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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गातुरात्रेयः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा हि त्वामृ॑तु॒था या॒तय॑न्तं म॒घा विप्रे॑भ्यो॒ दद॑तं शृ॒णोमि॑। किं ते॑ ब्र॒ह्माणो॑ गृहते॒ सखा॑यो॒ ये त्वा॒या नि॑द॒धुः काम॑मिन्द्र ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । हि । त्वाम् । ऋ॒तु॒ऽथा । या॒तय॑न्तम् । म॒घा । विप्रे॑भ्यः॑ । दद॑तम् । शृ॒णोमि॑ । किम् । ते॒ । ब्र॒ह्माणः॑ । गृ॒ह॒ते॒ । सखा॑यः । ये । त्वा॒ऽया । नि॒ऽद॒धुः । काम॑म् । इ॒न्द्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा हि त्वामृतुथा यातयन्तं मघा विप्रेभ्यो ददतं शृणोमि। किं ते ब्रह्माणो गृहते सखायो ये त्वाया निदधुः काममिन्द्र ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। हि। त्वाम्। ऋतुऽथा। यातयन्तम्। मघा। विप्रेभ्यः। ददतम्। शृणोमि। किम्। ते। ब्रह्माणः। गृहते। सखायः। ये। त्वाऽया। निऽदधुः। कामम्। इन्द्र ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! विद्यैश्वर्ययुक्त पतिकामाहं हि विप्रेभ्यो मघा ददतमृतुथा यातयन्तं त्वामेवा शृणोमि ते तव ये ब्रह्माणः सखायस्ते त्वाया किं गृहते कं कामं निदधुः ॥१२॥

    पदार्थः

    (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (हि) (त्वाम्) (ऋतुथा) ऋतोर्ऋतोर्मध्ये (यातयन्तम्) सन्तानाय प्रयतन्तम् (मघा) मघानि धनानि (विप्रेभ्यः) मेधाविभ्यः (ददतम्) (शृणोमि) (किम्) (ते) तव (ब्रह्माणः) चतुर्वेदविदः (गृहते) गृह्णन्ति (सखायः) सुहृदः (ये) (त्वाया) त्वयि। अत्र विभक्तेः सुपां सुलुगिति याजादेशः। (निदधुः) निदधति (कामम्) (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त ॥१२॥

    भावार्थः

    स्त्री ऋतुगामिकाममूर्द्ध्वरेतसं सुशीलं विद्वांसं प्रसिद्धकीर्त्तिं जनं पतित्वाय गृह्णीयात् तेन सह यथावद्वर्त्तित्वाऽलंकामा सौभाग्याढ्या भवेदिति ॥१२॥ अत्रेन्द्रविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वात्रिंशत्तमं सूक्तं त्रयस्त्रिंशो वर्गश्चतुर्थाष्टके प्रथमोऽध्यायः पञ्चमे मण्डले द्वितीयोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥ अस्मिन्नध्यायेऽग्निविद्वदिन्द्रादिगुणवर्णनादेतदध्यायोक्तार्थानां पूर्वाऽध्यायोक्तार्थैः सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त ! विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त पति की कामना करती हुई मैं (हि) निश्चय से (विप्रेभ्यः) बुद्धिमान् जनों के लिये (मघा) धनों को (ददतम्) देते और (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु के मध्य में (यातयन्तम्) सन्तान के लिये प्रयत्न करते हुए (त्वाम्) आप को (एवा) ही (शृणोमि) सुनती हैं और (ते) आपके (ये) जो (ब्रह्माणः) चार वेद के जाननेवाले (सखायः) मित्र वे (त्वाया) आप में (किम्) क्या (गृहते) ग्रहण करते और किस (कामम्) मनोरथ को (निदधुः) धारण करते हैं ॥१२॥

    भावार्थ

    स्त्री, ऋतु-ऋतु के मध्य में जाने की कामनावाला है वीर्य्य जिसका ऐसे ऊर्ध्वरेता वीर्य्य को वृथा न छोड़नेवाले, ब्रह्मचर्य्य को धारण किये हुए, उत्तम स्वभाववाले और विद्यायुक्त उत्तम यशवाले जन को पतिपने के लिये स्वीकार करे, उसके साथ यथावत् वर्त्ताव करके, पूर्ण मनोरथ करनेवाली और सौभाग्य से युक्त होवे ॥१२॥ इस सूक्त में इन्द्र और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बत्तीसवाँ सूक्त और तेतीसवाँ वर्ग, चौथे अष्टक में प्रथम अध्याय और पञ्चम मण्डल में द्वितीय अनुवाक समाप्त हुआ ॥ इस अध्याय में अग्नि विद्वान् और इन्द्रादिकों के गुणों का वर्णन होने से इस अध्याय में कहे हुए अर्थों की पहिले अध्यायों में कहे हुए अर्थों के साथ सङ्गति है, ऐसा जानना चाहिये ॥

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    विषय

    दानशील राजा और त्यागी विद्वान् । इति प्रथमोऽध्यायः ।

    भावार्थ

    भा०—हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! ( एव हि ) इस प्रकार ही मैं सदा (ऋतुथा) सत्य ज्ञान के अनुसार वा उचित ऋतुओं के अनुसार ( यातयन्तम् ) सूर्यवत् समस्त प्रजा जनों को यत्न उद्योग करते कराते हुए और ( विप्रेभ्यः ) विद्वान्, बुद्धिमान् पुरुषों को ( मघा ददतं ) नाना धन प्रदान करते हुए ( श्रृणोमि ) श्रवण करूं । हे राजन् ! ( ये ) जो ( त्वाया ) तेरे आश्रय ही अपना ( कामम् ) समस्त अभिलषित ( निदधुः ) रखते हैं, तुझ पर ही भरोसा किये हैं वे वस्तुतः ( ते सखायः ) तेरे मित्र हैं । वे (ब्रह्माणः ) बड़े वेदज्ञ विद्वान् जन ( ते किं गृहते ) तेरा ले भी क्या लेते हैं ! वे तेरे अधीन त्यागवृत्ति से रहकर अन्न वस्त्र पर ही जीवन व्यतीत करते हैं । इसी प्रकार स्त्री भी अपने पति को ( ऋतुथा यातयन्तं ) ऋतु पर सन्तानोत्पत्ति करने वाला, दानशील सुने, उत्तम गृहस्थ के विद्वान् पुरुष हितैषी होते हैं वे गृहस्थों पर आश्रित रह कर अन्न वस्त्रादि लेकर भी कुछ नहीं लेते । इति त्रयस्त्रिंशो वर्गः ॥ इति पञ्चमे मण्डले द्वितीयोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'सर्वकाम प्रपूरक' प्रभु

    पदार्थ

    १. मैं (एवा) = सचमुच (हि) = ही (त्वाम्) = आपको (ऋतुथा) = उस उस समय के अनुसार (यातयन्तम्प्रेरित) = करते हुए को (शृणोमि) = सुनता हूँ। आप ही सदा (सत्प्रेरणा) = प्राप्त कराते हैं। आपको ही मैं (विप्रेभ्यः) =अपना विशेष रूप से पूरण करनेवालों के लिए न्यूनताओं को दूर करनेवाले के लिए (मघा ददतम्) = ऐश्वर्यों को देते हुए को सुनता हूँ। आप ही विनों के लिए सब ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं। ३. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (ये) = जो (कामम्) = अपनी इच्छा को (त्वाया) = आपकी प्राप्ति की कामना से ही (निदधुः) = स्थापित करते हैं, अर्थात् जिन्हें आपकी प्राप्ति के अतिरिक्त कोई कामना नहीं होती, (ते) = वे (ब्रह्माण:) = ज्ञानी स्तोता (सखायः) = आपके मित्र होते हुए (किं गृहते) = अनिर्वचनीय आनन्द को ग्रहण करनेवाले होते हैं । 'न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्त:करणेन गृह्यते'।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही समयानुसार प्रेरणा देते हैं - प्रभु ही सब ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं । प्रभु एक अनिर्वचनीय आनन्द को प्राप्त करते हैं । के उपासक इस प्रकार जो प्रभु का वरण करता है वह 'संवरण' = उत्तमवरणवाला होता है यह 'प्राजापत्य' (प्रजापतेः अयम्=) प्रभु का ही हो जाता है। सदा प्रभु के कार्यों में प्रवृत्त रहता है - प्रजा के रक्षण में प्रवृत्त होता है। यह प्रार्थना करता है कि -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो ऋतुगामी, ऊर्ध्वरेता, सुशील, विद्वान, प्रसिद्ध कीर्तिमान पुरुष असेल त्याचा स्त्रीने पती म्हणून स्वीकार करावा. त्याच्याबरोबर यथायोग्य वागून पूर्ण मनोरथयुक्त व सौभाग्ययुक्त व्हावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruling lord of the world, thus do I hear of you, I feel the vibrations, inspiring life according to the seasons, bestowing wealth and honour on noble scholars, what the sages dedicated to divine knowledge receive and what desires and ambitions with prayers they place in you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a learned person are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! endowed with great wealth, I am the possessor of the wealth of knowledge and desirous of having a husband. I hear about you as giving wealth to wise men and trying to have progeny at proper season (with self- restraint). What do our friends who are knowers of all the Vedas, get from you, who surrender all their desires (i.e. in love) you ? (They get great happiness and have their noble desires fulfilled.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A woman should take as husband a man of self-restraint who has full control over his generative and other organs. He should be a man of good character and temperament and renowned on account of his virtues. She should deal with him properly and enjoy happiness, being very auspicious and fortunate in getting her noble desires fulfilled.

    Foot Notes

    (यातयन्तम् ) सन्तानाय प्रयतन्तम् । यती-प्रयत्ने (भ्वा० )। = Desiring for getting a progeny. (ब्रह्माण:) चतुर्वेदविदः । ब्रह्मा सर्वविद्यः सर्वः वेदितुम् अर्हति । ब्रह्मा परिवृढ़ः श्रुततो ब्रह्म परिवृढ़ सर्वत: ( NKT 1,3,8) = The knowers of the four Vedas.

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