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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वृषा॒ वृष॑न्धिं॒ चतु॑रश्रि॒मस्य॑न्नु॒ग्रो बा॒हुभ्यां॒ नृत॑मः॒ शची॑वान्। श्रि॒ये परु॑ष्णीमु॒षमा॑ण॒ ऊर्णां॒ यस्याः॒ पर्वा॑णि स॒ख्याय॑ वि॒व्ये ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । वृष॑न्धिम् । चतुः॑ऽअश्रिम् । अस्य॑न् । उ॒ग्रः । बा॒हुऽभ्या॑म् । नृऽत॑मः । शची॑ऽवान् । श्रि॒ये । परु॑ष्णीम् । उ॒षमा॑णः । ऊर्णा॑म् । यस्याः॑ । पर्वा॑णि । स॒ख्याय॑ । वि॒व्ये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा वृषन्धिं चतुरश्रिमस्यन्नुग्रो बाहुभ्यां नृतमः शचीवान्। श्रिये परुष्णीमुषमाण ऊर्णां यस्याः पर्वाणि सख्याय विव्ये ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा। वृषन्धिम्। चतुःऽअश्रिम्। अस्यन्। उग्रः। बाहुभ्याम्। नृऽतमः। शचीऽवान्। श्रिये। परुष्णीम्। उषमाणः। ऊर्णाम्। यस्याः। पर्वाणि। सख्याय। विव्ये ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो वृषा वृषन्धिं चतुरश्रिं बाहुभ्यामस्यन्नुग्रो नृतमश्शचीवान् यस्याः पर्वाणि श्रिये प्रभवन्ति तां परुष्णीमूर्णामुषमाणः सन्त्सख्याय विव्ये स एवाऽस्माकं राजा भवितुमर्हेत् ॥२॥

    पदार्थः

    (वृषा) बलिष्ठः (वृषन्धिम्) बलिष्ठानां धारकम् (चतुरश्रिम्) चतुरङ्गिणीं सेनां प्राप्तम् (अस्यन्) प्रक्षिपन् (उग्रः) तेजस्वी (बाहुभ्याम्) भुजाभ्याम् (नृतमः) अतिशयेन नायकः श्रेष्ठः (शचीवान्) बहुप्रजावान् (श्रिये) लक्ष्म्यै (परुष्णीम्) विभागवतीम् (उषमाणः) दहन् (ऊर्णाम्) आच्छादिकाम् (यस्याः) (पर्वाणि) पूर्णानि पालनानि (सख्याय) मित्रस्य भावाय कर्म्मणे वा (विव्ये) कामयते ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो बाहुबलेन दुष्टाँस्तिरस्कुर्वन्नरोत्तमगुणैरुत्कृष्टो मित्रवत् प्रजाः पालयति स एव श्रीमान् प्रजावान् न्यायाधीशो राजा भवितुमर्हति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (वृषा) अत्यन्त बलवान् (वृषन्धिम्) बलिष्ठों के धारण करनेवाले (चतुरश्रिम्) चतुरङ्ग सेना को प्राप्त जन को (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (अस्यन्) फेंकता हुआ (उग्रः) तेजस्वी (नृतमः) अतिशय नायक (शचीवान्) बहुत प्रजावाला (यस्याः) जिसके (पर्वाणि) पूर्ण पालन (श्रिये) लक्ष्मी के लिये समर्थ होते हैं उस (परुष्णीम्) विभागवती (ऊर्णाम्) ढाँपनेवाली दुर्बुद्धि को (उषमाणः) जलाता हुआ (सख्याय) मित्र होने के वा मित्र के कर्म्म के लिये (विव्ये) कामना करता है, वही हम लोगों का राजा होने को योग्य होवे ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो बाहुबल से दुष्टों का तिरस्कार करता हुआ मनुष्यों के उत्तम गुणों से उत्तम और मित्र के सदृश प्रजाओं को पालता है, वही लक्ष्मीवान् प्रजावान् न्यायाधीश राजा होने के योग्य होता है ॥२॥

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    विषय

    चतुरश्रि वज्र [ऋग्-यजु-साम- अथर्व रूप ज्ञानवज्र]

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (वृषा) = शक्तिशाली हैं। 'चतुर् अश्रिम्' = ऋग्-यजु-साम- अथर्व रूप चार धाराओंवाले (वृषन्धिम्) = शक्ति का आधान करनेवाले वज्र को (अस्यन्) = शत्रुओं पर फेंकते हुए वे प्रभु (उग्रः) = अत्यन्त तेजस्वी हैं। प्रभु हमारे काम क्रोध आदि शत्रुओं पर इस ज्ञानरूप वज्र को प्रहृत करते हैं। यह ज्ञानरूप वज्र 'ऋग्-यजु-साम- अथर्व' रूप चार धाराओंवाला है। इससे चारों दिशाओं से आक्रमण करनेवाले शत्रुओं का विनाश होता है । ये प्रभु (बाहुभ्याम्) = अभ्युदय व निःश्रेयस के लिए किये गये प्रयत्नों द्वारा [वाह प्रयत्ने] (नृतमः) = हमें अत्यन्त आगे ले चलनेवाले हैं। (शचीवान्) = ये शक्ति व प्रज्ञानवाले हैं। हमें शक्ति प्राप्त कराते हैं और हमारे प्रज्ञान को सिद्ध करते हैं । [२] ये प्रभु (श्रिये) = हमारे जीवन की शोभा के लिए (परुष्णीम्) = पञ्चपर्वोंवाली अविद्या को (उषमाणः) = दग्ध करनेवाले हैं। उस परुष्णी को प्रभु दग्ध करते हैं, जो कि (ऊर्णाम्) = हमारे ज्ञान पर परदे के रूप में आ जाती हैहमारे ज्ञान को ढक देती है। उस परुष्णी को प्रभु दग्ध करते हैं, (यस्याः) = जिसके (पर्वाणि) = पर्वों को-जोड़ों को (सख्याय) = जीव की प्रभु के साथ मित्रता की सिद्धि के लिए (विव्ये) = सीं डालते हैं [Sew]। इस प्रकार प्रभु अविद्या को संवृत करके हमारे लिए ज्ञानप्रकाश को विवृत करते हैं। इस ज्ञानप्रकाश को प्राप्त जीव ही प्रभु का मित्र बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमारे अविद्यापर्वत को विदग्ध करके हमें उन्नतिपथ पर ले चलते हैं।

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    विषय

    राजा की ऊर्णा, परूणी सेना ।

    भावार्थ

    (वृषा) बलवान् (उग्रः) शत्रुओं में उद्वेग उत्पन्न करने वाला, तेजस्वी शक्ति शाली (नृतमः) नायकों में सर्वश्रेष्ठ (शचीवान्) उत्तम शक्ति, प्रज्ञा और समर्थ शक्तिमती प्रजा का स्वामी, (श्रिये) अपनी प्रजा को आश्रय देने और शत्रु को सन्तप्त करने वाली राज्यलक्ष्मी की वृद्धि के लिये, (ऊर्णाम्) आच्छादन करने वाली उनकी बनी (परुष्णीम्) पर्व पर्व पर उष्ण वस्त्र के समान (ऊर्णाम्) राष्ट्र को आच्छादन करने घेरने और व्यापने वाली, (परुष्णीम्) प्रति पर्व, स्थान २ पर शत्रु को संताप देने वाली, नाना पर्व अर्थात् विभागों से युक्त उस सेना और प्रजा को (यस्याः) जिसके (पर्वाणि) पालन करने वाले सामर्थ्यों या विभागों को (सख्याय) मैत्रीभाव की वृद्धि के लिये (विव्ये) चाहता और सुरक्षित करता है उसको (उषमाणः) बसाता और धारण करता (वृषन्धि) बलवान् पुरुषों को धारण करने वाले (चतुरश्रिम्) चार स्कन्धों वाले चतुरंग बल को (बाहुभ्यां) बाहुओं से (अस्यन्) चौधारे खड्ग के समान चलावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ५, १० ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥ निचत् त्रिष्टुप् । स्वराट् पंक्तिः ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो बाहुबलाने दुष्टांचा तिरस्कार करतो व माणसांना उत्तमात उत्तम गुणांनी युक्त करतो, मित्राप्रमाणे प्रजेचे पालन करतो तोच लक्ष्मीवान, प्रजावान, न्यायाधीश, राजा होण्यायोग्य असतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, brave and generous, fierce and mighty brilliant but kind and generous, best and highest of leaders, blazing with his majesty and shooting out the vibrations of his four-winged forceful power of thunder directed all round by his arms of protection and progress, interweaves the harsh and variegated regions of the earth into a unified pattern under the warm cover of a single umbrella for the sake of mutual harmony and beauty of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a king (Indra) are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! he alone is fit to be our ruler who is very powerful, who is full of splendor and is the best among leaders. Such a ruler has good progeny, is capable to throw away an upholder of the mighty warriors and maintains four wings of the army in order to smash the wicked. His protections lead to prosperity, burns away bad intellect that divides (disunites). He protects knowledge and he desires to have friendship with all good people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! he can only be the ruler who with his arms can subdue the wicked, is most exalted by noble virtues and who sustains all people like a friend being. He is a true dispenser of justice and possesses abundant wealth.

    Foot Notes

    (चतुरश्रिम्) चतुरङ्गिणीं सेनां प्राप्तम् । = Army consisting of four parts. Four parts of an army consist of elephants, chariots, cavalry and infantry. (परुष्णीम् ) विभागवतीम् । = Dividing, disuniting. (ऊर्णाम्) आच्छादिकाम् । ऊर्णुम् आच्छादने (अदा० ) । = Covering knowledge. (उषमाणः) दहन् । उषदाहे ( म्वा० )। = Burning.

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