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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 51/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - उषाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यू॒यं हि दे॑वीर्ऋत॒युग्भि॒रश्वैः॑ परिप्रया॒थ भुव॑नानि स॒द्यः। प्र॒बो॒धय॑न्तीरुषसः स॒सन्तं॑ द्वि॒पाच्चतु॑ष्पाच्च॒रथा॑य जी॒वम् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । हि । दे॒वीः॒ । ऋ॒त॒युक्ऽभिः॑ । अश्वैः॑ । प॒रि॒ऽप्र॒या॒थ । भुव॑नानि । स॒द्यः । प्र॒ऽबो॒धय॑न्तीः । उ॒ष॒सः॒ । स॒सन्त॑म् । द्वि॒ऽपात् । चतुः॑ऽपात् । च॒रथा॑य । जी॒वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयं हि देवीर्ऋतयुग्भिरश्वैः परिप्रयाथ भुवनानि सद्यः। प्रबोधयन्तीरुषसः ससन्तं द्विपाच्चतुष्पाच्चरथाय जीवम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम्। हि। देवीः। ऋतयुक्ऽभिः। अश्वैः। परिऽप्रयाथ। भुवनानि। सद्यः। प्रऽबोधयन्तीः। उषसः। ससन्तम्। द्विऽपात्। चतुःपात्। चरथाय। जीवम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 51; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे नरा ! यूयं यथा चरथाय ससन्तं जीवं प्रबोधयन्तीरुषसो द्विपाच्चतुष्पाद्वत्सद्यो भुवनानि गच्छन्ति तथा ह्यृतयुग्भिरश्वैर्देवीः स्त्रियः परिप्रयाथ ॥५॥

    पदार्थः

    (यूयम्) (हि) (देवीः) दिव्यगुणकर्मस्वभावाः (ऋतयुग्भिः) य ऋतेन सत्येन युञ्जते तैः (अश्वैः) महाबलिष्ठैः पुरुषार्थयुक्तैः (परिप्रयाथ) सर्वतः प्राप्नुयात् (भुवनानि) लोकलोकान्तराणि (सद्यः) शीघ्रम् (प्रबोधयन्तीः) जागरयन्त्यः (उषसः) (ससन्तम्) शयानम् (द्विपात्) द्वौ पादौ यस्य स मनुष्यादिः (चतुष्पात्) चत्वारः पादा यस्य स गवादिः (चरथाय) (जीवम्) प्राणधारिणम् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये शुभगुणान्विता विदुषीर्हृद्याः स्वसदृशीर्भार्याः प्राप्नुवन्ति ते सदैवोषर्वत्प्रकाशमानाः सर्वेषां ज्ञापका भवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग जैसे (चरथाय) भ्रमण के लिये (ससन्तम्) शयन करते हुए (जीवम्) प्राणधारी को (प्रबोधयन्तीः) जगाती हुई (उषसः) प्रातर्वेला (द्विपात्) दो पादवाले मनुष्य आदि और (चतुष्पात्) चार पैरवाली गौ आदि के सदृश (सद्यः) शीघ्र (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को प्राप्त होती हैं, वैसे (हि) ही (ऋतयुग्भिः) सत्य से युक्त (अश्वैः) बड़े बलिष्ठ और पुरुषार्थियों के साथ (देवीः) दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव युक्त स्त्रियों को (परिप्रयाथ) सब ओर से प्राप्त होओ ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन उत्तम गुणों से युक्त, विदुषी, सुन्दर, अपने सदृश स्त्रियों को प्राप्त होते हैं वे सदा ही प्रातःकाल के सदृश प्रकाशमान और सब के बोधक होते हैं ॥५॥

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    विषय

    गतिशीलता की प्रेरिका उषाएँ

    पदार्थ

    [१] हे (उषस:) = उषाओ ! (यूयम्) = तुम (हि) = निश्चय से (देवी:) = प्रकाशमयी हो । (ऋतयुग्भिः) = ऋत के साथ जो भी ठीक है, उसके साथ मेलवाले (अश्वैः) = इन इन्द्रियाश्वों द्वारा (सद्यः) = शीघ्र ही (भुवनानि) = सब लोकों में (परिप्रयाथ) = चारों ओर आती हो। ये उषाएँ सब प्राणियों को प्राप्त हों प्रत्येक ऋतु में प्रवृत्त होनेवाले इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराती हैं। सामान्यतः उषा में जगनेवाले लोग यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। [२] ये (उषस:) = उषाएँ (ससन्तम्) = सोये हुए (द्विपात् चतुष्पात्) = दोपाये व चौपाये (जीवम्) = सब जीवों को (चरथाय) = गतिशील होने के लिए अपने अपने कार्यों में लगने के लिए (प्रबोधयन्तीः) = प्रबुद्ध करती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषाएँ जगाती हैं। गतिशील बनने के लिए प्रेरित करती हैं। हमारे इन्द्रियाश्वों को ऋत [यज्ञ] की ओर ले जाती हैं ।

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    विषय

    उषावत् उनका वर्णन । पक्षान्तर में अध्यात्म वर्णन ।

    भावार्थ

    (देवीः उषसः ससन्तं जीवं प्रबोधयन्तीः यथा ऋतयुग्भिः अश्वैः भुवनानि परि प्रयान्ति) जिस प्रकार प्रकाश से युक्त प्रभात बेलाएं सोते हुए जीव गण को जगाती हुई तेजयुक्त किरणों से समस्त लोकों में दूर २ तक चली जाती हैं उसी प्रकार हे (उषसः देवः) पति आदि की कामना करने वाली देवियो ! गृह-पत्नियो ! (यूयं) आप लोग भी (ऋतयुग्भिः-अश्वः) वेगयुक्त अश्वों से दूर २ के स्थानों तक, (ऋतयुग्भिः अश्वैः) सत्य मार्ग से युक्त भोक्ता या उत्तम गुणों से युक्त अश्ववत् बलवान् पति जनों से युक्त होकर (सद्यः) शीघ्र ही (भुवनानि) उत्तम २ गृहों को (परि प्रयाथ) प्राप्त होवो । वहां (उषसः) प्रभात वेलाओं के समान ही (द्विपात्) दोपाये, भृत्यों और बन्धुजनों तथा (चतुष्पात्) चौपाये गौ आदि पशु (ससन्तं) सोते हुए (जीवं) जीवगण को (चरथाय) कर्म करने के लिये (प्र-बोधयन्तीः) जगाती रहो। इसी प्रकार हे पुरुषो ! तुम भी (ऋतयुग्भिः अश्वैः) बलयुक्त अंगों से युक्त होकर (देवीः परिप्रयाथ) उत्तम कामना युक्त स्त्रियों को प्राप्त करो । (२) वेदवाणियां ऋतयुग् अश्व, अर्थात् सत्य में समाहित चित्त वाले विद्याव्याप्त विद्वान् द्वारा सर्वत्र फैलाई जाती हैं। सोते हुए अज्ञानी जनों को उत्तम बोध देती हैं । इति प्रथमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः–१, ५, ८ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। १० भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपलंकार आहे. जे लोक शुभ गुणांनी युक्त विदुषी, सुंदर आपल्यासारख्याच स्त्रियांशी लग्न करतात ते नेहमी उषेप्रमाणे प्रकाशमान सर्वांचे ज्ञापक (बोधक) असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O divine lights of dawn, you always move over and across regions of the world by the rays of light travelling by the straight paths of truth and natural law across the oceans of space, waking up and inspiring the sleeping world of life, humans and animals, to rise and move for the day’s activity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of people are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the dawns awake the sleeping beings whether they are bipeds or quadrupeds prompting them to peruse their activities, and go to distant worlds. In the same manner, you should go to women, who are endowed with the divine merits, actions and temperament, along with truthful mighty and industrious persons and speedy horses,

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The men endowed with noble virtues, get matching noble women. They should be learned and beloved and shine for ever like the dawns, and enlighten all.

    Foot Notes

    (ऋतयुग्भिः) य ऋतेन सत्येन तै:। ऋतमिति सत्यनाम (NG 3, 10)। = Truthful. (अश्वै:) महाबलिष्ठः पुरुषावयुक्तै: । वीर्य वा अश्वः (Stph 2, 1, 4, 23, 24 ) यजमानो वा अश्वः (Taittiriya. 3, 9, 17, 4, 5) = Very mighty and industrious persons or speedy horses. (ससन्तम्) शयानम् । = Sleeping.

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