ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 8
ये दे॒वासो॒ अभ॑वता सुकृ॒त्या श्ये॒नाइ॒वेदधि॑ दि॒वि नि॑षे॒द। ते रत्नं॑ धात शवसो नपातः॒ सौध॑न्वना॒ अभ॑वता॒मृता॑सः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठये । दे॒वासः॑ । अभ॑वत । सु॒ऽकृ॒त्या । श्ये॒नाःऽइ॑व । इत् । अधि॑ । दि॒वि । नि॒ऽसे॒द । ते । रत्न॑म् । धा॒त॒ । श॒व॒सः॒ । न॒पा॒तः॒ । सौध॑न्वनाः । अभ॑वत । अ॒मृता॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवासो अभवता सुकृत्या श्येनाइवेदधि दिवि निषेद। ते रत्नं धात शवसो नपातः सौधन्वना अभवतामृतासः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठये। देवासः। अभवत। सुऽकृत्या। श्येनाःऽइव। इत्। अधि। दिवि। निऽसेद। ते। रत्नम्। धात। शवसः। नपातः। सौधन्वनाः। अभवत। अमृतासः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
ये देवासः सुकृत्याऽभवत श्येनाइव दिव्यधि निषेद त इच्छवसो नपातः सौधन्वना रत्नं धातामृतासोऽभवत ॥८॥
पदार्थः
(ये) (देवासः) विद्वांसः (अभवत) भवन्ति। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुकृत्या) सुकृतेन कर्मणा (श्येनाइव) श्येनवत्पुरुषार्थिनः (इत्) एव (अधि) उपरि (दिवि) द्युलोके अन्तरिक्षे (निषेद) निषीदन्ति। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम्। (ते) (रत्नम्) रमणीयं धनम् (धात) धरन्ति (शवसः) बलवन्तः सन्तः (नपातः) ये धर्मान्न पतन्ति (सौधन्वनाः) शोभनं धन्वान्तरिक्षं येषान्ते तेषां पुत्राः (अभवत) भवन्ति (अमृतासः) प्राप्तमोक्षसुखाः ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये श्येनवद्विमानेनान्तरिक्षे गच्छन्ति धर्माचरणेन विद्वांसो भूत्वाऽन्यानपि तादृशान् कुर्वन्ति ते ऐश्वर्य्यं लब्ध्वा भुक्त्वा मुक्तिमधिगच्छन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(ये) जो (देवासः) विद्वान् (सुकृत्या) श्रेष्ठ कर्म से (अभवत) होते और (श्येनाइव) वाज के सदृश पुरुषार्थी (दिवि) अन्तरिक्ष में (अधि) ऊपर (निषेद) स्थित होते हैं (ते) वे (इत्) ही (शवसः) बलवान् हुए (नपातः) धर्म से नहीं गिरनेवाले (सौधन्वनाः) जिनका सुन्दर अन्तरिक्ष अर्थात् जिन्होंने यज्ञादि कर्म से अन्तरिक्ष को स्वच्छ किया उनके पुत्र (रत्नम्) सुन्दर धन को (धात) धारण करते हैं और (अमृतासः) मोक्षसुख को प्राप्त (अभवत) होते हैं ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो बाज के सदृश विमान से अन्तरिक्ष में जाते हैं, धर्म के आचरण से विद्वान् होकर अन्य जनों को भी वैसे करते हैं, ऐश्वर्य्य को प्राप्त हो तथा उसका भोग करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥८॥
विषय
स्वरः मोक्ष प्राप्ति
पदार्थ
[१] (ये) = जो तुम (सुकृत्या) = उत्तम कर्मों द्वारा (देवासः अभवत) = देव बने हो । (श्येनाः इव) = जो तुम अत्यन्त शंसनीय गतिवाले हो । शंसनीय गतिवाले की भाँति तुम इत्-निश्चय से दिवि प्रकाश में अधिनिषेद - आधिक्येन निषण्ण होओ। जैसे उत्तम कर्मोंवाले बनो, उसी प्रकार ज्ञान में स्थित होनेवाले बनो । [२] ते वे तुम रत्नं धात रमणीय पदार्थों के धारण करनेवाले बनो। शवसः नपात:-शक्ति के न गिरने देनेवाले होओ। सौधन्वनाः- उत्तम प्रणवरूप धनुष्वाले बनो। इस प्रकार अमृतासः अभवत तुम अमृत हो जाओ, जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ जाओ। प्रशंसनीय भावार्थ- मोक्षप्राप्ति का मार्ग यह है, [क] उत्तम कर्मों द्वारा देव बनें, [ख],
भावार्थ
गतिवाले व ज्ञान की रुचिवाले हों, [ग] रत्न [मणि = सोम] का धारण करें, [घ] शक्ति को नष्ट न होने दें, [ङ] प्रणव [ओ३म्] का जप करें।
विषय
सौधन्वन, साधकों का वर्णन
भावार्थ
(ये) जो (देवासः) उत्तम सुख की कामना करने वाले विद्वान् पुरुष (सुकृत्या) उत्तम आचरण से (श्येनाः इव) तीव्र पक्षियों के समान ऊंचे चढ़ने वाले, उत्तम पद या मार्ग की ओर जाने वाले प्रशंसनीय आचरण (अभवत) हो जाते हैं वे (दिवि अघि) ज्ञानमय प्रभु परमेश्वर में, मोक्ष में, ज्ञानमय प्रकाश में और पृथिवी के ऊपर (निषेदुः) आदर से विराजते हैं । हे (शवसः नपात्) बल वीर्य का नाश न होने देने हारे बलवान्, ज्ञानवान् पुरुषो ! वा बल वा ज्ञान द्वारा उत्पन्न वीरो ! विद्वान् शिष्यो ! हे (सौधन्वनाः) उत्तम धनुर्धरो ! उत्तम मनोभूमि पर आरूढ साधको ! (ते) वे आप लोग (रत्नं धात) रमणीय, वीर्य का धारण पालन करो, ऐश्वर्य को धारो और (अमृतासः) अविनाशी, जीवी, दृढ़ (अभवत) होओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:– १, २, ४, ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५ स्वराट् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे श्येन पक्ष्याप्रमाणे विमानाने अंतरिक्षात जातात. धर्माच्या आचरणाने विद्वान बनून इतरांनाही तसे करतात ते ऐश्वर्य प्राप्त करून, भोगून, शेवटी मोक्ष प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Rbhus who rise to divine virtues by noble actions and, like the eagle, soar to the skies, create and bestow jewels of life on others and, bold and courageous, infallible and imperishable warriors of the bow, they rise on and become immortal.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the enlightened ones are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons are famed on account of good deeds, and take flights to the sky (by aircrafts etc.) being industrious like the hawks. They are also powerful being the sons of those who keep the firmament free of pollution by performing Yajnas. They never go astray from the path of Dharma (righteousness), and lastly attain the bliss of emancipation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who go to the firmament by the aircrafts like the hawks, who become truly enlightened by the performance of righteous acts and turn others also on the same path, get prosperity in this world and emancipation thereafter in the heaven.
Foot Notes
(श्येना- इव) श्येनवत्पुरुषार्थिन: । = Industrious like the hawks. (नपातः ) ये धर्मान्न पतन्ति । = Who do not go away from the path of righteousness. (सौधन्वनाः) शोभनं धन्वन्तरिक्षं येषान्ते तेषां पुत्राः । = The sons of those who make the firmament free from pollution by the performance of the Yajnas. धन्य इत्यन्तरिक्षनाम (NG 1, 3) धन्व अन्तरिक्षम् धन्वन्ति अस्मादाप: ( NKT 5, 1, 4)। !
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