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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    ए॒ता विश्वा॑ वि॒दुषे॒ तुभ्यं॑ वेधो नी॒थान्य॑ग्ने नि॒ण्या वचां॑सि। नि॒वच॑ना क॒वये॒ काव्या॒न्यशं॑सिषं म॒तिभि॒र्विप्र॑ उ॒क्थैः ॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ता । विश्वा॑ । वि॒दुषे॑ । तुभ्य॑म् । वे॒धः॒ । नी॒थानि॑ । अ॒ग्ने॒ । नि॒ण्या । वचां॑सि । नि॒ऽवच॑ना । क॒वये॑ । काव्या॑नि । अशं॑सिषम् । म॒तिऽभिः॑ । विप्रः॑ । उ॒क्थैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता विश्वा विदुषे तुभ्यं वेधो नीथान्यग्ने निण्या वचांसि। निवचना कवये काव्यान्यशंसिषं मतिभिर्विप्र उक्थैः ॥१६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एता। विश्वा। विदुषे। तुभ्यम्। वेधः। नीथानि। अग्ने। निण्या। वचांसि। निऽवचना। कवये। काव्यानि। अशंसिषम्। मतिऽभिः। विप्रः। उक्थैः॥१६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 16
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रजाविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वेधोऽग्ने ! विप्रोऽहमुक्थैर्मतिभिः सह यानि काव्यान्यशंसिषं तानि विश्वैता निण्या निवचना वचांसि विदुषे कवये तुभ्यं नीथानि प्रशंसेयम् ॥१६॥

    पदार्थः

    (एता) एतानि (विश्वा) सर्वाणि (विदुषे) (तुभ्यम्) (वेधः) मेधाविन् (नीथानि) प्रापितानि (अग्ने) राजन् (निण्या) निर्णीतानि (वचांसि) वचनानि (निवचना) नितरामुच्यन्तेऽर्था यैस्तानि (कवये) विक्रान्तप्रज्ञाय (काव्यानि) कविभिर्निर्मितानि (अशंसिषम्) प्रशंसेयम् (मतिभिः) विद्वद्भिस्सह (विप्रः) मेधावी (उक्थैः) प्रशंसितुमर्हैः ॥१६॥

    भावार्थः

    सैव निश्चिता प्रशंसा वेदितव्या या धार्मिकैर्विद्वद्भिः क्रियेत, अध्यापकोपदेशकैरध्येतार उपदेश्याश्च सदैव सत्यवादिनो विद्वांसो विधातव्या इति ॥१६॥ अत्राग्निराजप्रजादिकृत्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥१६॥ इति तृतीयं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रजा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वेधः) बुद्धिमान् (अग्ने) राजन् ! (विप्रः) मेधावी जन मैं (उक्थैः) प्रशंसा करने योग्य (मतिभिः) विद्वानों के साथ जो (काव्यानि) कवियों ने रचे शास्त्र उनकी (अशंसिषम्) प्रशंसा करता हूँ और उन (विश्वा) सम्पूर्ण (एता) इन (निण्या) निर्णय किये गये (निवचना) अत्यन्त अर्थों को कहनेवाले (वचांसि) वचनों को (विदुषे) विद्वान् (कवये) उत्तम बुद्धिवाले (तुभ्यम्) आपके लिये (नीथानि) प्राप्त किये गये प्रशंसूँ अर्थात् वह आपको प्राप्त हुए ऐसी प्रशंसा करूँ ॥१६॥

    भावार्थ

    वही निश्चित प्रशंसा जानने योग्य है कि जो धार्मिक विद्वानों से की जाय। अध्यापक और उपदेशक जनों को चाहिये कि पढ़ने और उपदेश देनेवालों को सदा ही सत्यवादी और विद्वान् करें ॥१६॥ इस सूक्त में अग्नि, राजा और प्रज्जदिकों के कृत्य और गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥१६॥ यह तीसरा सूक्त और बाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    वैदिक जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (वेध) = मेधाविन् ! (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (विदुषे) = ज्ञानी (तुभ्यम्) = तेरे लिये (एता) = ये (विश्वा) = सब (निण्या) = अन्तर्निहित गूढ अर्थवाले (वचांसि) = वेदवचन (नीथानि) = मार्ग पर ले चलनेवाले हैं, मार्गदर्शक हैं। इनके भाव को समझकर तदनुसार तूने जीवनयात्रा में मार्ग का आक्रमण करना है । [२] (कवये) = क्रान्तदर्शी पुरुष के लिये (काव्यानि) = प्रभु के ये वेद-वचन रूप काव्य [देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति] (निवचना) = निश्चय से कर्त्तव्यों का प्रतिपादन करनेवाले हैं। हे (विप्र) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले जीव! मैंने (मतिभिः) = बुद्धियों के साथ (उक्थैः) = स्तोत्रों के साथ (अशंसिषम्) = इन वचनों का तेरे लिये शंसन किया है। इन वचनों से अपने कर्त्तव्यों को जानकर तदनुसार से अपना जीवन बिताना है। बुद्धि को परिष्कृत रखते हुए, प्रात: सायं स्तवन करते हुए, कर्ममय जीवनवाला तूने बनना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ने बुद्धि दी है, स्तुति की भावना प्राप्त करायी है। हम बुद्धि व स्तुति को अपनाते हुए वेदानुकूल कर्मों में प्रवृत्त हों। सूक्त का भाव यही है कि प्रभु को हृदय में प्रतिष्ठित करें और प्रभु प्रेरणा के अनुसार चलें। अगले सूक्त को भी इन्हीं शब्दों से प्रारम्भ करते हैं कि ये अग्नि प्रभु हमारे राक्षसी भावों को दूर करें। राजा राष्ट्र से राक्षसी वृत्ति के लोगों को दूर करे-

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    विषय

    नायक के कर्त्तव्य और नीतियुक्त वचनों के उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( वेधः ) कार्य करने हारे, हे विशेष धारणावान् कवे ! हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! ( तुभ्यं विदुषे ) तुझ विद्वान् के लिये ( एता ) ये ( विश्वा ) सब ( नीथा ) सन्मार्ग पर लेजाने वाले ( निण्या ) निश्चित तत्वार्थ बतलाने वाले, ( वचांसि ) वचन हैं । अच्छी प्रकार तत्व बतलाने वाले इन ( काव्यानि ) विद्वानों के बनाये संदर्भ मैं ( कवये ) क्रान्तदर्शी तेरे हित के लिये ( मतिभिः ) मनन करने योग्य ( उक्थैः ) वचनों द्वारा ( अशंसिषन् ) कहूं । इति द्वाविंशी वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    धार्मिक विद्वानांनी केलेली प्रशंसा निश्चित जाणण्यायोग्य असते. अध्यापक व उपदेशक लोकांनी अध्ययन व उपदेश घेणाऱ्यांना सदैव सत्यवादी विद्वान करावे. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, giver of life and light, lord of knowledge, vision and wisdom, leader, ruler, pioneer, all these songs of adoration, creative, deep and grave, meaningful and fruitful, fluent and poetic, are sincere expressions of the heart which I, inspired and moved to ecstasy, present to you, poet and scholar, with divine hymns of holiness in the company of the wise and dedicated celebrants.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the subjects (people) are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O very wise king! you are endowed with wisdom. Whatever positive and assured words! are used by seers. I utter in your praise. May these reach you, o learned sage! I utter them along with other admirable wise men.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The true praise is made only by the righteous and learned persons. It is the duty of the teachers and preachers to make their pupils and audience always truthful and learned.

    Foot Notes

    (वेध:) मेधाविन । वेधा इति मेधाविनाम (NG 3,15) = Genius, very wise. (निण्या) निर्णीतानि । निष्यम् इति निर्णीतान्तहितनाम (NG 1,25) अथ निर्णीतार्थग्रहणाम् । = Definite, sure, certain. (मतिभि:) विद्वभिस्सह । मतय इति मेधा विनाम (NG 3, 15) With wise men. Like Rishi Dayananda, Prof. Wilson's translation of as wise and as sage used as epithets for, clearly indicates that Agni stands here for a conscious wise leader like a king, and and not fire.

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