ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
ऋ॒तेनाद्रिं॒ व्य॑सन्भि॒दन्तः॒ समङ्गि॑रसो नवन्त॒ गोभिः॑। शु॒नं नरः॒ परि॑ षदन्नु॒षास॑मा॒विः स्व॑रभवज्जा॒ते अ॒ग्नौ ॥११॥
स्वर सहित पद पाठऋतेन॑ । अद्रि॑म् । वि । अ॒स॒न् । भि॒दन्तः॑ । सम् । अङ्गि॑रसः । न॒व॒न्त॒ । गोऽभिः॑ । शु॒नम् । नरः॑ । परि॑ । स॒द॒न् । उ॒षस॑म् । आ॒विः । स्वः॑ । अ॒भ॒व॒त् । जा॒ते । अ॒ग्नौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतेनाद्रिं व्यसन्भिदन्तः समङ्गिरसो नवन्त गोभिः। शुनं नरः परि षदन्नुषासमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ ॥११॥
स्वर रहित पद पाठऋतेन। अद्रिम्। वि। असन्। भिदन्तः। सम्। अङ्गिरसः। नवन्त। गोभिः। शुनम्। नरः। परि। सदन्। उषसम्। आविः। स्वः। अभवत्। जाते। अग्नौ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजादिक्षत्रियेभ्य उपदेशमाह ॥
अन्वयः
हे नरो विद्वांसो ! यथा गोभिरङ्गिरस ऋतेन सहितमद्रिं सम्भिदन्तो व्यसन्नुषसं परिषदञ्जातेऽग्नौ स्वराविरभवत् तथा शुनं नवन्त ॥११॥
पदार्थः
(ऋतेन) जलेन सह वर्त्तमानम् (अद्रिम्) मेघम् (वि) (असन्) प्रक्षिपन्ति (भिदन्तः) विदारयन्तः (सम्) (अङ्गिरसः) वायवः (नवन्त) प्रशंसत (गोभिः) किरणैरिव वाग्भिः (शुनम्) सुखम् (नरः) नेतारः सन्तः (परि) (सदन्) परिषीदन्ति (उषसम्) प्रभातम् (आविः) प्राकट्ये (स्वः) सूर्य्यः (अभवत्) भवति (जाते) उत्पन्ने (अग्नौ) ॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजादयो वीरा क्षत्रिया यथा वायुयुक्ता विद्युतो मेघं व्यस्तं कृत्वा विदीर्य्य भूमौ निपात्य सर्वान् सुखयन्ति विद्युतं विलोड्य सूर्य्यं जनयन्ति तथैव दुष्टान् विनाश्य न्यायं प्रकाश्य प्रज्ञां विलोड्य विद्याञ्जनयित्वा भानुरिव प्रकाशमानाः सन्तोऽतुलं सुखमाप्नुवन्तु ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा आदि क्षत्रियों के लिये उपदेश अगले मन्त्र में करते हैं।
पदार्थ
हे (नरः) नायक होते हुए विद्वान् लोगो ! जैसे (गोभिः) किरणों के सदृश वाणियों से (अङ्गिरसः) पवन (ऋतेन) जल के सहित वर्त्तमान (अद्रिम्) मेघ के (सम्, भिदन्तः) अच्छे प्रकार टुकड़े करते हुए (वि, असन्) विविध प्रकार से फेंकते हैं (उषसम्) और प्रातःकाल को (परि, सदन्) प्राप्त होते हैं वा (जाते) उत्पन्न हुए (अग्नौ) अग्नि में (स्वः) सूर्य्य (आविः) प्रकट (अभवत्) होता है, वैसे (शुनम्) सुख की (नवन्त) प्रशंसा करो ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा आदि वीर क्षत्रिय जैसे पवन से युक्त बिजुलियाँ मेघ को इधर-उधर चलाय और तोड़ पृथिवी पर गिरा के सब को सुख देती हैं और दूसरी बिजुली का विलोडन करके सूर्य्य को उत्पन्न करती हैं, वैसे ही दुष्ट पुरुषों का नाश और न्याय का प्रकाश, बुद्धि का विलोडन और विद्या को उत्पन्न करके सूर्य्य के सदृश प्रकाशमान हुए अतुल सुख को प्राप्त होओ ॥११॥
विषय
ऋत से अविद्यापर्वत का विदारण
पदार्थ
[१] (अंगिरसः) = अंग-प्रत्यंग को रसमय बनानेवाले उपासक (ऋतेन) = व्यवस्थित जीवन के द्वारा (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (सं भिदन्तः) = सम्यक् विदीर्ण करते हुए (व्यसन्) = अपने से दूर फेंकते हैं और (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों से (सं नवन्त) = संगत होते हैं । [२] (नरः) = उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाले लोग (उषासम्) = उषाकाल में (शुनम्) = उस सुखस्वरूप परमात्मा की (परिषदन्) = उपासना करते हैं । (अग्नौ जाते) = उस प्रकाशमय प्रभु के आविर्भूत होने पर (स्वः) = प्रकाश (आविः अभवत्) = प्रकट होता है। प्रभु का आभास होने पर सारा अन्तःकरण प्रकाश से दीप्त हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ-व्यवस्थित जीवन के द्वारा हमारा अज्ञान दूर हो और हमें ज्ञान प्राप्त हो । प्रातः प्रभु के उपासन से हृदय प्रकाशित हो उठे।
विषय
गुरु शिष्यों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( अङ्गिरसः ) प्रकाशमान सूर्य की किरणें या वायुगण जिस प्रकार ( ऋतेन अव असन् ) जल से युक्त मेघ को विविध प्रकार से फेंकते हैं और ( भिदन्तः ) उसको छिन्न भिन्न करते हुए ( गोभिः ) सूर्य के व्यापक प्रकाशों से ( नवन्त ) उसे व्याप देते हैं ( उषासं परिसदन् ) वे किरण उषाकाल में सर्वत्र फैलते और ( अग्नौ जाते स्वः अभवत् ) सूर्य के उत्पन्न होने पर प्रकाश और ताप उत्पन्न होता है इसी प्रकार ( अङ्गिरसः ) अंगारों के समान तेजस्वी और ज्ञानी पुरुष ( ऋतेन ) सत्य ज्ञान, न्याय-प्रकाश से ( अद्रिम् ) मेघ के समान प्रकाश को ढकलेने वाले आवरण को ( वि असन् ) विशेष रूप से दूर करें और ( भिदन्तः ) उसे छिन्न भिन्न या विश्लेषण करते हुए ( गोभिः ) ज्ञानवाणिणों से ( नवन्त ) सत्य का सबको उपदेश करें । इसी प्रकार तेजस्वी वीर पुरुष ( ऋतेन ) से धनैश्वर्य और तेज, बल से पर्वत के तुल्य अभेद्य शत्रुको उखाड़ फेंके और ( गोभिः ) धनुषों की डोरियों से वाणों द्वारा उसको छिन्न भिन्न करते हुए ( नवन्त ) उसका शासन करें। ( नरः ) विद्वान् और वीर पुरुष ( शुनं ) सुखपूर्वक ( उषासम् ) उषा के तुल्य तेजस्वी पुरुष को ( परिसदन् ) घेर कर बैठें उसकी उपासना करें । विद्वान् लोग प्रातःकाल शुनं ) सुखपूर्वक उपास्य की उपासना करें और वीर लोग ( उषासम् ) शत्रुदाहक नायक के चारों ओर परिषत् बनाकर बैठे । तब ( अग्नौ जाते ) जिस प्रकार अग्नि के उत्पन्न होने पर ताप उत्पन्न होता है उसी प्रकार ( अग्नौ जाते ) अग्निवत् तेजस्वी पुरुष के प्रकट होने पर ( स्वः ) सुखमय राज्यैश्वर्य ( अभवत् ) होता है । उत्तम विद्वान् आचार्य के प्रकट होने पर ज्ञान प्रकाश वा उपदेशमय शब्द प्रकट होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूयुक्त विद्युत मेघांना इकडे तिकडे फिरवून त्यांना तोडून फोडून पृथ्वीवर पाडून सर्वांना सुख देते व विद्युत विलोडन करून सूर्याला उत्पन्न करते, तसेच राजे इत्यादी वीर क्षत्रियांनी दुष्ट पुरुषांचा नाश, न्यायाचा प्रकाश, प्रज्ञामंथन व विद्या उत्पन्न करून सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान होऊन अतुल सुख प्राप्त करावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ye leaders of the world, by the force of Rtam, nature’s law, when the cosmic fire of energy is awake, then the roaring winds, breaking the cloud with their currents, rain down the showers, mankind on earth find peace and prosperity, and the light, riding the dawn, rises to view as the radiant sun.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers and other Kshatriyas (warriors) are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leading and learned person ! the rays like the winds with their sound, dissipate and throw away the cloud full of water and pervade the morning time. With the fire kindled in the morning, the sun is also manifest, so you should admire true. happiness and try to manifest it.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the lightnings with winds dissolve the cloud and by disintegrating it make it rain down on the earth, gladden all, and manifest the sun by striking, so the brave Kshatriyas (warriors) like the kings and others, should destroy the wicked, illuminate justice, manifest knowledge with deep wisdom, shining like the sun and attain un-paralleled happiness.
Foot Notes
(अङ्गिरसः ) वायवः । प्राणो वा अंगिरा: ( Stph 6, 1,2,28 II,6,5,2,3,4) प्राणादिरूपा वायवश्च गृहीताः स्वरित्यसौ- दयुलोक: (Stph 8, 7, 4, 5 ) = Winds. (स्व:) सूर्य्यः । असौ (द्यु) लोक: स्व: ( ऐव 6, 7 ) दयुलोकनेता सूर्यः । = The sun (आद्रिम् ) मेघम् | अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10) इति तद्ग्रहणम् । = The cloud.
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