ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 51/ मन्त्र 9
ता इन्न्वे॒३॒॑व स॑म॒ना स॑मा॒नीरमी॑तवर्णा उ॒षस॑श्चरन्ति। गूह॑न्ती॒रभ्व॒मसि॑तं॒ रुश॑द्भिः शु॒क्रास्त॒नूभिः॒ शुच॑यो रुचा॒नाः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठताः । इत् । नु । ए॒व । स॒म॒ना । स॒मा॒नीः । अमी॑तऽवर्णाः । उ॒षसः॑ । च॒र॒न्ति॒ । गूह॑न्तीः । अभ्व॑म् । असि॑तम् । रुश॑त्ऽभिः । शु॒क्राः । त॒नूभिः॑ । शुच॑यः । रु॒चा॒नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता इन्न्वे३व समना समानीरमीतवर्णा उषसश्चरन्ति। गूहन्तीरभ्वमसितं रुशद्भिः शुक्रास्तनूभिः शुचयो रुचानाः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठताः। इत्। नु। एव। समना। समानीः। अमीतऽवर्णाः। उषसः। चरन्ति। गूहन्तीः। अभ्वम्। असितम्। रुशत्ऽभिः। शुक्राः। तनूभिः। शुचयः। रुचानाः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 51; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ स्त्रीभ्य उपदेशविषयमाह ॥
अन्वयः
हे स्त्रियो ! या अमीतवर्णाः समना समानी रुशद्भिरभ्वमसितं गूहन्तीस्तनूभिः शुक्राः शुचयो रुचाना उषसश्चरन्ति ता इन्न्वेव यथा सुखं प्रयच्छन्ति तथैव सर्वान्त्सुखयत ॥९॥
पदार्थः
(ताः) (इत्) एव (नु) सद्यः (एव) (समना) समानाः (समानीः) (अमीतवर्णाः) अहिंसितवर्णाः (उषसः) प्रभातवेला इव (चरन्ति) (गूहन्तीः) संवृण्वत्यः (अभ्वम्) महान्तम् (असितम्) निकृष्टवर्णन्तमः (रुशद्भिः) हिंसकैर्गुणैः (शुक्राः) प्रदीप्ताः (तनूभिः) विस्तृतशरीरैः (शुचयः) पवित्राः (रुचानाः) रुचिकर्य्यः ॥९॥
भावार्थः
याः स्त्रिय उषर्वद् दुःखध्वंसिका सुखजनित्र्यः स्युस्ता एवाऽऽह्वादिका भवेयुः ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब स्त्रियों के लिये उपदेशविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे स्त्रियो ! जो (अमीतवर्णाः) विद्यमान वर्णवाली (समना) तुल्य (समानीः) तुल्यविचारशील (रुशद्भिः) नाश करनेवाले गुणों से (अभ्वम्) बड़े (असितम्) निकृष्ट वर्णवाले अन्धकार को (गूहन्तीः) ढाँपती हुई (तनूभिः) विस्तृत शरीरों से (शुक्राः) कान्तिमती और (शुचयः) पवित्र (रुचानाः) प्रीति करनेवाली (उषसः) प्रभातवेलाओं के सदृश (चरन्ति) चलती हैं (ताः) वे (इत्) ही (नु) शीघ्र (एव) ही जैसे सुख देती हैं, वैसे सब को सुखी करो ॥९॥
भावार्थ
जो स्त्रियाँ प्रातर्वेला के सदृश दुःख को नाश करनेवाली और सुख को उत्पन्न करनेवाली हों, वे ही आनन्द देनेवाली होवें ॥९॥
विषय
शक्तिसम्पन्न, पवित्र व दीप्त ज्ञान
पदार्थ
[१] (ता:) = वे (एव) = ही (इत् नु) = निश्चय से अब (समना) = सम्यक् प्राणित करनेवाली (समानी:) = समान रूप से चली आ रही (अमीतवर्णाः) = अहिंसित वर्णवाली-तेजस्वी (उषसः) = उषाएँ (चरन्ति) = गतिवाली होती हैं। [२] (अभ्वम्) = महान् (असितम्) = कृष्णवर्ण-रात्रि के अन्धकार को (रुशद्भिः) = चमकते हुए अपने प्रकाशों से (गूहन्ती:) = अपने अन्दर छिपाती हुई, (तनूभिः शुक्रा:) = अपने शरीरों से [शुक्रम्-वीर्यम्] शक्ति-सम्पन्न, (शुचय:) = पवित्र व (रुचाना:) = दीप्तिवाली हैं। वस्तुतः ये उषाएँ हमें शरीर में [शुक्र] वीर्य सम्पन्न, मन में [शुचि] पवित्र तथा मस्तिष्क में [रुच दीप्तौ] दीप्त ज्ञानवाला बनाती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ– उषाएँ अन्धकार को दूर करनेवाली हैं। इनमें जागनेवाला पुरुष शक्ति-सम्पन्न, पवित्र व दीप्त ज्ञानवाला बनता है।
विषय
उषावत् उनका वर्णन । पक्षान्तर में अध्यात्म वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार (उषसः समानीः अमीतवर्णाः समना चरन्ति) उषाएं एक रूप से अपने रूप रंग का नाश न करती हुईं एक समान आगे बढ़ती हैं । और (रुशद्भिः रुचानाः शुचयः शुक्राः अभ्वं असिते गृहन्तीः) दीप्तियों से चमकती हुईं स्वयं उज्ज्वल शुद्ध रूप से रात्रि के कृष्ण अन्धकार के साथ मानों आलिंगन करती हैं उसी प्रकार (ताः) वे (समना) स्त्रियां अपने पतियों के साथ समान चित्तवाली (समानीः) पतियों के समान गुण, रूप, मान आदर से युक्त, (अमीत-वर्णाः) अपने वर्ण धर्म का लोप न करने वाली (उषसः) कान्ति युक्त और पतियों की हृदय से कामना करने वाली, (शुचयः) शुद्ध चरित्र, (रुशद्भिः) कामना और कान्ति से युक्त, उज्ज्वल (तनूभिः) देहों से (रुचानाः) अन्यों को रुचि कर वा मनोहर प्रतीत होती हुई (असितं) अन्य से बंधे हुए, अपने से एक मात्र सम्बन्ध (अभ्वम्) एवं विद्या, कुल, गुण और बल में बड़े आदरणीय पति को (गूहन्तीः) अंगीकार करती हुईं (चरन्ति) सदाचार से वर्त्ते (ताः इत् नु) उनको ही विवाह में ग्रहण करें। (२) वेदवाणियों के पक्ष में—वे सब को, समान रूप से ज्ञान देने से ‘समना’ हैं, शुद्ध पवित्र हैं, उत्तम यज्ञों से स्वयं (शुक्राः) प्रापक शुक्ल, शुद्ध रूप है। जिनमें अज्ञानियों की कृति नहीं मिल पाई। वे (अमीतवर्णाः) अनश्वर अक्षर संन्निवेश वाली, निव्य हैं, वे (असितं अभ्वं) बन्धनरहित महान् परमेश्वर को अपने उज्ज्वल रूपों से बतलाती हुईं (चरन्ति) गुरु से शिष्य को प्राप्त होती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः–१, ५, ८ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। १० भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या स्त्रिया उषेप्रमाणे दुःखाचा नाश करणाऱ्या व सुख उत्पन्न करणाऱ्या असतील त्याच आनंद देणाऱ्या असतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Thus do the dawns, equal, alike, unobstructed and inviolable, radiate and roam around, covering the vast spatial darkness with light and vesting things with beautiful forms of their own by their catalytic rays of light and blaze, penetrating, pure, purifying, beautiful and edifying.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Some teachings for the women are given.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O women ! like the dawns whose hue has not been obliterated, are all identical of similar form, pure, bright and illumining. Concealing their dark destroying attributes, they proceed at great speed and give happiness to all. In the same manner, you should make all beings happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those women only are bestowers of delight who destroy the miseries like the dawns and generate happiness.
Foot Notes
(अमीतवर्णाः) अहिंसितवर्णाः । = Whose hue has not been obliterated. (अभ्वम् ) महान्तम् । अभ्व इति महन्नाम (NG 3, 3)। = Great. (रुशद्भिः) हिंसकैगुर्णै: । = With dark destroying attributes.
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