ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒भिर्भ॑व सु॒मना॑ अग्ने अ॒र्कैरि॒मान्त्स्पृ॑श॒ मन्म॑भिः शूर॒ वाजा॑न्। उ॒त ब्रह्मा॑ण्यङ्गिरो जुषस्व॒ सं ते॑ श॒स्तिर्दे॒ववा॑ता जरेत ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठए॒भिः । भ॒व॒ । सु॒ऽमनाः॑ । अ॒ग्ने॒ । अ॒र्कैः । इ॒मान् । स्पृ॒श॒ । मन्म॑ऽभिः । शू॒र॒ । वाजा॑न् । उ॒त । ब्रह्मा॑णि । अ॒ङ्गि॒रः॒ । जु॒ष॒स्व॒ । सम् । ते॒ । श॒स्तिः । दे॒ववा॑ता । ज॒रे॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एभिर्भव सुमना अग्ने अर्कैरिमान्त्स्पृश मन्मभिः शूर वाजान्। उत ब्रह्माण्यङ्गिरो जुषस्व सं ते शस्तिर्देववाता जरेत ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठएभिः। भव। सुऽमनाः। अग्ने। अर्कैः। इमान्। स्पृश। मन्मऽभिः। शूरः। वाजान्। उत। ब्रह्माणि। अङ्गिरः। जुषस्व। सम्। ते। शस्तिः। देवऽवाता। जरेत॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 15
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अङ्गिरः शूराग्ने राजंस्त्वमेभिरर्कैर्मन्मभिस्सह सुमना भवेमान् वाजान् स्पृश उत ब्रह्माणि सञ्जुषस्व यतस्ते देववाता शस्तिर्जरेत ॥१५॥
पदार्थः
(एभिः) धार्मिकै रक्षकैर्विद्वद्भिः सह (भव) (सुमनाः) शोभनं मनो यस्य सः (अग्ने) विद्वन् (अर्कैः) सत्कर्त्तव्यैः (इमान्) (स्पृश) गृहाण (मन्मभिः) विद्वद्भिः (शूरः) (वाजान्) प्राप्तव्याञ्छुभगुणकर्मस्वभावान् (उत) (ब्रह्माणि) महान्ति धनानि (अङ्गिरः) प्राण इव वर्त्तमान (जुषस्व) सेवस्व (सम्) (ते) तव (शस्तिः) प्रशंसा (देववाता) देवैर्विद्वद्भिः कृता (जरेत) प्रशंसिता भवेत् ॥१५॥
भावार्थः
हे राजन् ! भवानाप्तानां विदुषां सङ्गं सततं कुरु तदुपदेशेन न्यायेन राज्यं पालयित्वा प्रशंसितो भवतु ॥१५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अङ्गिरः) प्राण के सदृश वर्त्तमान (शूर) वीर (अग्ने) विद्वन् राजन् ! आप (एभिः) इन धार्मिक रक्षक और विद्यावान् (अर्कैः) सत्कार करने योग्य (मन्मभिः) विद्वानों के साथ (सुमनाः) उत्तम मन युक्त (भव) हूजिये और (इमान्) इन (वाजान्) प्राप्त होने योग्य उत्तम गुण, कर्म और स्वभाववालों को (स्पृश) ग्रहण करिये (उत) और (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े धनों का (सम् जुषस्व) अच्छे प्रकार सेवन करिये जिससे कि (ते) आपकी (देववाता) विद्वानों से की गई (शस्तिः) प्रशंसा (जरेत) प्रशंसित हो अर्थात् अधिक विख्यात हो ॥१५॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप यथार्थवक्ता विद्वानों का सङ्ग निरन्तर करिये और उनके उपदेश से न्यायपूर्वक राज्य का पालन करके प्रशंसित हूजिये ॥१५॥
विषय
देववाता शस्ति
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! (एभिः अर्कै:) = इन स्तुति साधनभूत मन्त्रों से (सुमना: भव) = उत्तम मनवाला हो। जिस समय हम मन्त्रों द्वारा प्रभु स्तवन करते हैं, उस समय मानसवृत्ति अच्छी बनती ही है। [२] हे (शूर) = काम आदि शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले जीव ! तू (इमान् वाजान्) = इन बलों को (मन्मभिः) = ज्ञानों के साथ (स्पृश) = छूनेवाला बन, ज्ञानों और बलों को प्राप्त करनेवाला बन। मस्तिष्क तेरा ज्ञान-सम्पन्न हो, शरीर बल सम्पन्न । [३] (उत) = और हे (अंगिर:) = प्रगतिशील जीव! तू (ब्रह्माणि) = इन ज्ञान की वाणियों को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला हो । (ते) = तेरी (देववाता) = दिव्य गुणों की प्रेरणा को देनेवाली (शस्तिः) = प्रभु की प्रशस्ति (संजरेत) = सम्यक् स्तुत हो । [जरिता-स्तोता] प्रभु का स्तवन जिन दिव्य गुणों के द्वारा किया जाता है, उस उस दिव्यगुण को प्राप्त करने की प्रेरणा प्राप्त होती ही है। एवं यह शस्ति 'देववाता' है । प्रभु को 'दयालु' नाम से स्मरण करता हुआ व्यक्ति दया के गुण को अपना पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्तवन करते हुए हम उत्तम दिव्य गुणोंवाले प्रशस्त मनवाले बनें। शक्ति व ज्ञान का सम्पादन करें ।
विषय
नायक के कर्त्तव्य और नीतियुक्त वचनों के उपदेश ।
भावार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! हे राजन् ! तू ( एभिः अर्कैः ) इन मन्त्रों और अर्चना, पूजा सत्कार के योग्य विद्वानों से तू ( सुमनाः ) उत्तम ज्ञान और चित्त वाला ( भव ) हो । ( इमान् वाजान् ) तू इन ऐश्वर्यौं और गुणों को हे ( शूर ) शूरवीर ( मन्मभिः ) अन्य भी मनन योग्य गुणों के साथ ( स्पृश ) ग्रहण कर । हे ( अंगिरः ) तेजस्विन् ! तू (ब्रह्माणि) वृद्धिशील धनों को ( जुषस्व ) स्वीकार कर । ( ते ) तेरी ( देववाता ) विद्वान् पुरुषों द्वारा की गई ( शस्तिः ) स्तुति वा नसीहत ( सं जरेत ) अच्छी प्रकार की जाय ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा! तू निरंतर आप्त विद्वानांचा संग निरंतर कर व त्यांच्या उपदेशाने न्यायपूर्वक राज्याचे पालन करून प्रशंसित हो. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, giver of light and life, with these songs of prayer and these learned devotees, be pleased and happy at heart. Accept and approve of these dedicated people of thought and action. Brave and heroic leader dear as breath of life, accept and enjoy these gifts of homage and reverence. May this song of praise offered by the holy celebrants be pleasing to you and exalting.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of defiance is stressed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned king ! you are like our life and are brave Be of balanced mind and always cheerful along with the venerable and wise scholars, who are righteous and saviors from sin. Accept the noble merits, actions and temperament and enjoy great wealth, so that your praise made by the enlightened persons may be more effective.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! always have the association of the truthful highly learned persons and be worthy of admiration by preserving the State with justice according to their instructions.
Foot Notes
(अर्कैः) सत्कर्त्तंव्यैः । अर्कैः - अर्चनीयैः । अर्च पूजायाम् कृदाधाचिकलिभ्यः कः अर्को देवो भवति यदेन मर्चन्ति (NKT 5, 14 ) ( उर्णा 3, 40 ) इति कप्रत्ययः । = Venerable, honorable. (वाजान्) प्राप्तव्याच्छुभगुण कर्मस्वभवान = Noble merits, actions and temperament that should be attained. (ब्रह्माणि) महान्ति घनानि । = Great wealth of various kinds. (अङ्गिराः) प्राण इव वर्तमानः = Dear like life.
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