ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऋ॒तेन॑ ऋ॒तं निय॑तमीळ॒ आ गोरा॒मा सचा॒ मधु॑मत्प॒क्वम॑ग्ने। कृ॒ष्णा स॒ती रुश॑ता धा॒सिनै॒षा जाम॑र्येण॒ पय॑सा पीपाय ॥९॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तेन॑ । ऋ॒तम् । निऽय॑तम् । ई॒ळे॒ । आ । गोः । आ॒मा । सचा॑ । मधु॑ऽमत् । प॒क्वम् । अ॒ग्ने॒ । कृ॒ष्णा । स॒ती । रुश॑ता । धा॒सिना॑ । ए॒षा । जाम॑र्येण । पय॑सा । प्प्य् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतेन ऋतं नियतमीळ आ गोरामा सचा मधुमत्पक्वमग्ने। कृष्णा सती रुशता धासिनैषा जामर्येण पयसा पीपाय ॥९॥
स्वर रहित पद पाठऋतेन। ऋतम्। निऽयतम्। ईळे। आ। गोः। आमा। सचा। मधुऽमत्। पक्वम्। अग्ने। कृष्णा। सती। रुशता। धासिना। एषा। जामर्येण। पयसा। पीपाय॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैर्ब्रह्मचर्य्यादिना पुरुषार्थः संसेव्य इत्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! विद्वन् यथाऽहं गोरृतेन नियतमृतमीळे तथाऽऽचरँस्त्वं पृथिव्या मध्ये सचा मधुमदामा पक्वं चापीपाय। यथैषा कृष्णा सती विदुषी पतिव्रता रुशता जामर्येण पयसा धासिना वर्धते तथा त्वं वर्धस्व ॥९॥
पदार्थः
(ऋतेन) सत्येन (ऋतम्) सत्यम् (नियतम्) निश्चितम् (ईळे) स्तौम्यध्यन्विच्छामि (आ) (गोः) पृथिव्या वाण्या वा (आमा) अपरिपक्वम्। अत्र विभक्तेराकारादेशः (सचा) प्रसङ्गेन (मधुमत्) प्रशस्तमधुरादिगुणयुक्तम् (पक्वम्) (अग्ने) (कृष्णा) श्यामा (सती) (रुशता) सुस्वरूपेण (धासिना) अन्नेन (एषा) (जामर्येण) जामस्येदं जामं तदृच्छति येन तेन (पयसा) दुग्धेन (पीपाय) वर्द्धस्व ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या ब्रह्मचर्य्येण विद्यासुशिक्षे प्राप्य धर्म्येण व्यवहारेण धर्ममन्विष्य जितेन्द्रियत्वेन मिताऽऽहारा भूत्वा पुरुषार्थयन्ति ते हृद्यौ दम्पती इवाऽऽनन्दिता भूत्वा सर्वतो वर्धन्ते ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्य को ब्रह्मचर्य्य आदि से पुरुषार्थ सेवना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशमान विद्वान् पुरुष ! जिस प्रकार से मैं (गोः) पृथिवी वा वाणी के (ऋतेन) सत्य से (नियतम्) नियमयुक्त (ऋतम्) सत्य की (ईळे) स्तुति वा ढूँढ करता हूँ, वैसे आचरण करते हुए आप पृथिवी के मध्य में (सचा) प्रसङ्ग से (मधुमत्) श्रेष्ठ मधुर आदि गुणों से युक्त (आमा) कच्चे और (पक्वम्) पक्के पदार्थों की (आ, पीपाय) अच्छे प्रकार वृद्धि करो और जैसे (एषा) यह (कृष्णा) श्याम वर्ण (सती) सज्जन पण्डिता पतिव्रता स्त्री (रुशता) उत्तम स्वरूप से (जामर्येण) जीवन में निमित्त (पयसा) दुग्ध और (धासिना) अन्न से बढ़ती है, वैसे आप वृद्धि को प्राप्त होओ ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य से विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त होके और धर्मयुक्त व्यवहार से धर्म का अन्वेषण और इन्द्रियजित् होने से नियम से भोजन करनेवाले होकर पुरुषार्थ करते हैं, वे स्नेही स्त्री और पुरुष के सदृश आनन्दित होकर सब प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥९॥
विषय
वेदवाणी रूप गौ का ज्ञानदुग्ध
पदार्थ
[१] (ऋतेन) = यज्ञ के द्वारा अथवा बड़े नियमित आचरण के द्वारा (गो:) = वेदवाणीरूपी गौ से (ऋतम्) = सत्यज्ञान की (नियतम्) = निश्चय से (आ ईडे) = समन्तात् याचना करता हूँ। नियमित जीवन बिताता हुआ सत्य ज्ञान को प्राप्त करता हूँ। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (आमा) = यह अग्नि पक्व न होती हुई भी वेदवाणी रूप गौ (सचा) = हमारे जीवन में समवेत होती हुई मधुमत् माधुर्यवाले पक्कम् पूर्ण परिपक्व ज्ञानदुग्ध को (पीपाय) = हमारे लिये बढ़ाती है [प्यायी वृद्धौ] [२] (कृष्णा सती) = [कृष् प्राप्तौ] प्राप्त हुई हुई (एषा) = यह (रुशता) देदीप्यमान, (धासिना) = धारण करनेवाले, (जामर्येण) = [जायनेत इति जा: प्रजाः, अमर्येण] प्रजाओं के अमरण हेतुभूत (पयसा) = ज्ञानदुग्ध से (पीपाय) = वेदवाणीरूप गौ हमारा आप्यायन करती है।
भावार्थ
भावार्थ- ऋत के पालन से, नियमित जीवन से वेदज्ञान प्राप्त होता है। वेदवाणी रूप गौ का ज्ञानदुग्ध मधुर व पक्व होता है। यह ज्ञानदुग्ध देदीप्यमान-धारक व अमरण हेतुभूत है।
विषय
शास्य या शिष्य के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( गोः ) पृथिवी से उत्पन्न ( ऋतेन ऋतम् ) अन्न या जल के द्वारा ( अन्नं ) अन्न ( नियतम् ) नियम से प्राप्त किया जाता है। अर्थात् भूमि पर अन्न का बीज बोकर वा जल सेचन करके उससे अन्न प्राप्त किया जाता है उसी प्रकार (गोः) वाणी के (ऋतेन) सत्य ज्ञान के द्वारा (नियतम्) नियम से विद्यमान ( ऋतम् ) सत्याचरण को भी मैं (आ ईळे) आदरपूर्वक प्राप्त करूं । हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्रणी विद्वन् ! आचार्य नायक ( आमा ) जो ज्ञान आदि अभी अपरिपक्व है वह ( सचा ) परस्पर सत्संग से अन्न के समान ही कालान्तर में ( मधुमत् ) मधुर गुण सहित ( पक्वम् ) परिपक्व हो, उसे मैं प्राप्त करूं ( कृष्णा सती रुशप्ता धासिना पयसा पीपाय ) जिस प्रकार काली गौ अपने श्वेत पुष्टिकारक दूध से बच्चे को पुष्ट करती है उसी प्रकार ( एषा ) यह ( कृष्णा ) कृषि योग्य भूमि, (सती) हमें प्राप्त होकर ( रुशता ) कान्तिमान् ( धासिना ) सबके धारक और पोषक सूर्य के साथ मिलकर और ( जामर्येण पयसा ) उत्पन्न होने वाले प्राणियों को प्राप्त होने और जीवन देने वाले वा ‘जाम’ भोजन को प्राप्त होने वाले पुष्टिकारक जल और अन्न से ( पीपाय ) सबको पुष्ट करती है उसी प्रकार यह वाणी (कृष्णा) चित्तों को आकर्षण करने वाली होकर तेजस्वी धारण करने वाले विद्वान् के साथ ( जामर्येण पयसा ) जाम अर्थात् आस्वादन करने योग्य रस के उत्पादक ( पयसा ) ज्ञान से ( पीपाय ) सबको तृप्त करती है । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ब्रह्मचर्याने विद्या व सुशिक्षण प्राप्त करून धर्मयुक्त व्यवहाराने धर्माचे अन्वेषण करतात व जितेन्द्रिय, मिताहारी बनून पुरुषार्थ करतात ती प्रेमळ स्त्री-पुरुषाप्रमाणे आनंदित होऊन सर्व प्रकारे वृद्धी करतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, O lord giver of the light and life of the world, I honour and respect the truth and law of existence by observance of the truth and law of life on earth as required and determined by the demands of life on earth and set out in the language of the earth, while I live on earth one with the honey sweets of the ripe and raw treasures of the earth. May the mother earth, being green and bright with nourishments, grow with food and drink for the sustenance of her children by the efforts of her children.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The men should exert hard with the observance of Brahamcharya etc. is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! I admire definitely the truth of the speech and long for it intensely. You should also do likewise and distinguish between sweet and mature and un-ripe and immature physically by the proper use of all objects. You should grow like a chaste and highly learned wife (of attractive or brownish color) grows by taking nutritious good food and milk.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Having received knowledge, the men exert themselves well and good education with the observance of Brahamcharya. Seeking Dharma with the righteous dealings and taking food in proper quantity with self-control, they achieve full growth, full of bliss, like the loving husbands and wives.
Foot Notes
(रुशता ) सुस्वरूपेण । रुशत् इति पदनाम (NG 43) = Beautiful or good. (धासिना) अन्नेन । = With food. (जामर्थ्येणा ) जामस्येदं जामं तदृच्छति येन तेन । = Nutritious and worth eating. (पीपाय वर्द्धस्व । = Grow. पद-गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थमादाय हर्षारोग्यप्रापकम् । = Source of joy and health.
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