ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
को अ॑स्य॒ शुष्मं॒ तवि॑षीं वरात॒ एको॒ धना॑ भरते॒ अप्र॑तीतः। इ॒मे चि॑दस्य॒ ज्रय॑सो॒ नु दे॒वी इन्द्र॒स्यौज॑सो भि॒यसा॑ जिहाते ॥९॥
स्वर सहित पद पाठकः । अ॒स्य॒ । शुष्म॑म् । तवि॑षीम् । व॒रा॒ते॒ । एकः॑ । धना॑ । भ॒र॒ते॒ । अप्र॑तिऽइतः । इ॒मे । चि॒त् । अ॒स्य॒ । ज्रय॑सः । नु । दे॒वी इति॑ । इन्द्र॑स्य । ओज॑सः । भि॒यसा॑ । जि॒हा॒ते॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
को अस्य शुष्मं तविषीं वरात एको धना भरते अप्रतीतः। इमे चिदस्य ज्रयसो नु देवी इन्द्रस्यौजसो भियसा जिहाते ॥९॥
स्वर रहित पद पाठकः। अस्य। शुष्मम्। तविषीम्। वराते। एकः। धना। भरते। अप्रतिऽइतः। इमे इति। चित्। अस्य। ज्रयसः। नु। देवी इति। इन्द्रस्य। ओजसः। भियसा। जिहाते इति ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसः ! कोऽस्य शुष्मन्तविषीं धरेदिमे देवी इन्द्रस्यौजसो भियसा नु जिहाते। अनयोरेको धना भरतेऽपरोऽप्रतीतोऽस्य चिज्ज्रयसो धर्त्ता वर्त्तते ताविमौ सर्वं वराते [यतो हि] इमे सर्वे ताभ्यां धृताः सन्ति ॥९॥
पदार्थः
(कः) (अस्य) (शुष्मम्) बलम् (तविषीम्) सेनाम् (वराते) वृणुयाताम् (एकः) (धना) धनानि (भरते) (अप्रतीतः) अप्रत्यक्षः (इमे) (चित्) (अस्य) (ज्रयसः) (नु) (देवी) देदीप्यमाने (इन्द्रस्य) विद्युतः (ओजसः) बलस्य (भियसा) धारणेन (जिहाते) गच्छतः ॥९॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो द्विविधोऽग्निरेकः प्रसिद्धः सूर्य्यभौमरूपो द्वितीयो गुप्तो विद्युद्रूप इमावेव सर्वं जगद्धृत्वा गमयतः ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (कः) कौन (अस्य) इसके (शुष्मम्) बल को और (तविषीम्) सेना को धारण करे और (इमे) ये (देवी) प्रकाशमान दो अग्नि (इन्द्रस्य) बिजुली के (ओजसः) बल के (भियसा) धारण से (नु) शीघ्र (जिहाते) चलते हैं, इन दोनों के मध्य में (एकः) एक तो (धना) धनों को (भरते) धारण करता है और दूसरा (अप्रतीतः) नहीं प्रत्यक्ष हुआ (अस्य) इसके (चित्) भी (ज्रयसः) वेगवान् का धारण करनेवाला वर्त्तमान है, वे ये दोनों सब को (वराते) स्वीकार को प्राप्त होवें, क्योंकि ये सब पदार्थ उन दोनों से धारण किये गये हैं ॥९॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो दो प्रकार का अग्नि-एक तो प्रसिद्ध सूर्य्य पृथ्वी में प्रसिद्धरूप और दूसरा गुप्त बिजुलीरूप ये ही दोनों सब जगत् को धारण करके चलाते हैं ॥९॥
विषय
missing
भावार्थ
भा०- ( कः ) कौन ( अस्य ) इस प्रबल राजा के ( शुष्मं ) शत्रुशोषक बल, सुखसमृद्धि और ( तविषीं ) बलवती सेना को ( वराते ) अपने वश कर सकता वा उसका वारण कर सकता है । वह ( एकः ) अकेला ही ( अप्रतीतः ) अप्रत्यक्ष रूप से वा अद्वितीय रूप से सर्वोपरि होकर ( धना भरते ) सब धन समृद्धियों को प्राप्त कर धारण करता है । ( इमे देवी ) ये दोनों यश, धन वा विजय की चाहने वाली सेना (अस्य ) इस ( ज्रयसः ) वेगवान्, विजयी ( इन्द्रस्य ) राजा के ( ओजसः ) बल पराक्रम के ( भियसा ) भय से ( जिहाते ) सत्पक्ष पर चलती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अप्रतिम बलवाले प्रभु
पदार्थ
१. (कः) = कौन (अस्य) = इस इन्द्र के (शुष्मम्) = शत्रुओं का शोषण करनेवाले (तविषीम्) = बल को (वराते) = रोक सकता है, अर्थात् इसके बल का प्रतिरोध कोई नहीं कर सकता। (एकः) = यह अद्वितीय प्रभु ही (अप्रतीतः) = किसी भी शत्रु से आक्रान्त न हुआ हुआ (धना भरते) = हमारे लिए धनों का पोषण करता है। २. (इमे देवीये) = दिव्य शक्तियोंवाले द्यावापृथिवी प्रभु (चित्) = भी (अस्य ज्रयसः) = इस वेगवान् (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (ओजसः) = ओज के-बल के- (भियसा) = भय से ही (नु) = निश्चय से (जिहाते) = गति करते हैं। द्यावापृथिवी प्रभु की शक्ति से ही- उस प्रभु के प्रशासन में ही— गति कर रहे हैं। 'भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः' = प्रभु के भय से सब गतिमय हो रहे हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का बल अप्रतिम है। प्रभु ही सब प्राणियों में उस उस धन का धारण करते हैं। द्यावापृथिवी उसी की शक्ति से गतिवाले होते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जे दोन प्रकारचे अग्नी असतात त्यापैकी पृथ्वीवर एक प्रसिद्ध सूर्य असून दुसरा गुप्त विद्युतरूपाने असतो. ते दोन्ही सर्व जगाला धारण करून चालतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Who can comprehend and hold his force and blaze? The One alone by himself bears all the wealths though unseen. And these two divine creations, heaven and earth, move by the awful force and blazing splendour of this mighty Indra.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of enlightened man's duties is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! who can have the strength and army like that of this lightning? Even these respondent earth and heaven move by the fear of this Indra (lightning). One of them upholds wealth and the other being invisible is the upholder of its rapidity. These two uphold all and all, the planets are upheld or sustained by them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should know that the Agni is of two kinds (1) in the form of the sun and fire and (2) the other hidden electricity-energy. These two sustain this world and make then move.
Foot Notes
(अप्रतीतः) अप्रत्यक्षः । यदशनिरिन्द्रस्तेन (Kaushitoki Brahman 6, 9 ) = Not visible with the eyes. (इन्द्रस्य ) विद्युत: स्तनयिन्तुरेवेन्द्रः ( Stph 11, 6, 3, 9)। = Of the electricity or lightning. (जयसः ) वेगवन्तः । ज्रयति गतिकर्मा (NG 2, 14)। = Rapid.
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