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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो नः॒ सनु॑त्य उ॒त वा॑ जिघ॒त्नुर॑भि॒ख्याय॒ तं ति॑गि॒तेन॑ विध्य। बृह॑स्पत॒ आयु॑धैर्जेषि॒ शत्रू॑न्द्रु॒हे रीष॑न्तं॒ परि॑ धेहि राजन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । सनु॑त्य । उ॒त । वा॒ । जि॒घ॒त्नुः । अ॒भि॒ऽख्याय॑ । तम् । ति॒गि॒तेन॑ । वि॒ध्य॒ । बृह॑स्पते । आयु॑धैः । जे॒षि॒ । शत्रू॑न् । दु॒हे । रिष॑न्तम् । परि॑ । धे॒हि॒ । रा॒ज॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नः सनुत्य उत वा जिघत्नुरभिख्याय तं तिगितेन विध्य। बृहस्पत आयुधैर्जेषि शत्रून्द्रुहे रीषन्तं परि धेहि राजन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। नः। सनुत्य। उत। वा। जिघत्नुः। अभिऽख्याय। तम्। तिगितेन। विध्य। बृहस्पते। आयुधैः। जेषि। शत्रून्। द्रुहे। रिषन्तम्। परि। धेहि। राजन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे राजन् यो नः सनुत्य उत वा जिघत्नुर्वर्त्तर्त तमभिख्याय तिगितेन विध्य। बृहस्पते यतस्त्वमायुधैश्शत्रून् रीषन्तं च जेषि तस्मात्तान् द्रुहे परि धेहि ॥९॥

    पदार्थः

    (यः) (नः) अस्माकम् (सनुत्यः) सनुतेषु नम्रादिगुणैः सह वर्त्तमानेषु भवः (उत) अपि (वा) (जिघत्नुः) हन्तुमिच्छुः (अभिख्याय) अभितः सर्वतः संख्याय (तम्) (तिगितेन) प्राप्तेन (विध्य) ताडय (बृहस्पते) बृहतः पालक (आयुधैः) शस्त्रास्त्रैः (जेषि) जयसि (शत्रून्) (द्रुहे) द्रोग्ध्रे (रीषन्तम्) हिंसन्तम्। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (परि) सर्वतः (धेहि) (राजन्) प्रकाशमान ॥९॥

    भावार्थः

    प्रजास्थैर्जनैः स्वदुःखानि राजपुरुषेभ्यो निवेद्य निवारणीयानि ये प्रजारक्षायां प्रीत्या प्रवर्त्तन्ते ते सुखनीया ये हिंसकाः सन्ति ते निवेद्य दण्डनीयाः ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (राजन्) प्रकाशमान राजन्! आप (यः) जो (नः) हमारा (सनुत्यः) नम्रादि गुणयुक्त जनों में रहनेवाला (उत,वा) अथवा (जिघत्नुः) मारने की इच्छा करनेवाला है (तम्) उसको (अभिख्याय) सब ओर से प्रकट कर (तिगितेन) प्राप्त हुए शस्त्र से (विध्य) ताड़ना दीजिये, हे (बृहस्पते) बड़े-बड़े विषय के रक्षक जिस कारण आप (आयुधैः) शस्त्र-अस्त्रों से (शत्रून्) शत्रुओं को (जेषि) जीतते हो और (रीषन्तम्) मारते हुए को जीतते हो इससे उनको (द्रुहे) द्रोहकर्त्ता के लिये (परि,धेहि) सब ओर से धारण कीजिये ॥९॥

    भावार्थ

    प्रजापुरुषों को चाहिये कि अपने दुःखों को राजपुरुषों से निवेदन कर निवृत्त करावें, जो प्रजा की रक्षा में प्रीति से वर्त्तमान हैं, उनको सुख दिलावें और जो हिंसक हैं, उनका निवेदन कर दण्ड दिलावें ॥९॥

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    विषय

    'सनुत्य-जिघलु-द्रुह' का विनाश

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (नः) = हमारा (सनुत्यः) = अन्तर्हित शत्रु है-मन में ही छिपकर रहनेवाला 'काम' रूप शत्रु है (उत वा) = अथवा (जिघलुः) - हमारी हिंसा करनेवाला क्रोध रूप शत्रु है, (तम्) = उसको (अभिख्याय) = अच्छी तरह देखकर (तिगितेन) = तीव्र ज्ञानरूप अस्त्र से विध्य-वींध डाल । देदीप्यमान ज्ञानरूप शस्त्र से ही इनका वेधन होता है। २. हे बृहस्पते ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (आयुधैः) = इन्द्रिय मन व बुद्धिरूप आयुधों द्वारा (शत्रून्) = शत्रुओं को (जेषि) = तू जीतता है। हमने इन शत्रुओं को क्या जीतना ! प्रभु ही हमारे लिए इस विजय को करते हैं । ३. हे (राजन्) = शासक प्रभो ! अथवा ज्ञानदीप्त प्रभो ! (द्रुहे) = हमारे (जिघांसु) = मारने की इच्छावाले-इन कामादि शत्रुओं के लिए (रीषन्तम्) = हिंसक वज्र को परिधेहि धारण करिए । ज्ञानरूप वज्र द्वारा इन शत्रुओं का हिंसन कीजिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें ज्ञानरूप वज्र प्राप्त कराते हैं। इस ज्ञानरूप वज्र से हम अन्तर्हित रूप से हमारे अन्दर रहनेवाले हिंसक द्रोही काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विनाश कर पाते हैं।

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    विषय

    सेना का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( बृहस्पते ) बड़े राज्य के पालक ! ( नः ) हमारे बीच में ( यः ) जो ( सनुत्यः ) छुपा हुआ, (उत वा) और जो ( जिघत्नुः ) हिंसा करने वाला आततायी हो उसको ( अभिख्याय ) सब में दण्डनीय रूप से अपराधी घोषित करके ( तं ) उसको ( तिगितेन ) तीक्ष्ण शस्त्र से ( विध्य ) बेंध, दण्डित कर । हे राजन् ! तू ( आयुधैः ) हथियारों से (शत्रून् जेषि) शत्रुओं का विजय कर और हे ( राजन् ) राजन् ! तू (द्रुहे) द्रोह के कारण भी ( रीषन्तं ) प्रजा में एक दूसरे के मारने वाले को भी (परि धेहि ) पकड़ और कैद में रख ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेने आपले दुःख राजपुरुषांना निवेदन करून नाहीसे करावे. जे प्रजेचे रक्षण करतात त्यांना सुख देववावे व जे हिंसक असतात त्यांना दंड देववावा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brhaspati, lord of knowledge and sustainer of the grand social order, expose and fix with pointed steel the surreptitious foe in hiding and the saboteur who plans to destroy us. O brilliant ruler, conquer the enemies with weapons of offence and defence, and surround and seal the force of the jealous and the destructive along with their counterparts.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Relationship between the State officials and the common people are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O shining ruler ! you expose fully or distinguish between those who are polite cum virtuous and those who have marauding tendencies. Punish the later with weapons in hand. O great State official! the way you conquer your enemies and killers, apply the same strategy in order to deal with the rebels.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The subjects should submit their grievances before the State officials, and get the violent persons punished and make the law-abiding ones happy.

    Foot Notes

    (सनुत्यः) सनुतेषु नम्रादिगुणे: सह यर्तमानेषु भवः। = Polite and virtuous (जिघत्नुः ) हन्तुमिच्छुः। = Of marauding nature. (अभिख्याय) अभितः = Expose fully. (तिगितेन) प्राप्तेन शस्मणे। = With weapon in hand. (रपीन्तम्) हिसन्तम् | अन्नाऽन्येषामपीति दीर्घः । = Killers or marauders.

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