ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
व्य॑कृणोत चम॒सं च॑तु॒र्धा सखे॒ वि शि॒क्षेत्य॑ब्रवीत। अथै॑त वाजा अ॒मृत॑स्य॒ पन्थां॑ ग॒णं दे॒वाना॑मृभवः सुहस्ताः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठवि । अ॒कृ॒णो॒त॒ । च॒म॒सम् । च॒तुः॒ऽधा । सखे॑ । वि । शि॒क्ष॒ । इति॑ । अ॒ब्र॒वी॒त॒ । अथ॑ । ऐ॒त॒ । वा॒जाः॒ । अ॒मृत॑स्य । पन्था॑म् । ग॒णम् । दे॒वाना॑म् । ऋ॒भ॒वः॒ । सु॒ऽह॒स्ताः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यकृणोत चमसं चतुर्धा सखे वि शिक्षेत्यब्रवीत। अथैत वाजा अमृतस्य पन्थां गणं देवानामृभवः सुहस्ताः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठवि। अकृणोत। चमसम्। चतुःऽधा। सखे। वि। शिक्ष। इति। अब्रवीत। अथ। ऐत। वाजाः। अमृतस्य। पन्थाम्। गणम्। देवानाम्। ऋभवः। सुऽहस्ताः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सखे ! यथाप्ता विद्वांसो सत्यविद्यां शिक्षन्ते तथा त्वं शिक्ष। हे वाजाः सुहस्ता ऋभवो ! यथा सखायस्तथा यूयं चमसं चतुर्धा व्यकृणोत शास्त्राणि व्यब्रवीत। अथेति देवानां गणममृतस्य पन्थामैत ॥३॥
पदार्थः
(वि) विशेषेण (अकृणोत) (चमसम्) यथा यज्ञसाधनम् (चतुर्धा) (सखे) (वि) (शिक्ष) अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (इति) (अब्रवीत) उपदिशत (अथ) (ऐत) प्राप्नुत (वाजाः) (अमृतस्य) नाशरहितस्य मोक्षस्य (पन्थाम्) (गणम्) समूहम् (देवानाम्) विदुषाम् (ऋभवः) मेधाविनः (सुहस्ताः) ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! परमेश्वरो युष्मान् चतुर्विधं पुरुषार्थं साध्नुतेति ब्रूते यदि सखायो भूत्वा कार्य्यसिद्धये प्रयत्नं कुर्य्युस्तर्हि धर्मार्थकाममोक्षसिद्धिर्युष्मानसंशयं प्राप्नुयात् ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सखे) मित्र ! जैसे यथार्थवक्ता विद्वान् जन सत्यविद्या की शिक्षा देते हैं, वैसे आप (शिक्ष) शिक्षा देओ और हे (वाजाः) विज्ञानयुक्त (सुहस्ताः) अच्छे हाथोंवाले (ऋभवः) बुद्धिमान् जनो ! जैसे मित्र वैसे आप लोग (चमसम्) यज्ञ सिद्ध करानेवाले पात्र के सदृश कार्य्य को (चतुर्धा) चार प्रकार (वि) विशेषता से (अकृणोत) करो और शास्त्रों का (वि) विशेष करके (अब्रवीत) उपदेश देओ। (अथ) इसके अनन्तर (इति) इस प्रकार से (देवानाम्) विद्वानों के (गणम्) समूह को और (अमृतस्य) नाशरहित मोक्ष के (पन्थाम्) मार्ग को (ऐत) प्राप्त होओ ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! परमेश्वर आप लोगों के प्रति चार प्रकार के पुरुषार्थ को सिद्ध करो, ऐसा कहता है कि जो परस्पर मित्र होकर कार्य्य की सिद्धि के लिये प्रयत्न करो तो धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि आप लोगों को विना संशय प्राप्त होवे ॥३॥
विषय
अमृत मार्ग का आक्रमण
पदार्थ
[१] हे ऋभुओ! तुम लोगों ने (चमसम्) = इस शरीर पात्र को (चतुर्धा) = चार प्रकार से (व्यकृणोत) = किया है, अर्थात् इसके द्वारा 'ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास' चारों आश्रमों को बिताने का निश्चय किया है तथा प्रभु से (इति अब्रवीत्) = इस रूप में प्रार्थना की है कि सखे हे मित्र प्रभो ! (विशिक्ष) = हमें विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कराइये, अथवा [शक् सन्] हमें सशक्त बनाने की कामना करिए। [२] (अथ) = अब इस प्रार्थना के साथ (वाजा:) = हे शक्तिशाली पुरुषो! तुम (अमृतस्य पन्थां एत) = अमृत के मार्ग पर आक्रमण करो। उस मार्ग पर चलो, जो कि तुम्हें मोक्ष की ओर ले जाए- तुम विषय-वासनाओं के पीछे मरनेवाले मत होओ। हे (सुहस्ता:) = उत्तम हाथोंवाले कार्यकुशल (ऋभवः) = ज्ञानी पुरुषो! (देवानां गणं) = [एत]-दिव्यगुणों के समूह को प्राप्त होओ। गीता में प्रतिपादित दैवी सम्पत्ति के २७ तत्त्वों को प्राप्त करो ।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन को हम चार आश्रमों में चलाएँ । प्रभु से शक्ति की प्रार्थना करें। अमृत के मार्ग पर चलें। दैवी- सम्पत्ति के अर्जन के लिए यत्नशील हों ।
विषय
चतुर्धा पुरुषार्थ, चतुर्धा आश्रम, चतुरंग सैन्य और चतुर्धा अन्न का निर्माण ।
भावार्थ
हे (ऋभवः) विद्वान् सत्यज्ञानी पुरुषो! आप लोग (एकं) एक (चमसं) चमस, उपभोग्य पात्र को (चतुर्धा वि अकृणोत) चार रूपों में प्रकट करो। और ज्ञान प्राप्त करने के लिये आप (सखे वि शिक्ष इति अब्रवीत) हे मित्र विशेष ज्ञान प्राप्त कर इस प्रकार कहा करो । (अथ) इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कर लेने के अनन्तर आप लोग हे (ऋभवः) सत्य ज्ञान से प्रकाशित और (सुहस्ताः) उत्तम कर्मकुशल ! हे (वाजाः) ज्ञान, बल, ऐश्वर्यादि से युक्त पुरुषो ! (अमृतस्य पन्थाम्) अमृत आत्मतत्व ज्ञान के मार्ग को और (देवानां गणम्) उत्तम दानशील, ज्ञानप्रकाशक विद्वानों को भी (एत) प्राप्त होवे । जैसे एक मेघ किरणों द्वारा चार रूपों में छिन्न भिन्न हो जाता है उसी प्रकार विद्वान्जन एक प्रजासंघ को चार वर्णों में, एक जीवन को चार आश्रमों में और एक चमस-कर्म यज्ञ को होत्र आदि भेद से चार भेद में और एक प्रकृति तत्व को अग्नि, जल, पृथिवी, वायु रूप से विकृत, एक पुरुषार्थ को चार पुरुषार्थों में, एक सैन्य को चार अंगों में और एक ईश्वरीय ज्ञान वेद को ऋक्, साम, यजु, ब्रह्म, इन चार प्रकारों में उपदेश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:– १, २, ४, ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५ स्वराट् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! परमेश्वर तुम्हाला चार प्रकारचे पुरुषार्थ करा असे सांगतो. जर परस्पर मित्र बनून कार्यसिद्धीसाठी प्रयत्न केला, तर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष निःसंशय तुम्हाला प्राप्त होईल. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
You develop the cup of life to fourfold success of completion and perfection: Dharma, artha (material development), kama (self-fulfilment), and Moksha (ultimate freedom). O friend, teach and say: This is it, this is the art of living. And then, O eminent scholars, dynamic scientists, dexterous technologists, join the fraternity of divines and move on to the path of immortality.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of essentials of the learned is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O friend! as absolutely truthful and highly learned persons teach true knowledge, you should also do likewise. O powerful and dexterously wise artisans you are like our friends. You have made the assignment successful from all aspects, like the instrument of Yajna (the ladle) and teach the shastras well. Follow the path of emancipation lasting a very long period. (According to the shastras, the salvation is not eternal on everlasting. Ed.).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! God ordains you to accomplish the fourfold ultimate aims of the human life i.e. Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha ( emancipation). If you endeavor for the accomplishment of the final as a team, you will certainly be able to accomplish Dharma, Artha, Kama and Moksha- the Purushartha. (Here the ladle is compared with it. Ed.).
Foot Notes
(चमसम्) यथा यज्ञसाधनम् । = A ladle used to put oblation, etc. in the Yajna.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal