ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 22/ मन्त्र 6
ता तू ते॑ स॒त्या तु॑विनृम्ण॒ विश्वा॒ प्र धे॒नवः॑ सिस्रते॒ वृष्ण॒ ऊध्नः॑। अधा॑ ह॒ त्वद्वृ॑षमणो भिया॒नाः प्रसिन्ध॑वो॒ जव॑सा चक्रमन्त ॥६॥
स्वर सहित पद पाठता । तु । ते॒ । स॒त्या । तु॒वि॒ऽनृ॒म्ण॒ । विश्वा॑ । प्र । धे॒नवः॑ । सि॒स्र॒ते॒ । वृष्णः॑ । ऊध्नः॑ । अध॑ । ह॒ । त्वत् । वृ॒ष॒ऽम॒नः॒ । भि॒या॒नाः । प्र । सिन्ध॑वः । जव॑सा । च॒क्र॒म॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता तू ते सत्या तुविनृम्ण विश्वा प्र धेनवः सिस्रते वृष्ण ऊध्नः। अधा ह त्वद्वृषमणो भियानाः प्रसिन्धवो जवसा चक्रमन्त ॥६॥
स्वर रहित पद पाठता। तु। ते। सत्या। तुविऽनृम्ण। विश्वा। प्र। धेनवः। सिस्रते। वृष्णः। ऊध्नः। अध। ह। त्वत्। वृषऽमनः। भियानाः। प्र। सिन्धवः। जवसा। चक्रमन्त ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे तुविनृम्ण वृषमण इन्द्र ! यथा सिन्धवो जवसा चक्रमन्त तथा त्वद्भियानाः शत्रवोः दूरं पलायन्तेऽधा या ते विश्वा सत्या आचरणानि धेनवो वाचो वृष्ण ऊध्नः प्र सिस्रते ता तू ह त्वं जवसा प्र साध्नुहि ॥६॥
पदार्थः
(ता) तानि (तू) पुनः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (ते) तव (सत्या) सत्सु साधूनि कर्म्माणि (तुविनृम्ण) बहुधन (विश्वा) सर्वाणि (प्र) (धेनवः) वाचः (सिस्रते) सरन्ति प्राप्नुवन्ति (वृष्णः) ब्रह्मचर्य्यादिना बलिष्ठान् (ऊध्नः) विस्तीर्णबलान् (अधा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ह) खलु (त्वत्) तव सकाशात् (वृषमणः) वृषस्य बलयुक्तस्य मन इव मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ (भियानाः) भयम्प्राप्ताः (प्र) (सिन्धवः) नद्यः (जवसा) वेगेन (चक्रमन्त) क्रमन्ते गच्छन्ति ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यस्य राज्ञोऽमोघा वाग्धर्म्यं कर्म्म वर्त्तते तस्माद्धेनुभ्यो वत्सा इव प्रजास्तृप्ता भवन्ति तस्माद् दुष्टा बिभ्यति यशश्च प्रथते ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (तुविनृम्ण) बहुत धनवाले और (वृषमणः) बलयुक्त पुरुष के मन के सदृश मन से युक्त राजन् ! जैसे (सिन्धवः) नदियाँ (जवसा) वेग से (चक्रमन्त) चलती हैं, वैसे (त्वत्) आपके समीप से (भियानाः) भय को प्राप्त शत्रु लोग दूर भागते हैं (अधा) इसके अनन्तर जो (ते) आपके (विश्वा) सम्पूर्ण (सत्या) श्रेष्ठ पुरुषों में साधु कर्म्म अर्थात् उत्तम आचरण और (धेनवः) वाणियाँ (वृष्णः) ब्रह्मचर्य्य आदि से बलिष्ठ (ऊध्नः) विस्तीर्ण बलवालों को (प्र, सिस्रते) अच्छे प्रकार प्राप्त होती हैं (ता) उनको (तू) फिर (ह) निश्चय से आप वेग से (प्र) अत्यन्त सिद्ध करो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस राजा की सफल वाणी और धर्मयुक्त कर्म्म वर्तमान है, उससे गौओं से बछड़ों के सदृश प्रजा तृप्त होती है और उससे दुष्ट डरते हैं और यश विस्तृत होता है ॥६॥
विषय
गौवें व नदियाँ
पदार्थ
[१] हे (तुविनृम्ण) = अनन्त बलवाले प्रभो ! (ते) = आपके (तु) = तो (ता) = वे (विश्वा) = सब कर्म (सत्या) = सत्य हैं। (वृष्णः) = शक्तिशाली आप से (भियानाः) = भयभीत हुई हुई ही (धेनवः) = गायें (ऊध्नः) = अपने ऊधसों से (प्रसिस्रते) = दूध को प्रकर्षेण स्तुत करती हैं। प्रभु की व्यवस्था से ही ये गौवें दूध दे रही हैं। [२] (अधा ह) = और निश्चय से (वृषमण:) = सब काम्य पदार्थों के वर्षणपरक मनवाले (त्वद्) = आप से (भियाना:) = भयभीत होते हुए ही (सिन्धवः) = ये समुद्र (जवसा) = वेग से (प्रचक्रमन्त) = प्रकृष्ट गतिवाले होते हैं। प्रजापालन के हेतु से होनेवाले ये सब कार्य प्रभु के शासन से ही हो रहे हैं। हमारे पीने के लिए गायें दूध दे रही हैं, नदियाँ जलों को प्राप्त करा रही हैं। इन दूध व जलों के सेवन से ही हमें महान् बल प्राप्त होता है- हम भी 'तुविनृम्ण' बनते हैं। E
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु ने हमारे पान के लिये दूध व जल की व्यवस्था की है। यही हमारी शक्ति के वर्धन का कारण बनती है।
विषय
राजा के सब कार्य न्यायानुसार होने चाहियें। प्रजाएं भी राजा की वृद्धि करें।
भावार्थ
हे (तुविनृम्ण) बहुत धनादि ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! (ते) तेरे (तु) तो निश्चय से (ता) वे नाना कार्य (सत्या) सत्य आचरण, न्यायानुसार धर्मानुकूल हों । (ते वृष्णः) वे सब सुख के वर्षण करने वाले, एवं बलवान् तेरे लिये (विश्वा धेनवः) समस्त वाणियें और प्रजागण गौओं के समान (ऊध्नः) स्तनमण्डल से दुग्ध के समान (प्र सिस्रते) खूब ऐश्वर्य प्रवाहित करें, तुझे दें । अन्तरिक्ष में विद्युतों के समान है (वृषमणः) बलवान् पुरुष के समान दृढ़ चित्त वाले ! (अध ह) और निश्चय से (त्वत् भियानाः) तेरे से भयभीत होकर (सिन्धवः) महा नदों के तुल्य वेगवान् रथादि सैन्य (जवसा) वेग से (प्र चक्रमन्त) आगे बढ़ें, पराक्रम करें । (२) अध्यात्म में इन्द्र आत्मा, ‘सिन्धवः’ प्राणगण ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ५, १० ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥ निचत् त्रिष्टुप् । स्वराट् पंक्तिः ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या राजाची अमोघ वाणी व धर्मयुक्त कार्य विद्यमान आहे व गाईमुळे जशी वासरे तृप्त होतात तशी प्रजा तृप्त होते आणि दुष्ट शत्रू त्याला घाबरतात व सर्वत्र त्याचे यश पसरते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of great valour and magnificence, generous as rain showers and magnanimous at heart, all those universal acts of yours are great and true. The cows, the earths and the words of vision stream forth with nourishment, energy and inspiration. And by your fear and force of law the rivers rush on with rapidity and the seas roll round with awe.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The learned kings are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (king) ! you possess abundant wealth and are endowed with strong and benevolent mind. As the rivers flow rapidly, your enemies flee far away out of your fear. Accomplish soon those your good deeds and assurances which reach (even powerful and mighty) persons because of the observance of Brahmacharya (continence).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
With the king whose speech is true and effective, and whose actions are righteous, the people are satisfied like the calves from the cows. The wicked persons are afraid of him, and his reputation spreads far and wide.
Foot Notes
(धेनवः) वाचः । = Speeches, words (ऊघ्नः) विस्तीर्णबलान् । = Mighty. (वृषमण:) वृषस्य बलयुक्तस्य मन इव मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ । = Whose mud is like that of a strong man.
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