ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 51/ मन्त्र 8
ता आ च॑रन्ति सम॒ना पु॒रस्ता॑त्समा॒नतः॑ सम॒ना प॑प्रथा॒नाः। ऋ॒तस्य॑ दे॒वीः सद॑सो बुधा॒ना गवां॒ न सर्गा॑ उ॒षसो॑ जरन्ते ॥८॥
स्वर सहित पद पाठताः । आ । च॒र॒न्ति॒ । स॒म॒ना । पु॒रस्ता॑त् । स॒मा॒नतः॑ । स॒म॒ना । प॒प्र॒था॒नाः । ऋ॒तस्य॑ । दे॒वीः । सद॑सः । बु॒धा॒नाः । गवा॑म् । न । सर्गाः॑ । उ॒षसः॑ । ज॒र॒न्ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ता आ चरन्ति समना पुरस्तात्समानतः समना पप्रथानाः। ऋतस्य देवीः सदसो बुधाना गवां न सर्गा उषसो जरन्ते ॥८॥
स्वर रहित पद पाठताः। आ। चरन्ति। समना। पुरस्तात्। समानतः। समना। पप्रथानाः। ऋतस्य। देवीः। सदसः। बुधानाः। गवाम्। न। सर्गाः। उषसः। जरन्ते ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 51; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! या पुरस्तात् कृतब्रह्मचर्य्यपरीक्षाः समानतः समना ऋतस्य देवीः पप्रथानाः सदसो बुधाना उषसः समना गवां सर्गा ना चरन्ति जरन्ते ता उपयच्छन्तु ॥८॥
पदार्थः
(ता) (आ) (चरन्ति) (समना) समानाः। अत्र सुपां सुलुगिति जसो लुक्। (पुरस्तात्) (समानतः) सदृशेभ्यः पतिभ्यः (समना) समानगुणकर्मस्वभावाः (पप्रथानाः) विस्तीर्णविद्यासौन्दर्यादिगुणाः (ऋतस्य) सत्यस्य (देवीः) विदुष्यः (सदसः) सभ्यान् (बुधानाः) प्रबोधयन्त्यः (गवाम्) (न) इव (सर्गाः) उत्पद्यमानाः (उषसः) प्रातर्वेलाः (जरन्ते) स्तुवन्ति ॥८॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! गृहीतशिक्षा रूपलावण्यादिशुभगुणाढ्या विदुष्यो ब्रह्मचारिण्यः स्युस्ता एव यथायोग्यं विवहन्तु ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (पुरस्तात्) पुरस्तात् कृत ब्रह्मचर्य्य परीक्षा अर्थात् प्रथम ब्रह्मचर्य्य की परीक्षा जिनकी की गयी ऐसी (समानतः) सदृश पतियों से (समना) तुल्य गुण, कर्म और स्वभाववाली (ऋतस्य) सत्य की (देवीः) जाननेवाली पण्डिता (पप्रथानाः) विस्तीर्ण विद्या और सौन्दर्य्य आदि गुणयुक्त कन्या (सदसः) श्रेष्ठ पुरुषों को (बुधानाः) ज्ञान से जगाती (उषसः) प्रातर्वेलाओं के (समना) समान और (गवाम्) गौओं के (सर्गाः) उत्पन्न हुए वृन्दों के (न) समान (आ, चरन्ति) आचरण करती और (जरन्ते) स्तुति करती हैं (ताः) उनको विवाहो ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो शिक्षा को ग्रहण किये हुए, रूप और कान्ति आदि उत्तम गुणों से युक्त, विदुषी, ब्रह्मचारिणी कन्या होवें उन्हीं को यथायोग्य विवाहो ॥८॥
विषय
'यज्ञ, स्वाध्याय व स्तवन' वाली उषाएँ
पदार्थ
[१] (ता:) = वे उषाएँ (समना) = [सं अन् प्राणने] सम्यक् प्राणित करनेवाली (पुरस्तात्) = पूर्व दिशा में (आचरन्ति) = गतिवाली होती हैं। ये उषाएँ (समानतः) = समानरूप से सब को (समना) = प्राणित करनेवाली (पप्रथाना:) = विस्तृत हो रही हैं। उषाकाल के वायुओं में ओजोन गैस प्रचुर मात्रा में होती है। वहीं प्राणित करने का साधन बनती है। [२] ये (देवी: उषसः) = दिव्य [प्रकाशमय] उषाएँ (ऋतस्य सदसः) = यज्ञों के स्थानों का बोध कराती हुई, (गवां सर्गाः न) = प्रकाशरश्मियों की सृष्टियों के समान (जरन्ते) = स्तुत होती हैं, अर्थात् इन उषाओं में भद्र लोग यज्ञ करते हैं, स्वाध्याय द्वारा ज्ञानरश्मियों को उत्पन्न करते हैं और स्तवन में प्रवृत्त होते हैं। उषाकाल के मुख्य कार्य 'यज्ञ, स्वाध्याय व प्रभुस्तवन' ही हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- उषाकाल का वायु स्वास्थ्यवर्धक है। इन उषाओं में प्रबुद्ध होकर हम यज्ञ, स्वाध्याय व स्तवन- स्तुति आदि पवित्र कार्यों में प्रवृत्त हों।
विषय
उषावत् उनका वर्णन । पक्षान्तर में अध्यात्म वर्णन ।
भावार्थ
(देवीः उषसः गवां सर्गाः न सदसः बुधानाः) तेज युक्त जगत् की प्रकाशक उषाएं गौओं अर्थात् रश्मियों की बनी हुई, गृहों को चमकाती हुई (ऋतस्य जरन्ते) सत्य प्रकाशमान सूर्य की कथा कहती हैं, (समना) एक साथ मिलकर आगे (पुरस्तात् आ चरन्ति) पूर्व दिशा में फैलती हैं उसी प्रकार (ताः) वे (उषसः) कमनीय, सुन्दर, उत्तम कामना वाली स्त्रियां (पुरस्तात्) सबके समक्ष (समना) एक चित्त होकर (समानतः) अपने समान गुण वाले पुरुषों से (समना) संगत एवं समानयुक्त होकर (पप्रथानाः) अपने उत्तम गुण, रूप, वैभव और प्रजाओं का विस्तार करती हुई, (देवीः) उत्तम स्त्रियें (सदसः बुधानाः) उपस्थित सभ्यजनों को सम्बोधन करती हुई (गवां सर्गाः न) उस समय प्रतिज्ञावाणियों को उत्पन्न करने वाले उत्तम वक्ताओं के तुल्य (ऋतस्य जरन्ते) सत्य प्रतिज्ञावचन युक्त वेद मन्त्रों का (गवां सर्गाः न) वाणियों के उत्पादक विद्वानों के तुल्य ही (जरन्ते) उच्चारण करें । ऐसी ज्ञान वाली, उदात्त गुणवती कन्याओं से विवाह करें। (२) वेदवाणियां भी ज्ञानवती होने से ‘स-मना’ हैं । वे प्रथम गुरु के समीप स्थित शिष्यों को ज्ञान का बोध कराती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः–१, ५, ८ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। १० भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! सुशिक्षित रूपवान, कांतिमान, शुभगुणयुक्त विदुषी ब्रह्मचारिणी कन्येबरोबरच विवाह करावा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
They are the celestial lights of Divinity, part of cosmic dynamics, waking up the homesteads to activity and proceeding like streams of cows going to the pastures. Thus do the dawns arise, radiate, wake up life and celebrate the Divine. They rise and act the same way in the east since eternity, radiate equally the same way, illuminating the same way, eternal, ever new, old yet ever young.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of people are listed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should marry those girls who have observed Brahmacharya and have stood the tests, and are matching with their husbands, in merits, actions and temperament. They are illuminators of truth, possessors of the vast knowledge and beauty, enlighten even the civilized persons like the dawns, are matching like the calves are with the cows.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should suitably marry those highly learned Brahmacharinis who are endowed with beauty and good virtues.
Foot Notes
(समना ) समाना: गुणकर्मस्वभावाः । अत्र सुप सुलुगिति जसो लुक् । = Endowed with similar merits, actions and temperament. (सदसः ) सभ्यान् । = Civilized persons. (पप्रथाना:) विस्तीर्णविद्यासौन्दर्यादिगुणाः । = Possessing vast knowledge, beauty and other virtues.
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