ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
अस्थु॑रु चि॒त्रा उ॒षसः॑ पु॒रस्ता॑न्मि॒ताइ॑व॒ स्वर॑वोऽध्व॒रेषु॑। व्यू॑ व्र॒जस्य॒ तम॑सो॒ द्वारो॒च्छन्ती॑रव्र॒ञ्छुच॑यः पाव॒काः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअस्थुः॑ । ऊँ॒ इति॑ । चि॒त्राः । उ॒षसः॑ । पु॒रस्ता॑त् । मि॒ताःऽइ॑व । स्वर॑वः । अ॒ध्व॒रेषु॑ । वि । ऊँ॒ इति॑ । व्र॒जस्य॑ । तम॑सः । द्वारा॑ । उ॒च्छन्तीः॑ । अ॒व्र॒न् । शुच॑यः । पाव॒काः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्थुरु चित्रा उषसः पुरस्तान्मिताइव स्वरवोऽध्वरेषु। व्यू व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचयः पावकाः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअस्थुः। ऊँ इति। चित्राः। उषसः। पुरस्तात्। मिताःऽइव। स्वरवः। अध्वरेषु। वि। ऊम् इति। व्रजस्य। तमसः। द्वारा। उच्छन्तीः। अव्रन्। शुचयः। पावकाः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्त्रीपुरुषविषयमाह ॥
अन्वयः
हे ब्रह्मचारिणो ! या उ अध्वरेषु शुचयः पावकाः स्वरवः पुरस्तान्मिता इवोषसो व्रजस्य तमसो द्वारा व्युच्छन्तीरिव चित्रा अस्थुस्ता उ विवाहायाव्रन् ॥२॥
पदार्थः
(अस्थुः) तिष्ठन्ति (उ) (चित्राः) विचित्रगुणकर्मस्वभावाः (उषसः) प्रभातवेला इव दुहितरः (पुरस्तात्) पूर्वस्मात् (मिताइव) विद्यया सकलपदार्थवेदित्र्य इव (स्वरवः) प्रतापयुक्ताः (अध्वरेषु) गृहाश्रमव्यवहाराऽनुष्ठानेषु (वि) (उ) (व्रजस्य) (तमसः) अन्धकारस्य (द्वारा) द्वाराणि (उच्छन्तीः) विवासयन्त्यः (अव्रन्) वृणुयुः (शुचयः) पवित्राः (पावकाः) पवित्रकर्मकर्त्र्यः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे ब्रह्मचारिणो ! या ब्रह्मचारिण्यो ! मेघस्वना मितभाषिण्यः पवित्रा विदुष्यः स्युस्ता एव पूर्वे सम्परीक्ष्य वोढव्याः ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब स्त्री पुरुष के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे ब्रह्मचारी जनो ! जो (उ) ही (अध्वरेषु) गृहाश्रम के व्यवहारों के अनुष्ठानों में (शुचयः) पवित्र (पावकः) पवित्र कर्म करनेवाली (स्वरवः) प्रताप से युक्त (पुरस्तात्) पूर्व से (मिताइव) विद्या से सम्पूर्ण पदार्थों को जानती सी हुईं (उषसः) प्रभात वेलाओं के सदृश कन्याएँ (व्रजस्य) प्राप्त (तमसः) अन्धकार के (द्वारा) द्वारों को (वि, उच्छन्तीः) विवास कराती हुईं सी (चित्राः) विचित्र गुण, कर्म, स्वभावयुक्त ब्रह्मचारिणी (अस्थुः) स्थित होती हैं (उ) उन्हीं को विवाह के लिये (अव्रन्) स्वीकार करो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे ब्रह्मचारी जनो ! जो ब्रह्मचारिणी मेघ के सदृश गम्भीर शब्दयुक्त, थोड़ा बोलनेवाली, पवित्र और विद्यायुक्त होवें, वही प्रथम उत्तम प्रकार परीक्षा करके विवाहने योग्य हैं ॥२॥
विषय
'दीप्त व पवित्र जीवन को बनानेवाली' उषाएँ
पदार्थ
[१] (उ) = निश्चय से (चित्रा:) = चायनीय पूजा के योग्य अथवा [चित्र] ज्ञान देनेवाली, प्रज्ञापक (उषस:) = उषाएँ (पुरस्तात्) = पूर्व दिशा में (अस्थुः) = स्थित हैं। उसी प्रकार (इव) = जैसे कि (अध्वरेषु) = यज्ञों में (मिताः स्वरवः) = निर्मित यज्ञस्तम्भ। जिस प्रकार उन यज्ञ-स्तम्भों की शोभा होती है, इसी प्रकार ये उषाएँ शोभावाली हैं। [२] ये उषाएँ (उ) = निश्चय से (व्रजस्य) = [वारकस्य] घेर लेनेवाले (तमसः) = अन्धकार के द्वारा द्वारों को, (वि उच्छन्तीः) = अन्धकारशून्य व प्रकाशमय करती हुईं, (अव्रन्) = खोल डालती हैं। अन्धकार को दूर करती हुई ये उषाएँ (शुचय:) = दीप्ति को प्राप्त करानेवाली हैं और (पावका:) = पवित्र करनेवाली हैं।
भावार्थ
भावार्थ– अन्धकार को दूर करती हुई उषाएँ हमारे जीवनों को दीप्स व पवित्र बनाती हैं।
विषय
उषावत् उनका वर्णन । पक्षान्तर में अध्यात्म वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार (अध्वरे) यज्ञ में (मिताः इव स्वरवः) गड़े हुए वा माप कर बनाये गये यूपांश स्थिर होते हैं और जिस प्रकार (अध्वरेषु) यज्ञों के निमित्त (स्वरवः) अति तेज से युक्त (मिताः इव) परिमित काल तक स्थिर (चित्राः उषसः) अद्भुत, सुन्दर उषाएं (पुरस्तात्) पूर्व दिशा में (अस्थुः) प्रकट होती हैं और वे (शुचयः) शुद्ध, (पावकाः) पवित्र होकर (व्रजस्य तमसः द्वारा उच्छन्तीः) वर्जनेयोग्य रात्रि के अन्धकार वा अन्धकार से ढंके गृह के द्वारों को प्रकट करती हुई (वि अव्रन्) व्याप लेती हैं उसी प्रकार (चित्राः) अद्भुत रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और उत्तम आभूषण, वस्त्रादि से सुन्दर, चित्र विचित्र, (उषसः) कान्ति, कामना से युक्त कमनीय, (पुरस्तात्) आगे (मिताः इव) विद्या से ज्ञानयुक्त, (स्वरवः) उत्तम तेजस्विनी, विदुषी कन्याएं (अध्वरेषु) हिंसा से रहित, श्रेष्ठ यज्ञों में (व्रजस्य तमसः उच्छन्तीः) गृह के अन्धकारयुक्त द्वारों को प्रकाशित करती हुईं (शुचयः) शुद्ध स्वच्छाचारवाली, (पावकाः) पवित्र एवं शोधक यज्ञ अग्नि, आर्त्तवादि से शुद्ध होकर (वि अव्रन्) विशेष रूप से पति का वरण करें। और हे ब्रह्मचारी तुम भी ऐसी ही कमनीय कन्याओं का वरण किया करो । (२) वेदवाणियों के पक्ष में—वेदवाणियां पूज्य होने से चित्र हैं, स्वयंप्रकाश एवं शब्दमय होने से ‘स्वरु’ हैं । ‘व्रज’ अर्थात् ज्ञान और कर्ममय मार्गों वा द्वारों को प्रकाशित करती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः–१, ५, ८ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। १० भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे ब्रह्मचाऱ्यांनो! ज्या ब्रह्मचारिणी मेघाप्रमाणे गंभीर बोलणाऱ्या, मितभाषी, पवित्र व विद्यायुक्त असतील त्यांचीच उत्तम प्रकारे परीक्षा करून विवाह करावा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The lights of the dawn, various wondrous, shine magnificent in the east like daughters of omniscience, bright and bold like flag posts of yajnas of the day, pure and purifying as flames of fire, opening the doors of light from the deep folds of the night’s darkness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the men and women are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Brahmacharis ! you should choose for marriage those girls who are expert in the discharge of domestic duties, do pure actions, know the properties of all things through the knowledge, and dispel the darkness like dawns and are endowed with wonderful merits, actions and temperament.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O Brahmacharis ! you should marry after properly verifying about those Brahmacharinis whose voice is like the clouds, are mighty, speak only when and what is necessary, (speaking little or selective words) are pure and highly learned.
Foot Notes
(मित: इव) विद्यया सकल पदार्थवेदित्य इव । माङ-माने शब्दे च । = Knowing the properties of all things through knowledge. (अध्वरेषु) गृहाश्रमव्यवहाराऽनुष्ठानेषु = In the discharge of domestic duties. (स्वरवः) प्रतापयुक्ताः । स्वृ-शब्दोपतापयोः (भ्वा० ) । = Powerful, mighty.
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