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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    शच्या॑कर्त पि॒तरा॒ युवा॑ना॒ शच्या॑कर्त चम॒सं दे॑व॒पान॑म्। शच्या॒ हरी॒ धनु॑तरावतष्टेन्द्र॒वाहा॑वृभवो वाजरत्नाः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शच्या॑ । अ॒क॒र्त॒ । पि॒तरा॑ । युवा॑ना । शच्या॑ । अ॒क॒र्त॒ । च॒म॒सम् । दे॒व॒ऽपान॑म् । शच्या॑ । हरी॒ इति॑ । धनु॑ऽतरौ । अ॒त॒ष्ट॒ । इ॒न्द्र॒ऽवाहौ॑ । ऋ॒भ॒वः॒ । वा॒ज॒ऽर॒त्नाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शच्याकर्त पितरा युवाना शच्याकर्त चमसं देवपानम्। शच्या हरी धनुतरावतष्टेन्द्रवाहावृभवो वाजरत्नाः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शच्या। अकर्त। पितरा। युवाना। शच्या। अकर्त। चमसम्। देवऽपानम्। शच्या। हरी इति। धनुऽतरौ। अतष्ट। इन्द्रऽवाहौ। ऋभवः। वाजऽरत्नाः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वाजरत्ना ऋभवो ! यूयं शच्या युवाना पितराकर्त्त शच्या देवपानं चमसमकर्त्त शच्या धनुतराविन्द्रवाहौ हरी अतष्ट ॥५॥

    पदार्थः

    (शच्या) प्रज्ञया (अकर्त्त) कुरुत (पितरा) विज्ञानवन्तावध्यापकोपदेशकौ (युवाना) प्राप्तयौवनौ (शच्या) कर्मणा (अकर्त्त) (चमसम्) पेयसाधनम् (देवपानम्) देवाः पिबन्ति येन तत् (शच्या) वाण्या। शचीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (हरी) वायुविद्युतौ (धनुतरौ) शीघ्रं गमयितारौ (अतष्ट) निष्पादयत (इन्द्रवाहौ) ऐश्वर्यप्रापकौ (ऋभवः) धीमन्तः (वाजरत्नाः) वाजा अन्नादयो रत्नानि सुवर्णादीनि च येषान्ते ॥५॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! यूयमेवं यत्नं कुरुत यथा मनुष्यसन्ताना युवावस्था यावत्तावत् प्राप्तपूर्णविज्ञाना भूत्वा पूर्णायां युवावस्थायां परस्परस्य प्रीत्यनुमतिभ्यां स्वयंवरं विवाहं कृत्वा सर्वदाऽऽनन्दिताः स्युः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वाजरत्नाः) अन्न आदि पदार्थ और सुवर्ण आदि पदार्थों से युक्त (ऋभवः) बुद्धिमानो ! आप लोग (शच्या) उत्तम बुद्धि से (युवाना) युवावस्था को प्राप्त (पितरा) विज्ञानवाले अध्यापक और उपदेशक को (अकर्त्त) करिये (शच्या) कर्म से (देवपानम्) देव विद्वान् जन जिससे पान करते हैं उस (चमसम्) पान करने के साधन को (अकर्त्त) करिये (शच्या) वाणी से (धनुतरौ) शीघ्र पहुँचाने और (इन्द्रवाहौ) ऐश्वर्य्य को प्राप्त करानेवाले (हरी) वायु और बिजुली को (अतष्ट) उत्पन्न करो ॥५॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! आप लोग इस प्रकार यत्न करो जैसे कि मनुष्यों के सन्तान युवावस्था जब तक तब तक प्राप्त पूर्ण विज्ञानवाले होकर पूर्ण युवावस्था में परस्पर प्रीति और अनुमति से स्वयंवर विवाह करके सदा आनन्दित होवें ॥५॥

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    विषय

    देवपान चमस

    पदार्थ

    [१] हे (वाजरत्ना:) = शक्तिरूपी रमणीय धनवाले, (ऋभव:) = ज्ञानदीप्त पुरुषो! आप (शचा) = कर्म व प्रज्ञान द्वारा (पितरा) = द्यावापृथिवी रूप माता पिता को मस्तिष्करूप द्युलोक को तथा शरीररूप पृथिवी को (युवाना) = युवा (अकर्त) = कर देते हो। इन्हें जीर्णशक्तिवाले नहीं होने देते। [२] तुम (शच्या) = कर्म व प्रज्ञान द्वारा (चमसम्) = इस शरीरपात्र को (देवपानम्) = दिव्यवृत्तिवाले पुरुषों का सोमपान का स्थान (अकर्त) = करते हो इसमें सोम का पान करते हुए इसे अत्यन्त दृढ़ व ज्ञान सम्पन्न बनाते हो। [३] (शच्या) = कर्म व प्रज्ञान द्वारा ही हरी इन इन्द्रियाश्वों को (धनुतरौ) = [शीघ्रं गंतृतरौ ] शीघ्र गतिवाला तथा (इन्द्रवाहौ) = उस प्रभु का वहन [धारण] करनेवाला अतष्ट बनाते हो। कर्मेन्द्रियाँ यदि शीघ्रता से यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होती हैं, तो ज्ञानेन्द्रियाँ प्रभु का ज्ञान प्राप्त करनेवाली बनती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- कर्म व प्रज्ञान द्वारा शरीर व मस्तिष्क की शक्ति जीर्ण नहीं होती। इस शरीर में देववृत्ति के पुरुष सोम [वीर्यशक्ति] का रक्षण करते हैं और इन्द्रियों को कर्मप्रवृत्त व आत्मज्ञान का धारण करनेवाली बनाते हैं। -

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    विषय

    कृत्रिम अश्वादि यन्त्र निर्माण ।

    भावार्थ

    हे (ऋभवः) सत्य, न्याय, ज्ञान से प्रकाशवान् पुरुषो ! हे (वाज-रत्नाः) ज्ञान, अन्नैश्वर्यादि रमणीय पदार्थों के स्वामियो ! आप लोग (शच्या) शची, शक्तिशालिनी बुद्धि, वाणी, शक्ति और सेनादि के बल से ही (चमसं) भोगयोग्य या भोगप्रद पदार्थ राष्ट्रादि को (देवपानम्) विद्वान्, विजिगीषु आदि से उपभोग क योग्य (कर्त्त) करो। और आप लोग (शच्या) वाणी और बुद्धि के बल से ही (इन्द्रवाहौ हरी) ऐश्वर्यवान् राजा को वहन करने, उसको अपने पर धारण करने वाले अश्वों के तुल्य सन्मार्ग पर चलने वाले स्त्री पुरुषों को (धनुतरौ अतष्ट) शीघ्रगामी बनाते हो । (२) शिल्पी लोग भी वेगवान् रथ कृत्रिम अश्वादि को बुद्धि से बनावें, उत्तम २ वस्त्र बनावें, सूर्य की किरणें जल वायु को जगत् का पालक और अन्न को प्राणदायक बनाते हैं, प्रकाश ताप को तीव्र वेगगामी करते हैं । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:– १, २, ४, ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५ स्वराट् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! तुम्ही असा प्रयत्न करा की, मानवी संतानांनी युवावस्थेत पूर्ण विज्ञान प्राप्त करून परस्पर प्रीती व अनुमतीने स्वयंवर विवाह करून सदैव आनंदात राहावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Rbhus, with your truth of knowledge and holy science, you rejuvenate your parents to youthful health. With truth of vision and imagination, you reveal the fourfold cup of life’s beauty and joy for the drink of divinities. With your truth of science and technology you create the power and construct the chariot faster than bullet speed for the ride of Indra, world’s presiding power of rule and law. You are really the master creators and controllers of the speed and jewels of life on earth.

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