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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अत्रिः देवता - पृथिवी छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अव॑र्षीर्व॒र्षमुदु॒ षू गृ॑भा॒याक॒र्धन्वा॒न्यत्ये॑त॒वा उ॑। अजी॑जन॒ ओष॑धी॒र्भोज॑नाय॒ कमु॒त प्र॒जाभ्यो॑ऽविदो मनी॒षाम् ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑र्षीः । व॒र्षम् । उत् । ऊँ॒ इति॑ । सु । गृ॒भा॒य॒ । अकः॑ । धन्वा॑नि । अति॑ऽए॒त॒वै॒ । ऊँ॒ इति॑ । अजी॑जनः । ओष॑धीः । भोज॑नाय । कम् । उ॒त । प्र॒ऽजाभ्यः॑ । अ॒वि॒दः॒ । म॒नी॒षाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवर्षीर्वर्षमुदु षू गृभायाकर्धन्वान्यत्येतवा उ। अजीजन ओषधीर्भोजनाय कमुत प्रजाभ्योऽविदो मनीषाम् ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवर्षीः। वर्षम्। उत्। ऊँ इति। सु। गृभाय। अकः। धन्वानि। अतिऽएतवै। ऊँ इति। अजीजनः। ओषधीः। भोजनाय। कम्। उत। प्रऽजाभ्यः। अविदः। मनीषाम् ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् वैद्य ! यथा सूर्य्यो वर्षमवर्षीस्तथा त्वमुद् गृभाय धन्वान्यत्येतवै स्वकः। उ ओषधीर्भोजनायाऽजीजनः। उत प्रजाभ्यः कमविद उ मनीषाम् ॥१०॥

    पदार्थः

    (अवर्षीः) वर्षयति (वर्षम्) (उत्) (उ) (सु) शोभने (गृभाय) गृहाण (अकः) कुर्याः (धन्वानि) अविद्यमानोदकादिदेशान् (अत्येतवै) एतुं प्राप्तुम् (उ) (अजीजनः) जनयः (ओषधीः) सोमाद्याः (भोजनाय) (कम्) (उत) (प्रजाभ्यः) (अविदः) वेत्सि (मनीषाम्) प्रज्ञाम् ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा जगदीश्वरो वर्षाभ्यः प्रजाहितं जनयति तथैव धार्मिको राजा प्रजाभ्यः सुखमध्यापकश्च प्रज्ञां जनयेदिति ॥१०॥ अत्र पर्जन्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्र्यशीतितमं सूक्तमष्टाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् वैद्य ! जैसे सूर्य्य (वर्षम्) वृष्टि को (अवर्षीः) वर्षाता है, वैसे आप (उत्, गृभाय) उत्कृष्टता से ग्रहण कीजिये तथा (धन्वानि) जल आदि से रहित देशों को (अत्येतवै) प्राप्त होने के लिये (सु) उत्तम प्रकार (अकः) करिये (उ) और (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधियों को (भोजनाय) भोजन के लिये (अजीजनः) उत्पन्न कीजिये (उत) और भी (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (कम्) किसको (अविदः) जानते हो (उ) क्या (मनीषाम्) बुद्धि को ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे जगदीश्वर वर्षाओं से प्रजा के हित को सिद्ध करता है, वैसे ही धार्मिक राजा प्रजाओं के लिये सुख और अध्यापक बुद्धि को उत्पन्न करे ॥१०॥ इस सूक्त में मेघ और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तिरासीवाँ सूक्त और अठ्ठाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा जगदीश्वर वृष्टीने प्रजेचे हित करतो तसे धार्मिक राजाने प्रजेला सुख द्यावे व अध्यापकाने बुद्धी उत्पन्न करावी. ॥ १० ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pour down the showers, O cloud, take over the earth for generation, fertilise the thirsting lands for growth, produce herbs and plants and trees for food of the people, and win the thanks of a grateful humanity.

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