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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गातुरात्रेयः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उद्यदिन्द्रो॑ मह॒ते दा॑न॒वाय॒ वध॒र्यमि॑ष्ट॒ सहो॒ अप्र॑तीतम्। यदीं॒ वज्र॑स्य॒ प्रभृ॑तौ द॒दाभ॒ विश्व॑स्य ज॒न्तोर॑ध॒मं च॑कार ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । यत् । इन्द्रः॑ । म॒ह॒ते । दा॒न॒वाय॑ । व॒धः॒ । यमि॑ष्ट । सहः॑ । अप्र॑तिऽइतम् । यत् । ई॒म् । वज्र॑स्य । प्रऽभृ॑तौ । द॒दाभ॑ । विश्व॑स्य । ज॒न्तोः । अ॒ध॒मम् । च॒का॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्यदिन्द्रो महते दानवाय वधर्यमिष्ट सहो अप्रतीतम्। यदीं वज्रस्य प्रभृतौ ददाभ विश्वस्य जन्तोरधमं चकार ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। यत्। इन्द्रः। महते। दानवाय। वधः। यमिष्ट। सहः। अप्रतिऽइतम्। यत्। ईम्। वज्रस्य। प्रऽभृतौ। ददाभ। विश्वस्य। जन्तोः। अधमम्। चकार ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यद्य इन्द्रो महते दानवाय वधरुद्यमिष्ट यदप्रतीतं सह ईं वज्रस्य प्रभृतौ ददाभ विश्वस्य जन्तोरधमं चकार तं विज्ञाय संप्रयुङ्क्ष्व ॥७॥

    पदार्थः

    (उत्) (यत्) यम् (इन्द्रः) (महते) (दानवाय) दानकर्त्त्रे (वधः) वधम् (यमिष्ट) नियच्छेत् (सहः) बलम् (अप्रतीतम्) अधर्मिभिरप्राप्तम् (यत्) यः (ईम्) सर्वतः (वज्रस्य) शस्त्रप्रहारस्य (प्रभृतौ) प्रकृष्टधारणे (ददाभ) हिनस्ति (विश्वस्य) समग्रस्य (जन्तोः) जीवमात्रस्य मध्ये (अधमम्) (चकार) करोति ॥७॥

    भावार्थः

    हे राजादयो जना यूयं सूर्य्यवद्वर्त्तित्वा राज्यस्याऽधमां दिशां निवारयत ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (यत्) जो (इन्द्रः) राजा (महते) बड़े (दानवाय) दान करनेवाले के लिये (वधः) वध को (उत्, यमिष्ट) उत्तम नियम करे और (यत्) जिस (अप्रतीतम्) अधर्मिजनों से नहीं प्राप्त हुए (सहः) बल को (ईम्) सब ओर से (वज्रस्य) शस्त्रप्रहार के (प्रभृतौ) उत्तम प्रकार धारण करने में (ददाभ) नाश करता और (विश्वस्य) सम्पूर्ण (जन्तोः) जीवमात्र के मध्य में (अधमम्) नीचा (चकार) करता अर्थात् जो सब पर अपना आक्रमण करता है, उसको जान के उत्तम प्रकार प्रयोग करो अर्थात् उससे प्रयोजन सिद्ध करो ॥७॥

    भावार्थ

    हे राजा आदि जनो ! आप लोग सूर्य्य के सदृश वर्त्ताव करके राज्य की अधमदशा का निवारण करें ॥७॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    भा० - जिस प्रकार सूर्य ( दानवाय महते वज्रम् उद् यमिष्ट ) जलादि देने वाले मेघ को छिन्न भिन्न करने के लिये बल रूप प्रताप को सर्वोपरि धारण करता है उसी प्रकार ( यत् ) जो ( इन्द्रः) शत्रुहन्ता राजा ( महते दानवाय ) बड़े भारी दानशील प्रजाजन के पालन और प्रजा नाशक दुष्ट पुरुषों के नाश करने के लिये ( सहः ) शत्रु पराजयकारी ( अप्रतीतम् ) अन्यों से अज्ञात, और अन्यों से प्रतीकार न करने योग्य भारी सैन्य बल को ( उद्-यमिष्ट ) सदा तैयार रखता है, और जो ( वज्रस्य प्रभृतौ ) 'वज्र' अर्थात् शत्रुवारक शस्त्रबल के प्रहार करते ही शत्रु को ( ददाभ ) नाश कर डालता है, वह अवश्य अपने शत्रु को ( विश्वस्य जन्तोः) समस्त प्राणियों के ( अधमं चकार ) नीचे गिरा देता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'वासना विनाशक' वज्र

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (महते दानवाय) = इस महान् दानव (राक्षस) 'वृत्र' के विनाश के लिए (अप्रतीतम्) = शत्रुओं से आक्रान्त न होनेवाले (सहः) = शत्रुओं को कुचल देनेवाले (वधः) = क्रियाशीलता रूप वज्र को उद्यमिष्ट उठाता है, और (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (वज्रस्य) = इस क्रियाशीलतारूप वज्र के (प्रभृतौ) = प्रकर्षेण धारण करने पर (ददाभ) = यह शत्रुओं को हिंसित करता है तो इस वृत्र को (विश्वस्य जन्तोः) = सब प्राणियों के (अधमं चकार) = अधम कर देता है - उनके पाँव तले इस वृत्र को रौंद देता है । २. वृत्र के विनाश के लिए बल प्राप्ति का एक ही मार्ग है कि हम क्रियाशील बने रहें। यह क्रियाशीलता ही वज्र है, जिससे कि वासना का विनाश होता है। वासना को कुचलने का पाँव तले रौंदने का यही उपाय है कि हम क्रियामय जीवनवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ– क्रियाशीलतारूप वज्र से ही वासना का विनाश सम्भव है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजजनांनो! तुम्ही सूर्याप्रमाणे वागून राज्याच्या निकृष्ट दशेचे निवारण करा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And when Indra raises the thunderbolt of justice and punishment against the great demon of wickedness, in favour of the great and generous man of charity, and thus displays his mysterious force and power, and at the raising of the bolt he punishes the wicked, he reduces them to the lowest state of living beings.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The ruler's duties are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! the commander-in-chief of the army or king stops violence for the benefit of a great donor. His force can not be attained by unrighteous persons, and it slays the wicked by firmly holding thunderbolt-like powerful weapons. By using such powerful weapons against a wicked unrighteous person, he makes him most degraded in the eyes of all human beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and other officers of the state! you should behave or act like the sun and remove the deplorable condition of the State by being full of splendor and killing the wicked foes.

    Foot Notes

    (दानवाय) दानकर्त्रे । दा-दाने । = For the benefit of a liberal man. (अप्रतीतम् ) अर्धमिभिरप्राप्तम् अ + प्रति + इतम् इष गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेष्वत्र प्राप्त्यर्थंग्रहणम् । = Not to be attained by unrighteous persons. (ददाभ) हिनस्ति । = Kills, smashes.

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