ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
त्यस्य॑ चिन्मह॒तो निर्मृ॒गस्य॒ वध॑र्जघान॒ तवि॑षीभि॒रिन्द्रः॑। य एक॒ इद॑प्र॒तिर्मन्य॑मान॒ आद॑स्माद॒न्यो अ॑जनिष्ट॒ तव्या॑न् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठत्यस्य॑ । चि॒त् । म॒ह॒तः । निः । मृ॒गस्य॑ । वधः॑ । ज॒घा॒न॒ । तवि॑षीभिः । इन्द्रः॑ । यः । एकः॑ । इत् । अ॒प्र॒तिः । मन्य॑मानः । आत् । अ॒स्मा॒त् । अ॒न्यः । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । तव्या॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्यस्य चिन्महतो निर्मृगस्य वधर्जघान तविषीभिरिन्द्रः। य एक इदप्रतिर्मन्यमान आदस्मादन्यो अजनिष्ट तव्यान् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठत्यस्य। चित्। महतः। निः। मृगस्य। वधः। जघान। तविषीभिः। इन्द्रः। यः। एकः। इत्। अप्रतिः। मन्यमानः। आत्। अस्मात्। अन्यः। अजनिष्ट। तव्यान् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ धनुर्वेदविद्राजगुणानाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! य एकोऽप्रतिर्मन्यमानस्त्वं तविषीभिर्यथेन्द्रस्त्यस्य महतो मृगस्य मेघस्य वधर्जघान तथाऽस्मांश्चिज्जनयादस्माद्यथाऽन्यो निरजनिष्ट तथेत्त्वमस्मान् तव्यान्निज्जनय ॥३॥
पदार्थः
(त्यस्य) तस्य (चित्) (महतः) (निः) (मृगस्य) सद्योगामिनः (वधः) घ्नन्ति यस्मिन् सः (जघान) हन्ति (तविषीभिः) सेनादिबलैः (इन्द्रः) सेनेशः (यः) (एकः) (इत्) (अप्रतिः) अविद्यमाना प्रतिः प्रतीतिर्यस्य सः (मन्यमानः) (आत्) (अस्मात्) (अन्यः) भिन्नः (अजनिष्ट) जनयति (तव्यान्) ये तविषि बले भवास्तान्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघं विजित्य स्वप्रभावं जनयित्वा सर्वान् प्राणिनः पालयति तथैव धनुर्वेदविदेकोऽप्यनेकान् विजित्य प्रजाः पालयेत् ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इन्द्रपदवाच्य धनुर्वेदवित् राजगुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! (यः) जो (एकः) एक (अप्रतिः) नहीं है विश्वास जिनके वह (मन्यमानः) आदर किये गये आप (तविषीभिः) सेना आदि बलों से जैसे (इन्द्रः) सेना का स्वामी (त्यस्य) उस (महतः) बड़े (मृगस्य) शीघ्र चलनेवाले मेघ का (वधः) नाश करते हैं जिसमें तदनुकूल (जघान) नाश करता है, वैसे हम लोगों को (चित्) भी प्रकट कीजिये (आत्) अनन्तर (अस्मात्) इससे जैसे (अन्यः) भिन्न और जन (निः) अत्यन्त (अजनिष्ट) उत्पन्न करता है, वैसे (इत्) ही आप (तव्यान्) बलों में उत्पन्न हम लोगों को ही उत्पन्न कीजिये अर्थात् प्रकट कीजिये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे सूर्य्य मेघ को जीतकर अपने प्रताप को प्रकट करके सब प्राणियों का पालन करता है, वैसे ही धनुर्वेद की विद्या को जाननेवाला एक भी अनेकों को जीतकर प्रजाओं का पालन करे ॥३॥
विषय
सिंहवत् राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ
भा०- (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, शत्रु पद को तोड़ने हारा पुरुष (त्यस्य ) उस ( महतः ) महान् ( मृगस्य चित् ) सिंहवत् पराक्रमी पुरुष के भी ( वधः ) शस्त्र बल को अपनी ( तविषीभिः ) प्रबल सेनाओं से ( जघान ) मार गिरावे । ( यः ) जो ( एकः ) अकेला ( अन्यः ) शत्रु भी ( अप्रतिः) अपने को अद्वितीय ( मन्यमानः ) मान रहा है ( आत् ) अनन्तर ( अस्मात् अन्यः ) उससे भिन्न दूसरा राजा ( तव्यान् ) अधिक बलवान् रूप में ( अजनिष्ट ) प्रकट हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
तव्यान् अजनिष्ट
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (तविषीभिः) = बलों के द्वारा-ज्ञान द्वारा प्राप्त शक्तियों (सेत्यस्य चित्) = उस प्रसिद्ध (महतः) = प्रबल [महान्] (मृगस्य) = पशु के तुल्य (बलवान्) = काम के (वधः) = अस्त्र को (निर्जघान) = नष्ट करता है। काम के अस्त्र को विनष्ट करके यह उसे निरस्त्र [निहत्था] बना देता है। २. (यः) = जो (एकः इत्) = अकेला ही (अप्रतिः) = प्रतिद्वन्द्वियों से रहित (मन्यमानः) = आदरणीय प्रभु हैं । (आत्) = अब (अस्मात्) = इस प्रभु से (अन्य:) = दूसरा जीव भी (तव्यान्) = बड़ा शक्तिशाली अजनिष्ट हो जाता है। प्रभु सम्पर्क से जीव की भी शक्ति बड़ी बढ़ी हुई हो जाती है।
भावार्थ
भावार्थ- वासना के विनाश होने पर जीव, उस प्रभु से मेल के कारण, बड़ा शक्तिशाली बन जाता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघाला जिंकून आपला पराक्रम दर्शवितो व प्रजेच पालन करतो तसेच धनुर्वेद विद्या जाणणारा एकटा असेल तरी त्याने अनेकांना जिंकून प्रजेचे पालन करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, the ruling lord, alone by himself, unequalled and universally acknowledged and adored, destroys the might of that great informidable demon of darkness and negativities with his blazing powers and actions like the sun breaking the cloud, and then he creates other powers greater than demonic negativities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king, knower of military science are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! as a commander-in-chief who is unparalleled and respected by all, kills a wicked man who is quick-moving (evading or retreating) with his army, like the sun rends asunder clouds. In the same manner, slay the wicked and make us reputed. As another mighty person manifests his power, therefore you make us powerful.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun by conquering the clouds manifests his power and cherishes all beings, in the same manner, even a single man, expert in the military science achieves victory over many and protects the subjects.
Foot Notes
(इन्द्रः ) सेनेश:। सेनेन्द्रस्य पत्नी Gopatha Brahman Uttara pt. 2-9 ) यदा सेना इन्द्रस्य पत्नी इन्द्र सेनेश इति स्पष्टमेव इन्द्र इति ह्येतमाचक्षते य | = The commander-in chief of the army. एष (सूर्य:) तपति । =The sun. (अप्रतिः) अविद्यमाना प्रतिः प्रतीतिर्यस्य सः । Unparalleled. (तव्यान्) ये तविषि बले भवास्तान् । अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः । तव इति बलनाम (NG 2, 9 ) = Powerful.
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