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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 22/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्माक॒मित्सु शृ॑णुहि॒ त्वमि॑न्द्रा॒स्मभ्यं॑ चि॒त्राँ उप॑ माहि॒ वाजा॑न्। अ॒स्मभ्यं॒ विश्वा॑ इषणः॒ पुर॑न्धीर॒स्माकं॒ सु म॑घवन्बोधि गो॒दाः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्माकम् । इत् । सु । शृ॒णु॒हि॒ । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒स्मभ्य॑म् । चि॒त्रान् । उप॑ । मा॒हि॒ । वाजा॑न् । अ॒स्मभ्य॑म् । विश्वाः॑ । इ॒ष॒णः॒ । पुर॑म्ऽधीः । अ॒स्माक॑म् । सु । म॒घ॒ऽव॒न् । बो॒धि॒ । गो॒दाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकमित्सु शृणुहि त्वमिन्द्रास्मभ्यं चित्राँ उप माहि वाजान्। अस्मभ्यं विश्वा इषणः पुरन्धीरस्माकं सु मघवन्बोधि गोदाः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम्। इत्। सु। शृणुहि। त्वम्। इन्द्र। अस्मभ्यम्। चित्रान्। उप। माहि। वाजान्। अस्मभ्यम्। विश्वाः। इषणः। पुरम्ऽधीः। अस्माकम्। सु। मघऽवन्। बोधि। गोऽदाः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोपदेशकविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र ! त्वमस्माकं वचांसि सुशृणुह्यस्मभ्यं चित्रान् वाजानुप माह्यस्मभ्यं विश्वाः पुरन्धीरिदिषणोऽस्माकं गोदास्सन्नस्मान् सु बोधि ॥१०॥

    पदार्थः

    (अस्माकम्) (इत्) एव (सु) (शृणुहि) (त्वम्) (इन्द्र) (अस्मभ्यम्) (चित्रान्) अद्भुतान् (उप) (माहि) मन्यस्व (वाजान्) अन्नादीन् (अस्मभ्यम्) (विश्वाः) समग्राः (इषणः) प्रेरय (पुरन्धीः) याः पुरूणि विज्ञानानि दधति ताः प्रज्ञाः (अस्माकम्) (सु) (मघवन्) (बोधि) बुध्यस्व (गोदाः) यो गां धेनुं ददाति सः ॥१०॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येऽस्माकं न्यायवचांसि शृणवन्त्यस्मान् विदुषः प्रज्ञान् कुर्वन्ति तेषां सेवाऽस्माभिः सततं कार्य्या ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उपदेशकविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) बहुत धन से युक्त (इन्द्र) राजन् (त्वम्) आप (अस्माकम्) हम लोगों के वचनों को (सु, शृणुहि) उत्तम प्रकार सुनो और (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (चित्रान्) अद्भुत (वाजान्) अन्न आदिक पदार्थों को (उप, माहि) उपमित कीजिये अर्थात् उत्तमता से मानिये और (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (विश्वाः) सम्पूर्ण (पुरन्धीः) विज्ञानों को धारण करनेवाली बुद्धियों को (इत्) ही (इषणः) प्रेरित करो और (अस्माकम्) हम लोगों के (गोदाः) गौ को देनेवाले होते हुए आप हम लागों को (सु, बोधि) उत्तम प्रकार जानिये ॥१०॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो लोग हम लोगों के नीति के अनुकूल वचनों को सुनते और हम लोगों को विद्वान् करते हैं, उन लोगों की सेवा हम लोगों को चाहिये कि निरन्तर करें ॥१०॥

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    विषय

    चित्र वाजज्ञानयुक्त बल

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (इत्) = निश्चय से (अस्माकम्) = हमारी प्रार्थना को (सुशृणुहि) = अच्छी प्रकार सुनिए । हम इस योग्य हों कि हमारी प्रार्थना आप से सुनी जाये । आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (चित्रान्) = अद्भुत (वाजान्) = बलों को (उपमाहि) = दीजिये। 'चित्रान् ' का भाव 'चित् + र '=' ज्ञान को देनेवाले' यह भी है। हमारे बल ज्ञान से युक्त हों। [२] आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (विश्वा:) = सब (पुरन्धीः) = पालक व पूरक बुद्धियों को (इषण:) = प्रेरित करिए। हमें वह बुद्धि प्राप्त हो, जो कि हमें पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मों में लगाये रखे। हे (मघवन्) = परमैश्वर्यवाले प्रभो! आप (अस्माकम्) = हमारे (गोदाः) = उत्तम इन्द्रियों व ज्ञान की वाणियों को देनेवाले (सु बोधि) = अच्छी प्रकार [भव] होइये । आपकी कृपा से हमें उत्तम इन्द्रियाँ व ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें ज्ञान व शक्ति दें, उत्तम बुद्धि दें- उत्तम इन्द्रियाँ व ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त कराएँ ।

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    विषय

    प्रजा को ज्ञान और धन से सम्पन्न करे ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! विद्वन् ! (त्वम्) तू (अस्माकम् इत्) हमारे वचन अवश्य (सु शृणुहि) अच्छी प्रकार सुना कर । (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (चित्रान्) आश्चर्यजनक अभूतपूर्व (वाजान्) ज्ञान धनैश्वर्य और बल (उप माहि) प्रदान कर । (अस्मभ्यम्) हमें (विश्वाः) सब प्रकार की (पुरन्धीः) बहुत से ज्ञानों को धारण करने वाली बुद्धियें और राष्ट्र को धारण करने वाली समृद्धिएं (ईषणः) दे और प्रेरित कर । तू (गोदाः) भूमि, वाणी, ज्ञान-रश्मि और गौ आदि पशुओं को देने हारे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! तू (अस्माकं) हमें (सु बोधि) उत्तम रीति से जान और ज्ञानवान् बना ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ५, १० ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥ निचत् त्रिष्टुप् । स्वराट् पंक्तिः ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे लोक आमची न्यायपूर्ण वाणी ऐकून आम्हाला विद्वान करतात त्या लोकांची आम्ही निरंतर सेवा करावी. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruler of the world, commanding wealth and valour and honour, giver of the speech of wisdom, lands and cows, listen to our voice, measure, mark out, plan, and apportion for us vast and wondrous successes in the field of food, energy and victory. Inspire us with all the possibilities of intellectual and scientific achievement, and let us awake into a heaven of light and freedom.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duty towards the preachers is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O prosperous Indra (king) ! listen to our words attentively and bestow upon us the wonderful food and strength. Encourage us to have good intellects which are masters of the various sciences. Being giver of cows, understand us correctly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is our duty to serve constantly the scholars who listen to our just (requests/demands etc.) and make us enlightened persons.

    Foot Notes

    (वाजान्) अन्नादीन् । वाच इत्यन्ननाम (NG 2, 7) । वाज इति बलनाम (NG 2, 7) = Food and other things. (पुरन्धीः) या: पुरुणि विज्ञानानि दघति ताः प्रज्ञाः । = Intellects which uphold the knowledge of various sciences.

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