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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यत्तृ॒तीयं॒ सव॑नं रत्न॒धेय॒मकृ॑णुध्वं स्वप॒स्या सु॑हस्ताः। तदृ॑भवः॒ परि॑षिक्तं व ए॒तत्सं मदे॑भिरिन्द्रि॒येभिः॑ पिबध्वम् ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । तृ॒तीय॑म् । सव॑नम् । र॒त्न॒ऽधेय॑म् । अकृ॑णुध्वम् । सु॒ऽअ॒प॒स्या । सु॒ऽह॒स्ताः॒ । तत् । ऋ॒भ॒वः॒ । परि॑ऽसिक्तम् । वः॒ । ए॒तत् । सम् । मदे॑भिः । इ॒न्द्रि॒येभिः॑ । पि॒ब॒ध्व॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्तृतीयं सवनं रत्नधेयमकृणुध्वं स्वपस्या सुहस्ताः। तदृभवः परिषिक्तं व एतत्सं मदेभिरिन्द्रियेभिः पिबध्वम् ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। तृतीयम्। सवनम्। रत्नऽधेयम्। अकृणुध्वम्। सुऽअपस्या। सुऽहस्ताः। तत्। ऋभवः। परिऽसिक्तम्। वः। एतत्। सम्। मदेभिः। इन्द्रियेभिः। पिबध्वम् ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सुहस्ता ऋभवो ! यूयं यद्व एतत्परिषिक्तं तन्मदेभिरिन्द्रियेभिः स्वपस्या सम्पिबध्वं तद्रत्नधेयं तृतीयं सवनमकृणुध्वम् ॥९॥

    पदार्थः

    (यत्) (तृतीयम्) अष्टाचत्वारिंशद्वर्षपरिमितसेवितं ब्रह्मचर्य्यम् (सवनम्) सकलैश्वर्य्यप्रापकम् (रत्नधेयम्) रत्नानि धीयन्ते यस्मिँस्तत् (अकृणुध्वम्) (स्वपस्या) सुष्ठु धर्म्यकर्मेच्छया (सुहस्ताः) शोभना धर्म्यकर्मकरा हस्ता येषान्ते (तत्) (ऋभवः) (परिषिक्तम्) परितः सर्वतः श्रेष्ठपदार्थैः संयोजितम् (वः) युष्मभ्यम् (एतत्) (सम्) (मदेभिः) आनन्दैः (इन्द्रियेभिः) (पिबध्वम्) ॥९॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं प्रथमे वयसि विद्याभ्यासं द्वितीये गृहाश्रमं तृतीये न्यायादिकर्मानुष्ठानं च कृत्वा पूर्णमैश्वर्य्यं प्राप्नुत ॥९॥ अत्र विद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥९॥ इति पञ्चत्रिंशत्तमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सुहस्ताः) सुन्दर धर्म्मसम्बन्धी कर्म्म करनेवाले हाथों से युक्त (ऋभवः) बुद्धिमानो ! आप (यत्) जो (वः) आप लोगों के लिये (एतत्) यह (परिषिक्तम्) सब प्रकार श्रेष्ठ पदार्थों से संयुक्त किया हुआ (तत्) उसको (मदेभिः) आनन्दों (इन्द्रियेभिः) चक्षुरादि इन्द्रियों और (स्वपस्या) उत्तम धर्मसम्बन्धी कर्म की इच्छा से (सम्, पिबध्वम्) पान करो और (रत्नधेयम्) जिसमें रत्न धरे जाते हैं उस (तृतीयम्) तीसरे अर्थात् अड़तालीसवें वर्ष पर्य्यन्त सेवित ब्रह्मचर्य्य और (सवनम्) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों के प्राप्त करनेवाले कर्म को (अकृणुध्वम्) करिये ॥९॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम प्रथम अर्थात् युवावस्था में विद्या का अभ्यास, द्वितीय अर्थात् मध्यम अवस्था में गृहाश्रम और तृतीय में न्याय आदि कर्मों का अनुष्ठान करके पूर्ण ऐश्वर्य्य को प्राप्त होओ ॥९॥ इस सूक्त में विद्वानों का कृत्य वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥९॥ यह पैंतीसवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    मदेभिः इन्द्रियेभिः

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (तृतीयं सवनम्) = जीवन-यज्ञ के सायन्तन सवन को भी (रत्नधेयम्) = रत्नों का आधान करनेवाला (अकृणुध्वम्) = करते हो, अर्थात् ६८ से ११६ वर्ष तक भी सोम [रतन मणि] का शरीर में धारण करते हो, तो (स्वपस्या) = उत्तम कर्मों की इच्छा से सुहस्ता: = उत्तम हाथोंवाले होते हो। सोमरक्षण से उत्तम कर्मों की इच्छा तो होती ही है, साथ ही साथ शक्तिसम्पन्न बने रहते हैं । [२] (तद्) = तब (ऋभव:) = हे ज्ञानदीप्त पुरुषो! (वः) = तुम्हारा (एतत्) = यह (परिषिक्तम्) = सोम का (सर्वतः) = सेचन होता है । सो तुम (मदेभिः) = उल्लासों के हेतु से तथा (इन्द्रियेभिः) = वीर्यों व बलों के हेतु से प्रत्येक अंग की शक्ति के हेतु से (संपिबध्वम्) = सम्यक् सोम का पान करो। सोमरक्षण से जीवन में उल्लास बना रहता है तथा शक्ति स्थिर रहती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण हमें उत्तम कर्मों की इच्छावाला, उत्तम हाथोंवाला, उल्लासयुक्त व सशक्त बनाता है। अगले सूक्त में भी इन ऋभुओं का ही वर्णन है -

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    विषय

    सौधन्वन वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (सुहस्ताः) उत्तम हनन साधनों से सम्पन्न वीरो ! हे उत्तम कर्म करने में कुशल हाथों वा विघ्ननाशक साधनों वाले ! सिद्ध हस्त विद्वानो ! आप लोग (स्वपस्या) उत्तम कर्म करने की इच्छा से (यत्) जब (तृतीयं) तीसरे सर्वश्रेष्ठ कोटि के (रत्न-धेयम्) रमणीय वीर्य धारण के कार्य अर्थात् ४८ वर्ष के ब्रह्मचर्य को (अकृणुध्वम्) कर लो इसी प्रकार व हे वीरो ! अब तुम सब श्रेष्ठ ऐश्वर्य को प्राप्त करलो (तत्) तब हे (ऋभवः) विद्वानो ! हे वीरो ! सत्य, न्याय से शोभा पाने वालो ! (वः) तुम्हारा (एतत्) यह (परि सिक्तम् अस्तु) सन्तानार्थ निषिक्त हो और ऐश्वर्यं समस्त राज्य में प्रजा की वृद्धि के लिये मेघ के जल के तुल्य सर्वोपकारार्थ दान दिया जाय । और आप लोग स्वयं (इन्द्रियेभिः मदेभिः) इन्द्र आत्मा के द्वारा प्राप्त अध्यात्म आनन्दों (सं पिबध्वम्) उसका उपभोग और पालन करो। हे वीरो ! तुम उस ऐश्वर्य को (इन्द्रियेभिः मदेभिः) इन्द्रियों के दमनों सहित वा इन्द्र, राजा द्वारा प्रदत्त तृप्तिकारक भोजन वेतनादि रूप से उसका उपभोग करो। इति षष्ठो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:– १, २, ४, ६, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५ स्वराट् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! प्रथम युवावस्थेत विद्येचा अभ्यास, द्वितीय अर्थात मध्यम अवस्थेत गृहस्थाश्रम, तृतीयमध्ये न्याय इत्यादी कर्मांचे अनुष्ठान करून पूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Rbhus, generous at heart and dexterous of hand, the third yajnic session and creation of soma replete with the jewel wealth of life’s essence which you have accomplished with your noble action, that nectar sweet of soma seasoned and reinforced is here for you. Drink it with the exciting pleasure of your senses, mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of the Enlighted are further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wisemen ! you always perform righteous deeds. Please accept this (Charu or Prasadada or leftover of the oblations). It has been well prepared for you tastefully with joy with prime object of “doing good deeds". Make this Brahmacharya of forty-eight years (maximum period prescribed for marriage) a store-house of good virtues like wisdom, truthfulness, purity and other means for the attainment of all kinds of wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! attain prosperity by acquiring knowledge in the first part of life, by discharging the duties of household life in the second part of life and dispensing justice etc. in the third part of life.

    Foot Notes

    (तृतीयम्) अष्टाचत्वारिशद्वर्षपरिमित सेवितं ब्रह्मचर्य्यम् । अथ यान्यष्टाचत्वारिंशद् वर्षाणि तृतीयं सवनं तदस्यादित्या अन्वः यक्षा: प्राणावावादित्याविद्या एते हीदं सर्वम् आददते (छान्दोग्योपनिषदि 3, 6, 5 ) = Brahmacharya observed up to the age of 48 years or more. (सवनम्) सकलैश्यर्य्यप्रापकम्। = Leading to the attainment of all kinds of wealth.

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