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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गातुरात्रेयः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न्य॑स्मै दे॒वी स्वधि॑तिर्जिहीत॒ इन्द्रा॑य गा॒तुरु॑श॒तीव॑ येमे। सं यदोजो॑ यु॒वते॒ विश्व॑माभि॒रनु॑ स्व॒धाव्ने॑ क्षि॒तयो॑ नमन्त ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । अ॒स्मै॒ । दे॒वी । स्वऽधि॑तिः । जि॒ही॒ते॒ । इन्द्रा॑य । गा॒तुः । उ॒श॒तीऽइ॑व । ये॒मे॒ । सम् । यत् । ओजः॑ । यु॒वते॑ । विश्व॑म् । आ॒भिः॒ । अनु॑ । स्व॒धाऽव्ने॑ । क्षि॒तयः॑ । न॒म॒न्त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्यस्मै देवी स्वधितिर्जिहीत इन्द्राय गातुरुशतीव येमे। सं यदोजो युवते विश्वमाभिरनु स्वधाव्ने क्षितयो नमन्त ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। अस्मै। देवी। स्वऽधितिः। जिहीते। इन्द्राय। गातुः। उशतीऽइव। येमे। सम्। यत्। ओजः। युवते। विश्वम्। आभिः। अनु। स्वधाऽव्ने। क्षितयः। नमन्त ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे युवते ! स्वधितिरिव देवी त्वमस्मा इन्द्राय गातुरिवोशतीव इमे यदोजः सङ्गृह्य सन्नि येमे। आभिः स्वधाव्ने विश्वमनु जिहीते यथा वा क्षितयो नमन्त तथा त्वं भव ॥१०॥

    पदार्थः

    (नि) (अस्मै) (देवी) (स्वधितिः) वज्र इव (जिहीते) गमयेते (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (गातुः) भूमिः (उशतीव) कामयमाना स्त्रीव (येमे) (सम्) (यत्) यथा (ओजः) वीर्य्यम् (युवते) प्राप्तयुवावस्थे (विश्वम्) सर्वम् (आभिः) क्रियाभिः (अनु) (स्वधाव्ने) यः स्वं दधाति तस्मै (क्षितयः) मनुष्याः (नमन्त) नमन्ति ॥१०॥

    भावार्थः

    यथा कृतब्रह्मचर्य्या ब्रह्मचारिणी पूर्णचतुर्विंशतिवर्षा पतिं कामयमाना सदृशं हृद्यं स्वामिनं गृह्णाति तथैव विद्युदादिरूपोऽग्निः सर्वं विश्वं धरति यथा गुणवतो जनान् मनुष्या नमन्ति तथैव सुलक्षणौ स्त्रीपुरुषौ सर्वे जना नमन्ति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (युवते) युवावस्था को प्राप्त हुई (स्वधितिः) वज्र के सदृश (देवी) विदुषी तुम (अस्मै) इस (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये यह दो स्त्रियाँ (गातुः) भूमि और (उशतीव) कामना करती हुई स्त्री के समान (यत्) जैसे (ओजः) वीर्य को उत्तम प्रकार ग्रहण करके (सम्, नि, येमे) अच्छे प्रकार नियम में रखती और (आभिः) इन क्रियाओं से (स्वधाव्ने) धन को धारण करनेवाले के लिये (विश्वम्) समस्त व्यवहार को (अनु, जिहीते) अनुकूल चलाती हैं तथा जैसे (क्षितयः) मनुष्य (नमन्त) नम्र होते हैं, वैसे आप होइये ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे बह्मचर्य्य को धारण को हुई ब्रह्मचारिणी कन्या पूर्ण चौबीस वर्ष की अवस्था से युक्त हुई पति की कामना करती हुई गुण, कर्म्म और स्वभाव के सदृश और प्रिय स्वामी का ग्रहण करती है, वैसे ही बिजुली आदि रूप अग्नि सम्पूर्ण संसार को धारण करता है और जैसे गुणवान् जनों को मनुष्य नमते हैं, वैसे ही उत्तम लक्षणों से युक्त स्त्री-पुरुषों को सम्पूर्ण जन नमते हैं ॥१०॥

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    विषय

    स्त्रीवत् भूमिका पालन ।

    भावार्थ

    भा०– (युबते इन्द्राय, स्वधाव्ने उशती इत्र येमे ) जिस प्रकार युवा ऐश्वर्य युक्त, अन्नादि समृद्धि, धनैश्वर्य और अपने शरीर को धारण पालन करने के सामर्थ्य से युक्त पुरुष के लिये कामना करती हुई स्त्री उससे विवाह कर लेती है, उसी प्रकार ( अस्मै ) इस ( इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता, ( युवते ) युवावस्थापन्न, वा ( युवते ) सत्य असत्य का विवेक करने वाले ( स्वधाव्ने ) अन्न और ऐश्वर्य के स्वामी इस राजा के लिये ( स्वधितिः देवी ) अपने 'स्व' को धारण करने वाली शस्त्र शक्ति, और ( गातुः) गमन करने योग्य भूमि, दोनों (नि जिहीते ) विनीत होकर प्राप्त होतीं और (येमे ) उसको स्वस्वामिभाव सम्बन्ध से बांध लेती अर्थात् उसे अपना स्वामी बना लेती हैं और आप उसकी पत्नी के समान भोग्य होकर उसके अधीन रहती हैं । (यत्) जब उसका ( ओजः ) बल पराक्रम ( आभिः ) इन प्रजाओं के साथ ( सं येमे ) उनको अच्छी प्रकार बांध लेता है तब (अनु) उसके अनुकुल होकर ( क्षितयः सं नवन्त ) समस्त भूमि निवासी मनुष्य उसके आगे झुकते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सब प्रभु के प्रति प्रणत होते हैं

    पदार्थ

    १. आकाश में सारे पदार्थ व लोक-लोकान्तर धारित हो रहे हैं- आकाश 'स्वधिति' हैस्वयं अपना धारण करनेवाला है। यह (देवी) = दिव्य-प्रकाशमय- (स्वधितिः) = स्वयं अपने को धारण करनेवाला आकाश (अस्मै इन्द्राय) = इस सर्वशक्तिमान् प्रभु के लिए (निजिहीते) = प्रणत होकर गतिवाला हो रहा है । यह आकाश प्रभु के प्रति प्रणत होता है । (गातुः) = यह गमनशील पृथिवी भी (उशती इव) = कामना करती हुई पत्नी के समान (येमे) = अपने को दे डालती हैं— उसी के प्रशासन में चलती है। २. (यद्) = जब वे प्रभु (अभिः) = इन द्यावापृथिवी में निवास करनेवाली प्रजाओं के साथ (विश्वम् ओजः) = सब बलों को संयुवते मिलाते हैं तो उस समय (क्षितयः) = सब मनुष्य (स्वधाव्ने) = उस शक्तिवाले प्रभु के लिए (अनुनमन्त) = अनुकूलता से नतमस्तक होते हैं। प्रभु ही बल प्राप्त कराते हैं - सभी अन्ततः इस बल के स्वामी प्रभु के प्रति प्रणत होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सब द्यावापृथिवी- व उनमें रहनेवाले मनुष्य प्रभु से ही बल को प्राप्त करते हैं । सो वे प्रभु के प्रति प्रणत होते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी ब्रह्मचर्य धारण करणारी ब्रह्मणचारिणी कन्या पूर्ण चोवीस वर्षांची झाल्यावर पतीची कामना करून गुण, कर्म स्वभावानुसार प्रिय पती निवडते. तसेच विद्युतरूपी अग्नी संपूर्ण जग धारण करतो व जसे गुणवान लोकांसमोर माणसे नम्र होतात तसेच उत्तम लक्षणांनी युक्त स्त्री-पुरुषांसमोर संपूर्ण लोक नम्र होतात. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    To this Indra, cosmic energy and the earth, both divine, submit in love and obedience like a maiden in love submitting herself to her lover. When Indra radiates the cosmic splendour and power with these natural phenomena, then the entire humanity and all stars and planets do homage to the divine and self-refulgent omnipotence of Indra with these acts of obedience to the law.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the learned persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O young woman ! you are giver of joy, learned and powerful like the thunderbolt, yourself is in control for the sake of prosperity, like the earth and the woman desiring happiness who receives the semen and duly keeps it in herself (won in) till the time of delivery. Such a noble woman conducts herself in accordance with the wishes of her husband who is the upholder of wealth and food grains. All persons bow before a noble upholder of power and wealth. So, you should also be endowed with noble virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a girl who has observed Brahmacharya for twenty-four years and who desires a husband accepts a person who is matching with and loving to her, in the same manner, Agni in the form of fire, electricity, and sun upholds the whole world. As men bow before the virtuous persons, so all bow before noble men and husbands and wives who are endowed with noble virtues.

    Foot Notes

    (गातु:) भूमिः। गतुरीति पर्थिवीनाम (NG 1, 1)। = Earth. (उशतीव) कामयामाना स्त्रीव। = A woman desiring a husband. (स्वधान्वे) यः स्वं दधाति तस्मै। = for one who upholds power and wealth etc. (क्षितयः) मनुष्याः । क्षितयः इति मनुष्यनाम (NG 2, 3)। = Men.

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