ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 8
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
क॒था शर्धा॑य म॒रुता॑मृ॒ताय॑ क॒था सू॒रे बृ॑ह॒ते पृ॒च्छ्यमा॑नः। प्रति॑ ब्र॒वोऽदि॑तये तु॒राय॒ साधा॑ दि॒वो जा॑तवेदश्चिकि॒त्वान् ॥८॥
स्वर सहित पद पाठक॒था । शर्धा॑य । म॒रुता॑म् । ऋ॒ताय॑ । क॒था । सू॒रे । बृ॒ह॒ते । पृ॒च्छ्यमा॑नः । प्रति॑ । ब्र॒वः॒ । अदि॑तये । तु॒राय॑ । साध॑ । दि॒वः । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । चि॒कि॒त्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कथा शर्धाय मरुतामृताय कथा सूरे बृहते पृच्छ्यमानः। प्रति ब्रवोऽदितये तुराय साधा दिवो जातवेदश्चिकित्वान् ॥८॥
स्वर रहित पद पाठकथा। शर्धाय। मरुताम्। ऋताय। कथा। सूरे। बृहते। पृच्छ्यमानः। प्रति। ब्रवः। अदितये। तुराय। साध। दिवः। जातऽवेदः। चिकित्वान्॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे जातवेदः ! सूरे पृच्छ्यमानस्त्वं मरुतामिवर्ताय बृहते शर्धाय कथा ब्रवः तुरायाऽदितये कथा प्रति ब्रवश्चिकित्वान्सन् दिवः साध ॥८॥
पदार्थः
(कथा) (शर्धाय) बलाय (मरुताम्) वायूनामिव (ऋताय) सत्याय (कथा) (सूरे) सूर्य्य इव वर्त्तमाने सैन्ये (बृहते) वर्द्धमानाय (पृच्छ्यमानः) (प्रति) (ब्रवः) ब्रूयाः (अदितये) अविनष्टायाऽन्तरिक्षाय (तुराय) त्वरमाणाय (साध)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवः) प्रकाशान् (जातवेदः) प्रसिद्धप्रज्ञान (चिकित्वान्) ज्ञानवान् भूत्वा ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजानो वायुवत्स्वबलं वर्धयन्ति योद्धॄणां शिक्षकान् परीक्षकान् सत्कुर्वन्ति प्रश्नोत्तराभ्यां सर्वान् विज्ञाय तैः कार्य्याणि साध्नुवन्ति ते सूर्य्य इवैश्वर्य्यप्रकाशका भवन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अगले मन्त्र में राजविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (जातवेदः) प्रसिद्ध उत्तम ज्ञानयुक्त (सूरे) सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान सेना में (पृच्छ्यमानः) पूँछे गए आप (मरुताम्) पवनों का जैसे वैसे (ऋताय) सत्य के और (बृहते) बढ़ते हुए (शर्धाय) बल के लिये (कथा) किस प्रकार से (ब्रवः) कहो (तुराय) शीघ्रता करते हुए (अदितये) नहीं नाश होनेवाले अन्तरिक्ष के लिये (कथा) किस प्रकार से (प्रति) निश्चित कहो (चिकित्वान्) ज्ञानवान् होकर (दिवः) प्रकाशों को (साध) सिद्ध करो ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा लोग वायु के सदृश अपने बल को बढ़ाते, योधा लोगों के शिक्षक और परीक्षकों का सत्कार करते और प्रश्नोत्तर से सब को जान उनके द्वारा कार्य सिद्ध करते हैं, वे सूर्य्य के सदृश ऐश्वर्य के प्रकाशक होते हैं ॥८॥
विषय
प्राणशक्ति-ज्ञान व स्वास्थ्य
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (चिकित्वान्) = हमारी स्थिति को पूरा-पूरा जानते हुए आप (कथा) = कैसे मुझे (ऋताय) = ऋतभूत जीवन से असत्य को दूर करनेवाले, (मरुतां शर्धाय) = प्राणों के बल के लिये (प्रतिब्रवः) = मुझे कहेंगे? आप से उपदेश को प्राप्त करके मैं प्राणों के बल को प्राप्त करनेवाला बनूँ। यह प्राणशक्ति ही मेरे जीवन को अमृत से शून्य करके ऋतवाला बनाती है । [२] (पृच्छ्यमान:) = हे प्रभो ! प्रार्थना किये जाते हुए आप बृहते वृद्धि के कारणभूत सूरे ज्ञानसूर्य के लिये मुझे (कथा) = कैसे (प्रतिब्रवः) = उपदेश करेंगे। आपसे उपदिष्ट हुआ हुआ मैं ऊँचे से ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करनेवाला बनूँ । हे प्रभो! आप तुराय सब शत्रुओं का संहार करनेवाले अदितये स्वास्थ्य के लिये (दिवः) = साध-ज्ञान को सिद्ध करिये। आप से ज्ञान को प्राप्त करके हम युक्ताहार विहारवाले बनकर स्वस्थ बनें। शरीर में उत्पन्न होनेवाली सब कमियों को हम दूर करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु से प्रेरित होकर हम 'प्राणशक्ति' का वर्धन करें, ज्ञान को प्राप्त करके सब कमियों को तथा स्वास्थ्य को विनष्ट करें।
विषय
उसको क्या २ जानना चाहिये ?
भावार्थ
हे ( जातवेदः ) धनों के स्वामिन् ! हे ज्ञानों को जाननेहारे । तू इस बात का भी अच्छी प्रकार ज्ञान कर कि ( मरुताम् ) शत्रुओं का मारने वाला, वायु के समान बलवान् पुरुषों के ( शर्धाय ) बल वृद्धि के लिये और मनुष्यों के ( ऋताय ) ज्ञान प्रसार और सत्य न्याय तथा ऐश्वर्य अन्न जलादि को प्राप्त करने के लिये ( कथा ) किस प्रकार से (प्रति ब्रवः ) कहे, और ( वृहते सूरे ) बड़े भारी सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष के लिये (पृच्छ्यमानः) पूछा जाकर ( कथा ) किस रीति से ( प्रति ब्रवः ) प्रत्युत्तर देवे । ( तुराय ) अति शीघ्रकारी, वेग से जाने वाले ( आदितये ) माता, पिता, पुत्र, अखण्ड शासन वाले पुरुष को ( कथा प्रति ब्रवः ) कैसे प्रत्युत्तर देवें । तू ( चिकित्वान् ) इन सब बातों का ज्ञान करता हुआ ( दिवः ) प्रकाशवान् सूर्य के समान गुरु से वा समस्त कामना योग्य व्यवहारों को ( साध ) भली प्रकार अभ्यास कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १२, १५ निचृत्त्रिष्टुप । २, १३, १४ विराट्त्रिष्टुप् । ३, ७, ९ त्रिष्टुप । ४ स्वराड्-बृहती । ६, ११, १६ पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे वायूप्रमाणे आपले बल वाढवितात. योद्धे, शिक्षक व परीक्षकांचा सत्कार करतात. प्रश्नोत्तराद्वारे सर्व जाणून त्याद्वारे कार्य सिद्ध करतात ते सूर्याप्रमाणे ऐश्वर्याचे प्रकाशक असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, O Jataveda, lord ruler and master of knowledge of things in existence, how would you speak to and about the sacred law of truth, about the forces swift as the winds? And when asked, what and how would you speak about the mighty great leaders bright as the sun among people? How would you speak to and about the excellent, abundant and inviolable sky? O master of knowledge, rising higher and higher in awareness, achieve the light, reaching unto the solar regions.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! You are renowned on account of your great knowledge. When asked about the armed strength like that of sun, how will you tell about the exact military power like that of the winds? How will you tell about the vast and inviolable firmament? Being endowed with knowledge, intensify your wisdom.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The kings become illuminators of prosperity like the sun, when increase their strength like the winds. They honor the trainees and military advisers, and the people. They also know the nature of all objects through their inquisitive powers and accomplish all objectives.
Foot Notes
(सूरे) सूर्य इवं वर्त्तमाने सैन्य । = About the mighty army which is like the sun. (मरुताम् ) वायूनामिव । = Like the winds. मरुतः इति पदनाम (NG 5, 5) पद-गतौ । गतस्त्रयोऽर्थाः -ज्ञानं गमन प्राप्तिश्च अत्र गमनाममप्रापका वायवो गृहान्ते । (अदितवे) अविनष्टायान्तरिक्षायं । =For the inviolable firmament. (शर्धाय) बलायं शर्ध इति बलनाम (NG 2,9) = For the strength.
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