्मानम्। उच्चा। येन। शत्रुम्। मन्दसानः। निऽजूर्वाः। तोकस्य। सातौ। तनयस्य। भूरेः। अस्मान्। अर्धम्। कृणुतात्। इन्द्र। गोनाम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र सभापते राजन् मन्दसानस्त्वं येन भूरेस्तोकस्य तनयस्य सातावस्मान् गोनामर्द्धं कृणुतात्तेन यथा सूर्य्य उच्चा धनानि दिवः प्राप्तमश्मानं भूमौ प्रक्षिपति तथा शत्रुमव क्षिप दुष्टान् निजूर्वाः ॥५॥
पदार्थः
(अव) (क्षिप) दूरे गमय (दिवः) दिव्यादाकाशात् (अश्मानम्) योऽश्नुते संहन्ति तं मेघम् (उच्चा) ऊर्ध्वं स्थितानि (येन) बलेन (शत्रुम्) (मन्दसानः) प्रशस्यमानः (निजूर्वाः) नितरां हिंस्याः (तोकस्य) ह्रस्वस्याऽपत्यस्य (सातौ) संसेवने (तनयस्य) यूनः पुत्रस्य (भूरेः) बहुविधस्य (अस्मान्) (अर्द्धम्) द्धिम् (कृणुतात्) कुरु (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (गोनाम्) पृथिवीधेनूनाम् ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैर्यथा स्वसन्तानानां दुःखानि दूरीकृत्य संपाल्य वर्द्धयन्ति तथैव प्रजाकण्टकान् निवार्य्य शिष्टान् संपाल्य वर्द्धनीयाः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य के देनेवाले सभापति राजन्! (मन्दसानः) प्रशंसा को प्राप्त हुए आप (येन) जिस बल से (भूरेः) बहुत प्रकार के (तोकस्य) छोटे सन्तान (तनयस्य) युवा पुत्र के (सातौ) सम्यक् सेवन में (अस्मान्) हमको (गोनाम्) पृथिवी और गौओं की (अर्द्धम्) संपन्नता समृद्धि को (कृणुतात्) कीजिये उस बल से जैसे सूर्य (उच्चा) ऊँचे स्थित बद्दलों और (दिवः) दिव्य आकाश से प्राप्त (अश्मानम्) मेघ को भूमि पर फेंकता है वैसे (शत्रुम्) शत्रु को (अव,क्षिप) दूर पहुँचा और दुष्टों को (निजूर्वाः) निरन्तर मारिये नष्ट कीजिये ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे अपने सन्तानों के दुःख दूर कर सम्यक् रक्षा कर बढ़ाते हैं, वैसे ही प्रजा के कण्टकों को निवृत्त कर शिष्टों का सम्यक् पालन कर बढ़ावें ॥५॥
विषय
ज्ञान तथा गोधन
पदार्थ
१. हे इन्द्र शत्रुओं के विध्वंसक प्रभो! (दिवः अश्मानम्) = ज्ञान के वज्र को [अश्मवत् कठिनं वज्रम् सा०] (उच्चा) = खूब ऊँचाई से (अवक्षिप) = नीचे इन शत्रुओं पर फेंकिए। (येन) = जिस वज्र से (शत्रुम्) = शत्रु को (निजूर्वा:) = आप हिंसित करते हो । ज्ञानाग्नि ही 'काम' रूप शत्रु को भस्म करती है। २. (मन्दसानः) = स्तुति किये जाते हुए आप (भूरेः) = [भर्तव्यस्य] भरणीय (तोकस्य) = सन्तानों के व (तनयस्य) = पौत्रों के (सातौ) = सम्भजन के निमित्त-उत्तम पालन व पोषण के लिए (अस्मान्) = हमारे लिए (गोनाम् अर्धम्) = गवादि पशुओं की समृद्धि को (कृणुतात्) = करिए। हमारे घरों में गौवों की कमी न हो ताकि सन्तानों को हम दूध आदि से अच्छी प्रकार पाल सकें ।
भावार्थ
भावार्थ- हमें ज्ञानरूप वज्र प्राप्त हो, जिससे कि हम कामरूप शत्रु का विध्वंस कर सकें तथा हमें गोधन की कमी न हो ताकि हम पुत्र-पौत्रों को गोदुग्ध पर पालकर सुन्दर शरीर, मन व मस्तिष्कवाला बना पाएँ ।
विषय
वायु, सूर्य, विद्युत् के दृष्टान्त से सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( दिवः अश्मानम् ) आकाश से बिजुली के समान ( उच्चा ) ऊंचे से ( अश्मानम् ) शस्त्रास्त्र (अव क्षिप) नीचे की ओर फेंक ( येन ) जिससे तू ( मन्दसानः ) उत्तम स्तुतियुक्त होकर ( शत्रुं ) शत्रु को (नि जूर्वाः) विनष्ट कर सके । ( तोकस्य तनयस्य भूरेः सातौ ) बच्चों और सन्तानों को बहुतसा ऐश्वर्य देने के लिये ( अस्मान् ) हमको ( गोनाम् ) भूमि, गौ आदि पशु और उत्तम वाणियों से ) ( अर्धं ) समृद्ध ( कृणुतात् ) करें । इति द्वादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजपुरुष जसे आपल्या संतानांचे दुःख नाहीसे करून त्यांचे रक्षण करतात व त्यांना वाढवितात तसे त्यांनी प्रजेचे दुःख निवारण करून सभ्य लोकांचे पालन करून वर्धित करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light and power, ruler of the world, admirable, joyous and fiery, hurl the thunderbolt from high up regions of light and destroy the enemy, the same thunderbolt by which you struck and broke the cloud, and for the progress and prosperity of our children and grand children and for the growth and development of our land and cows, grant us plenty of means and materials.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the State officials are redefined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Glorious Head of the Assembly ! admirable you throw the enemy back and annihilate completely the wickeds. With your strength, you bring up your issues and young sons well, along with the growth of cow progeny and extension of your area of rule like the sun, which smashes the clouds downwards from the sky.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the State official to remove the grievances of the subjects like their own issues and treat the noble with courtesy.
Foot Notes
(क्षिप) दूरे गमय। = Throw away. (मन्द्रसान:) प्रशस्यमानः ।= Admired or admirable. (तोकस्य ) ह्रस्वस्यापत्यस्य। = Small issues. (गोनाम्) पृथिवीधेनूनाम्। = Of the cow progeny and earth.
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