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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गातुरात्रेयः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्यं चि॒दर्णं॑ मधु॒पं शया॑नमसि॒न्वं व॒व्रं मह्याद॑दु॒ग्रः। अ॒पाद॑म॒त्रं म॑ह॒ता व॒धेन॒ नि दु॑र्यो॒ण आ॑वृणङ्मृ॒ध्रवा॑चम् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्यम् । चि॒त् । अर्ण॑म् । म॒धु॒ऽपम् । शया॑नम् । अ॒सि॒न्वम् । व॒व्रम् । महि॑ । आद॑त् । उ॒ग्रः । अ॒पाद॑म् । अ॒त्रम् । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । नि । दु॒र्यो॒णे । अ॒वृ॒ण॒क् । मृ॒ध्रऽवा॑चम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्यं चिदर्णं मधुपं शयानमसिन्वं वव्रं मह्याददुग्रः। अपादमत्रं महता वधेन नि दुर्योण आवृणङ्मृध्रवाचम् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्यम्। चित्। अर्णम्। मधुऽपम्। शयानम्। असिन्वम्। वव्रम्। महि। आदत्। उग्रः। अपादम्। अत्रम्। महता। वधेन। नि। दुर्योणे। अवृणक्। मृध्रऽवाचम् ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यथोग्रः सूर्य्यो महता वधेन दुर्योणे त्यं चिदर्णं मधुपं शयानमसिन्वं वव्रमपादमत्रं मृध्रवाचं मेघं मह्यादन्न्यावृणक् तथा त्वं वर्त्तस्व ॥८॥

    पदार्थः

    (त्यम्) (चित्) (अर्णम्) जलम् (मधुपम्) यन्मधूनि पाति तम् (शयानम्) शयानमिव वर्त्तमानम् (असिन्वम्) अबद्धम् (वव्रम्) वरणीयम् (महि) महत् (आदत्) आदद्यात् (उग्रः) तेजस्वी (अपादम्) अविद्यमानपादम् (अत्रम्) योऽतति सर्वत्र व्याप्नोति तम् (महता) (वधेन) (नि) नितराम् (दुर्योणे) गृहे (आवृणक्) वृणोति। अत्र तुजादीनामिति दीर्घः। (मृध्रवाचम्) हिंसितवाचम् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्युता मेघो भूमौ निपात्यते तथा भवन्तो दुष्टानधो निपातयन्तु ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! जैसे (उग्रः) तेजस्वी सूर्य्य (महता) बड़े (वधेन) वध से (दुर्योणे) गृह में (त्यम्) उस (चित्) निश्चित (अर्णम्) जल का (मधुपम्) मधुर पदार्थों की रक्षा करनेवाले का (शयानम्) और सोते हुए के सदृश वर्त्तमान (असिन्वम्) नहीं बद्ध (वव्रम्) स्वीकार करने योग्य (अपादम्) पादों से रहित और (अत्रम्) सर्वत्र व्याप्त होनेवाले (मृध्रवाचम्) हिंसित वाणी से युक्त मेघ का (महि) अतीव (आदत्) ग्रहण करे वा (नि) अत्यन्त (आवृणक्) स्वीकार करता है, वैसे आप वर्त्ताव कीजिये ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्य ! जैसे बिजुली मेघ को भूमि में गिराती है, वैसे आप दुष्टों के =को नीच दशा को प्राप्त करिये =कराइये ॥८॥

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    विषय

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    भावार्थ

    भा० – जिस प्रकार सूर्य, विद्युत् वा प्रबल वायु ( अर्णं ) जलमय (मधुपं ) जल वा अन्न के पालक, ( शयानं ) निश्चेष्ट, (असिन्वम् ) अबद्ध, ( वत्रम् ) व्यापक, ( अनं ) निरन्तर गतिशील ( मृध्र-वाचम् ) हिंसाकरी विद्युन्मय वाणी से युक्त मेघ को ( महता वधेन ) बड़े विद्युन्मय आघात से ( आदद् ) सब प्रकार से खण्डित करता है, (चित् ) उसी प्रकार ( उग्रः ) बलवान्, प्रचण्ड राजा (त्यं ) उस ( अर्णं ) जलवत् गंभीर वा धन के स्वामी, (मधुपं) 'मधु' अर्थात् अन्न, जल, राष्ट्र के उपभोक्ता वा सैन्यबल के पालक ( असिन्वं ) शत्रुओं को उखाड़ने में समर्थ वा असि अर्थात् शस्त्र बल में स्तुति योग्य, ( वव्रं ) सब से वरणीय परन्तु ( शयानं ) लोकहित में उदासीन बलवान्, अचेत ( अत्रं ) अपनी प्रजा के भक्षक ( अपादम् ) पैररहित, भागने में असमर्थ, लाचार (मृध्रवाचं ) हिंसक, दुःखद वाणी बोलने वाले, कटुभाषी दुष्ट पुरुष को ( दुर्योणे ) दुःखदायी स्थान में बन्द करके ( महता वधेन ) बड़े भारी शस्त्र या दण्ड से ( आवृणक ) दण्डित करे ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अपादम् अत्रम्

    पदार्थ

    १. (त्यम्) = उस (चित्) = निश्चय से (मधुपम्) = शरीर में सोम का पान (रक्षण) करनेवाले (अर्णम्) = ज्ञान जल को आवृत करके - उस पर परदा डालकर (शयानम्) = निवास करते हुए, (असिन्वम्) = हमें निरन्तर इधर-उधर फेंकते हुए (वव्रे) = इस (महि) = महान् अति प्रबल वृत्र को - वासना को – (उग्रः) = यह तेजस्वी इन्द्र (आदत्) = पकड़ लेता है- उसे वश में करता है। वासना को काबू करके ही इसका विनाश किया जा सकता है। वस्तुतः वशीभूत काम 'काम' नहीं रहता। यह 'प्रेम' हो जाता है। २. (अपादम्) = कैद हो जाने के कारण गति से रहित हुए हुए इस (अत्रम् खा) = जानेवाले (मृध्रवाचम्) = ज्ञान वाणियों का हिंसन करनेवाले काम को वह तेजस्वी इन्द्र (महता वधेन) = महान् क्रियाशीलतारूप आयुध के द्वारा दुर्योण इस शरीररूप गृह में अथवा इस शरीर में चलनेवाले वासनाओं के साथ संग्राम में (नि आवृणक्) = निश्चय से छिन्न कर डालता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वासना को काबू करें। इसे वशीभूत करके क्रियाशीलतारूप वज्र से विनष्ट कर डालें। अन्यथा यह वासना हमें विनष्ट कर डालेगी। यह 'अत्र' है- खा जानेवाली है [अद् भक्षणे] ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी विद्युत मेघाला भूमीवर पाडते तसा तुम्ही दुष्ट लोकांचा नाश करा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For sure that flood of water, honey sweet, dormant, unbounded, cavernous, floating, expansive and roaring, the blazing sun, Indra, seizes with a great blow of electric charge of thunderbolt and breaks it in its own place.$(So should the ruler break open the hidden treasures of the land.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the learned persons are told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! the sun is full of splendor and it takes hold of his rays with powerful weapon. The cloud which is full of water protects water inside, as if sleeps in its house (so to speak). It is not bound by any one, acceptable (for its usefulness for rain) pervades the firmament, and possesses a violent speech (in the form of the lightning or thunder) and then rends it asunder. So you should emulate.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the cloud is struck by the lightning, so you should strike and make the wicked persons fall down by overcoming them.

    Foot Notes

    (असिन्वम्) असद्वम्। (असिन्वम्) षिञ-बन्धने (स्वा) = Not bound. (अत्रम् ) योऽतति सर्वत्र व्याप्नोति तम् (अत्रम् ) अत -सातत्यगमने (भ्वा० ) । = Pervading everywhere. (दुर्योणे) गृहे । दुरोणे इति गृहनाम (NG 3, 4) = In the house. (मुध्रवाचम) हिंसितवाचम् । मृध-हिंसायाम् । = Possessing violent sound or thunder.

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