ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 22/ मन्त्र 7
अत्राह॑ ते हरिव॒स्ता उ॑ दे॒वीरवो॑भिरिन्द्र स्तवन्त॒ स्वसा॑रः। यत्सी॒मनु॒ प्र मु॒चो ब॑द्बधा॒ना दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑तिं स्यन्द॒यध्यै॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठअत्र॑ । अह॑ । ते॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । ताः । ऊँ॒ इति॑ । दे॒वीः । अवः॑ऽभिः । इ॒न्द्र॒ । स्त॒व॒न्त॒ । स्वसा॑रः । यत् । सी॒म् । अनु॑ । प्र । मु॒चः । ब॒द्ब॒धा॒नाः । दी॒र्घाम् । अनु॑ । प्रऽसि॑तिम् । स्य॒न्द॒यध्यै॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्राह ते हरिवस्ता उ देवीरवोभिरिन्द्र स्तवन्त स्वसारः। यत्सीमनु प्र मुचो बद्बधाना दीर्घामनु प्रसितिं स्यन्दयध्यै ॥७॥
स्वर रहित पद पाठअत्र। अह। ते। हरिऽवः। ताः। ऊम् इति। देवीः। अवःऽभिः। इन्द्र। स्तवन्त। स्वसारः। यत्। सीम्। अनु। प्र। मुचः। बद्बधानाः। दीर्घाम्। अनु। प्रऽसितिम्। स्यन्दयध्यै ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे हरिव इन्द्र ! अत्राऽह यद्या ते बद्बधानाः स्वसार इव वर्त्तमाना विदुष्यस्स्त्रियः स्यन्दयध्यै दीर्घां प्रसितिमनु स्तवन्त ता उ देवीरवोभिः सीं दुःखबन्धनात्त्वमनु प्र मुचः ॥७॥
पदार्थः
(अत्र) अस्मिन् राज्ये (अह) विनिग्रहे (ते) तव (हरिवः) प्रशस्तपुरुषयुक्त (ताः) (उ) (देवीः) देदीप्यमाना विदुष्यस्स्त्रियः (अवोभिः) रक्षणादिभिः (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त राजन् (स्तवन्त) स्तुवन्ति (स्वसारः) अङ्गुल्य इव मैत्रीं भगिनित्वमाचरन्त्यः (यत्) याः (सीम्) सर्वतः (अनु) (प्र) (मुचः) मोचय (बद्बधानाः) प्रबन्धकर्त्र्यः (दीर्घाम्) लम्बीभूताम् (अनु) (प्रसितिम्) बन्धनम् (स्यन्दयध्यै) स्यन्दयितुं प्रस्रावयितुम् ॥७॥
भावार्थः
हे राजादयो मनुष्या ! यथा भवन्तो ब्रह्मचर्य्येण विद्या अधीत्य राजनीत्या राज्यं पालयन्ति तथैव भवतां स्त्रियः स्त्रीणां न्यायं कुर्युरेवं कृते सति दृढो राजधर्मप्रबन्धो भवतीति वेद्यम् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (हरिवः) श्रेष्ठ पुरुषों से और (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त (अत्र) इस राज्य में (अह) ग्रहण करने में (यत्) जो (ते) आपकी (बद्बधानाः) प्रबन्ध करनेवाली (स्वसारः) अङ्गुलियों के समान वर्त्तमान बहिनपने का आचरण करती और पढ़ी हुई स्त्रियाँ (स्यन्दयध्यै) बहाने को (दीर्घाम्) लम्बीभूत (प्रसितिम्) बन्धावट की (अनु, स्तवन्त) अनुकूल स्तुति करती हैं (ताः, उ) उन्हीं (देवीः) प्रकाशित पढ़ी हुई स्त्रियों को (अवोभिः) रक्षण आदि व्यवहारों से (सीम्) सब प्रकार दुःखरूप बन्धन से आप (अनु, प्र, मुचः) अच्छे प्रकार छुड़ाइये ॥७॥
भावार्थ
हे राजा आदि मनुष्यो ! जैसे आप लोग ब्रह्मचर्य से विद्याओं को पढ़कर राजनीति से राज्य का पालन करते हैं, वैसे ही आप लोगों की स्त्रियाँ स्त्रियों का न्याय करें। ऐसा करने पर दृढ़ राज्यधर्म्म का प्रबन्ध होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥७॥
विषय
ज्ञाननदी का पुन: प्रवाह
पदार्थ
[१] हमारे जीवन में ज्ञाननदियों का प्रवाह वृत्र [= वासना] से बद्ध हो जाता है। प्रभुकृपा से ही वह वृत्रबन्धन टूटता है और ज्ञाननदियों का प्रवाह फिर से बहने लगता है। इस प्रवाह के चलने पर हम प्रभु का स्तवन करनेवाले बनते हैं । हे (इन्द्र) = वृत्र [वासना] का विनाश करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जब (सीम्) = निश्चय से (बद्बधाना:) = वासना से बद्ध की जाती हुई इन ज्ञाननदियों को (अनुप्रमुचः) = आप अनुक्रमेण मुक्त करते हैं, (दीर्घां प्रसितिं अनु) = एक लम्बे बन्धन [रोक] के बाद इन्हें फिर (स्यन्दयध्यै) = प्रवाहित करनेवाले होते हैं। (अत्र अह) = इस समय निश्चय से हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले-इन अश्वों को हमें प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (ताः देवीः) = वे दिव्य ज्ञानजलोंवाली (स्वसार:) = आत्मतत्त्व की ओर ले चलनेवाली [स्व+सृ] ज्ञाननदियाँ (अवोभिः) = रक्षणों के हेतु से (ते उ स्तवन्त) = आपका ही स्तवन कराती हैं। [२] वासना का परदा पड़ जाने पर ज्ञान आवृत हो जाता है-हम प्रभु को भूल जाते हैं। प्रभुकृपा से जब यह आवरण हटता है, तभी ज्ञान का प्रवाह ठीक से फिर बहने लगता है। इस ज्ञानप्रवाह में हमारा जीवन शुद्ध हो जाता है और हम प्रभु का दर्शन करने योग्य बनते हैं। हमारी चित्तवृत्ति संसार के विषयों में न फँसकर फिर से प्रभुप्रवण हो उठती है।
भावार्थ
भावार्थ- वासना के बन्धन से बद्ध हो गई ज्ञाननदी को प्रभु ही, वासना- विनाश द्वारा, फिर से प्रवाहित करते हैं ।
विषय
वह राष्ट्र का नियन्ता और उत्तम कर्मशील हो ।
भावार्थ
हे (हरिवः) उत्तम, विद्वान् पुरुषों और अश्वादि सैन्यों के स्वामिन् ! हे सूर्यवत् तेजस्विन्! (यत्) जब तू (अत्र) इस राज्य कार्य में (दीर्घां प्रसितिम् अनु) बड़ी लम्बी, चिरकाल तक स्थिर रहने वाली राज्य प्रबन्ध-व्यवस्था के अनुकूल (स्यन्दयध्यै) वेग से आगे बढ़ने के लिये (बद्वधानाः) प्रबन्ध करने वाली वा प्रबन्ध में बंधी हुई समितियों और उत्तम प्रजाओं को (सीम् अनु प्रमुचः) सब प्रकार उनके मनोनुकूल मुक्त या स्वतन्त्र कर देता है तब (ताः उ देवीः) वे तुझे कामना करने वाली और ज्ञान-प्रकाश से युक्त प्रजाएं और विदुषी स्त्रियें भी (स्वसारः) परस्पर बहनों के समान प्रेम भाव से रहती हुईं, और (स्वसारः) स्वयं अपने उद्देश्य तक पहुंचती हुई (अवोभिः) राज्य के रक्षण, अन्नादि पदार्थों और प्रेमयुक्त व्यवहारों द्वारा (स्तवन्त) तेरी प्रशंसा करती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ५, १० ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥ निचत् त्रिष्टुप् । स्वराट् पंक्तिः ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा इत्यादी माणसांनो ! तुम्ही जसे ब्रह्मचर्याने विद्या शिकून राजनीतीने राज्यपालन करता तसेच तुमच्या स्त्रियांनी स्त्रियांचा न्याय करावा. असे करण्यामुळे दृढ राजधर्माचे व्यवस्थापन होते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And surely, O lord of horse and armour and speed of progress, Indra, those sisterly and forward looking dynamic forces of yours in the land, noble and brilliant all, managing the resources along disciplined and determined lines, forces which you released to move forward at freedom on the long and high road to their goal, rush on with pleasure, favour and hopes for protection and exhort and exalt you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a ruler are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (king)! having company of the admirable men, your officials should extricate the splendid learned ladies from the miseries. In fact, they are good at management, and work with team spirit and in unison, like sisters and fingers, and show admirable and enduring discipline.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king and others! you maintain the administration of the State having acquired knowledge and observance of Brahmacharya. With the political insight, in the same manner, your wives should help in the administration of justice to women. By doing so, the administration of the State will be firm. (The women are better suited to decide the cases of women. Ed.)
Foot Notes
(स्वसार:) अङ्गुल्य इव मंत्री भगिनित्वमाचरन्त्यः । स्वसार इत्यंगुलिनाम NG 2,5) = Friendly to one another and co-operating like the fingers. (वद्वधानाः) प्रबन्धकर्त्यः । = Experts in management. (प्रसितिमू ) वन्धनम् = Bondage.
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