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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 22/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ता तू त॑ इन्द्र मह॒तो म॒हानि॒ विश्वे॒ष्वित्सव॑नेषु प्र॒वाच्या॑। यच्छू॑र धृष्णो धृष॒ता द॑धृ॒ष्वानहिं॒ वज्रे॑ण॒ शव॒सावि॑वेषीः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । तु । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । म॒ह॒तः । म॒हानि॑ । विश्वे॑षु । इत् । सव॑नेषु । प्र॒ऽवाच्या॑ । यत् । शू॒र॒ । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । धृ॒ष॒ता । द॒धृ॒ष्वान् । अहि॑म् । वज्रे॑ण । शव॑सा । अवि॑वेषीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता तू त इन्द्र महतो महानि विश्वेष्वित्सवनेषु प्रवाच्या। यच्छूर धृष्णो धृषता दधृष्वानहिं वज्रेण शवसाविवेषीः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। तु। ते। इन्द्र। महतः। महानि। विश्वेषु। इत्। सवनेषु। प्रऽवाच्या। यत्। शूर। धृष्णो इति। धृषता। दधृष्वान्। अहिम्। वज्रेण। शवसा। अविवेषीः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ भूगोलभ्रमणदृष्टान्तेन राजगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे धृष्णो शूर इन्द्र राजन् ! यद्यानि विश्वेषु सवनेषु महतस्ते महानि प्रवाच्या सन्ति ता इदेव तू दधृष्वान् धृषता शवसा वज्रेणाऽहिं सूर्य्य इवाऽविवेषीः ॥५॥

    पदार्थः

    (ता) तानि (तू) अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रयोजक (महतः) पूजनीयस्य (महानि) महान्ति (विश्वेषु) समग्रेषु (इत्) एव (सवनेषु) ऐश्वर्य्ययुक्तेषु लोकेषु (प्रवाच्या) प्रकर्षेण वक्तुं योग्यानि (यत्) यानि (शूर) निर्भय (धृष्णो) दृढप्रगल्भ (धृषता) प्रागल्भ्येन (दधृष्वान्) धारयन् (अहिम्) मेघमिव (वज्रेण) किरणेनेव शस्त्राऽस्त्रेण (शवसा) बलेन (अविवेषीः) व्याप्नुयाः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यः किरणैराकृष्य सर्वान् भूगोलान् धरति तथैव महतीं सत्पुरुषादिसामग्रीं कृत्वा राजा द्वीपद्वीपान्तरस्थानि राज्यानि शिष्यात् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब भूगोल के भ्रमणदृष्टान्त से राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (धृष्णो) अत्यन्त ढीठ (शूर) भयरहित (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्य का प्रयोग करनेवाले राजन् ! (यत्) जो (विश्वेषु) सम्पूर्ण (सवनेषु) ऐश्वर्य्य से युक्त लोकों में (महतः) आदर करने योग्य (ते) आपके (महानि) बड़े-बड़े (प्रवाच्या) उत्तमता से कहने योग्य कार्य्य हैं (ता, इत्) उन्हीं को (तू) तो (दधृष्वान्) धारण करते हुए (धृषता) अत्यन्त ढिठाई और (शवसा) बल से (वज्रेण) किरण से (अहिम्) मेघ को सूर्य्य जैसे वैसे शस्त्र और अस्त्र से (अविवेषीः) प्राप्त हूजिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य किरणों से आकर्षण करके सम्पूर्ण भूगोलों को धारण करता है, वैसे ही बड़ी सत्पुरुष आदि सामग्री को करके राजा द्वीप और द्वीपान्तरों में स्थित राज्यों को शासन देवे ॥५॥

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    विषय

    प्रभु के महान् कर्म

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब बल के कर्मों को करनेवाले प्रभो ! (महत:) = महान् (ते) = आपके (ता) = वे कर्म (तु) = तो (महानि) = महान् हैं । (इत्) = निश्चय से आपके वे महान् कर्म (विश्वेषु सवनेषु) = सब यज्ञों में (प्रवाच्या) = प्रकर्षेण शंसनीय होते हैं । [२] हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले इन्द्र ! (दधृष्वान्) = सब लोकों का धारण करनेवाले आप (धृषता वज्रेण) = इस धर्षण करनेवाले वज्र द्वारा (शवसा) = अपने बल से (अहिम्) = इस आहन्ता वृत्र को इस विनाशक वासना को (अविवेषी:) = [वधकर्मा] समाप्त कर देते हैं। प्रभु की शक्ति से ही वासना का विध्वंस होता है। इस वासना के विध्वंस द्वारा ही प्रभु सब लोकों का धारण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के कर्म महान् व स्तुत्य हैं। प्रभु ही हमारे धारण के लिए वासना का विध्वंस करते हैं।

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    विषय

    ईश्वर के जगत् सञ्चालकवत् राजा का राष्ट्र-सञ्चालन का कार्य

    भावार्थ

    (यत्) जब हे (शूर) शूरवीर ! तू (धृषता) शत्रु पराजय करने में समर्थ (वज्रेण) बलवीर्य से (अहिं) सन्मुख आये शत्रु को (दध्वान्) पराजित करता हुआ (शवसा) बल से (आविवेषीः) राष्ट्र को व्याप लेता है, हे (धृष्णो) दृढ़ पुरुष ! (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! तब (ते) तुझ महान् शक्तिशाली पुरुष के (विश्वेषु सवनेषु इत्) समस्त ऐश्वर्य और राज्यशासनादि कार्यों में (ता) वे नाना (महानि) बड़े २ काम ही (प्रवाच्या) उत्कृष्ट रूप से कहे जाने योग्य होते हैं । इति सप्तमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ५, १० ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥ निचत् त्रिष्टुप् । स्वराट् पंक्तिः ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा सूर्य किरणांद्वारे संपूर्ण भूगोलाला आकर्षित करतो, तसेच महान लोकांद्वारे राजाने द्वीपद्वीपांतरी असलेल्या राज्यावर शासन करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord and presence omnipotent, invincible and intrepidable, those acts of yours greater than the greatest are worth admiration and exaltation in all celebrations of the world which, with your might, bearing and sustaining the fixed stars and moving forces of the universe, you perform with your power and force of thunder to break the clouds holding up the process of evolution.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a ruler are illustrative of the rotation of the earth.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O firm and fearless king ! because of causing great prosperity, great are your deeds, indeed. They should be propagated among all the prosperous people, because you are great. Upholding them with your irresistible powerful weapon, you destroy your foes as the sun thrashes the clouds with its rays and upholds the world.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the sun upholds all planets with its' rays by the power of attraction, in the same manner, a noble king should rule over the States of many Islands etc., and have the best apparatus of administration, like good men and resources.

    Foot Notes

    (सवनेषु) ऐश्वर्ययुक्तषु लोकेषु । = Prosperous people. (शवसा ) बलेन । = With might.

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