ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - सविता
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वि वृ॒क्षान् ह॑न्त्यु॒त ह॑न्ति र॒क्षसो॒ विश्वं॑ बिभाय॒ भुव॑नं म॒हाव॑धात्। उ॒ताना॑गा ईषते॒ वृष्ण्या॑वतो॒ यत्प॒र्जन्यः॑ स्त॒नय॒न् हन्ति॑ दु॒ष्कृतः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठवि । वृ॒क्षान् । ह॒न्ति॒ । उ॒त । ह॒न्ति॒ । र॒क्षसः॑ । विश्व॑म् । बि॒भा॒य॒ । भुव॑नम् । म॒हाऽव॑धात् । उ॒त । अना॑गाः । ई॒ष॒ते॒ । वृष्ण्य॑ऽवतः । यत् । प॒र्जन्यः॑ । स्त॒नय॑न् । हन्ति॑ । दुः॒ऽकृतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि वृक्षान् हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनं महावधात्। उतानागा ईषते वृष्ण्यावतो यत्पर्जन्यः स्तनयन् हन्ति दुष्कृतः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठवि। वृक्षान्। हन्ति। उत। हन्ति। रक्षसः। विश्वम्। बिभाय। भुवनम्। महाऽवधात्। उत। अनागाः। ईषते। वृष्ण्यऽवतः। यत्। पर्जन्यः। स्तनयन्। हन्ति। दुःऽकृतः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा तक्षा वृक्षान् वि हन्त्युत न्यायकारी राजा येभ्यो विश्वं बिभाय तान् रक्षसो हन्ति यद्यः पर्जन्यः स्तनयन्महावधाद् भुवनं वर्षयति यथा चाऽनागा वृष्ण्यावत ईषत उत दुष्कृतो हन्ति तथैव मनुष्या वर्त्तन्ताम् ॥२॥
पदार्थः
(वि) (वृक्षान्) छेत्तुमर्हान् (हन्ति) (उत) अपि (हन्ति) (रक्षसः) दुष्टाचारान् (विश्वम्) (बिभाय) बिभेति (भुवनम्) उदकम्। भुवनमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (महावधात्) महतो हननात् (उत) (अनागाः) न विद्यत आगोऽपराधो यस्मिन् (ईषते) हिनस्ति (वृष्ण्यावतः) वृष्ण्यानि वर्षितुं योग्यान्यभ्राणि विद्यन्ते येषु तान् (यत्) यः (पर्जन्यः) (स्तनयन्) शब्दयन् (हन्ति) (दुष्कृतः) दुष्टाचारान् ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मनुष्याः पालनीयान् पालयन्ति हन्तव्यान् घ्नन्ति ते राजसत्तावन्तो जायन्ते ॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे बढ़ई (वृक्षान्) काटने योग्य वृक्षों को (वि, हन्ति) विशेष कर के काटता है (उत) और न्यायकारी राजा जिनसे (विश्वम्) सम्पूर्ण संसार (बिभाय) भय करता है, उन (रक्षसः) दुष्ट आचरणवालों का (हन्ति) नाश करता है और (यत्) जो (पर्जन्यः) मेघ (स्तनयन्) शब्द करता हुआ (महावधात्) बड़े हनन से (भुवनम्) जल को वर्षाता है और जैसे (अनागाः) नहीं अपराध जिसमें वह (वृष्ण्यावतः) वर्षने योग्य मेघ जिनमें उन का (ईषते) नाश करता है (उत) और (दुष्कृतः) दुष्ट कर्मों के करनेवालों का (हन्ति) नाश करता है, वैसा ही मनुष्य वर्ताव करें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्य पालन करने योग्यों का पालन करते हैं और नाश करने योग्यों का नाश करते हैं, वे राजसत्ता से युक्त होते हैं ॥२॥
विषय
शत्रु पराजयकारी का मेघवत् वर्णन । उसका शत्रु वध का भयंकर कार्य ।
भावार्थ
भा० - जिस प्रकार ( पर्जन्यः स्तनयन् दुष्कृतः हन्ति ) मेघ गर्जता हुआ दुःखदायी, अकाल, दुर्भिक्ष आदि को नाश करता है जो ( भुवनं हन्ति ) जल को आघात कर बरसाता है । ( वृष्ण्यवतः ईषते ) बरसाने वाले मेघ खण्डों को प्रेरता है उसी प्रकार ( यत् ) जो (पर्जन्यः) शत्रुओं को पराजय करने और प्रजाओं को सुख समृद्धि से तृप्त करने वाला, मेघ तुल्य उदार राजा वा विद्वान् पुरुष, ( स्तनयन् ) गर्जता हुआ, उपदेश करता हुआ ( दुः-कृतः ) दुष्टाचरण करने वाले, प्रजाओं को दुःख देने वाले दुष्ट पुरुषों और बुरे कर्मों का भी ( हन्ति ) नाश करता है वह (वृक्षान् ) काट कर उखाड़ देने योग्य, वा भूमि पर कब्जा करनेवाले उच्छेद्य शत्रुओं को ( विहन्ति ) विविध उपायों से नाश करे, ( उत) और ( रक्षसः) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों और भावों का ( वि हन्ति ) विघात करे । और उनको भी नाश करे जिनके ( महावधात् ) बड़े नाशकारी हत्या-काण्ड से ( विश्वं भुवनं विभाय ) समस्त संसार डरता है, अथवा जिसके (महावधात् ) बड़ा हिंसाकारी घोर शस्त्रास्त्र बल से जगत् भय खाता है, ( उत ) और वह (अनागाः) दोष अपराध आदि से रहित होकर ( वृष्ण्य-वतः ) शस्त्रवर्षी, बलवान् शत्रुओं को भी ( ईषते ) नाश करता और प्रकम्पित करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः। पर्जन्यो देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप, । ३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० भुरिक् पंक्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'वृक्ष व राक्षस' विनाश
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं, तो (वृक्षान् विहन्ति) = [व्रश्चतेः वृक्षः] काट देने योग्य रोग आदि को वे नष्ट करते हैं। (उत) = और (रक्षसः) = हृदयस्थ राक्षसी भावों को भी वे विनष्ट करते हैं। उस समय (महावधात्) = उस महान् वध को करनेवाले प्रभु से (विश्वं बिभाय) = सब हमारे न चाहते हुए भी हमारे अन्दर प्रविष्ट हो जानेवाले रोग व आसुरभाव भयभीत हो उठते हैं। [२] (उत) = और (अनागा:) = निष्पाप व्यक्ति उस समय (वृष्ण्यावतः) = शक्तिशाली शत्रुओं को (ईषते) = नष्ट करनेवाला होता है (यत्) = जब कि (पर्जन्यः) = यह ('परो जेता') = महान् विजेता प्रभु (स्तनयन्) = गर्जना करते हुए, वेदवाणियों का उच्चारण करते हुए (दृष्कृतः हन्ति) = सब पापियों का विनाश कर देते हैं। प्रभु ज्ञान को देकर अज्ञानजन्य अपराधों को समाप्त कर देते हैं और इस प्रकार यह प्रभु का उपासक निष्पाप जीवनवाला बनकर शक्तिशाली शत्रुओं का भी शातन करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु स्मरण से रोग व राक्षसीभाव विनष्ट हो जाते हैं। यह उपासक शक्तिशाली शत्रुओं को भी शीर्ण करता है। प्रभु की ज्ञानवाणियाँ उसे ऐसा करने में समर्थ करती हैं ।
मन्त्रार्थ
(पर्जन्यः) मेघ (वृक्षान् बिहन्ति) वेग से बरसता हुआ वृक्षों को विहत कर देता है-विविध रूप से गिरा देता है (उत रक्षसः-हन्ति) रक्षा जिनसे की जाती है उन चोर आदि दुष्ट जनों को भी हत कर देता है- दुष्काल के प्रभाव हो जाने अर्थात् दुष्काल के नष्ट होजाने से- सुकाल की प्रवृत्ति हो जाने पर चोरी आदि न कर सकने से (महावधात्-विश्वं भुवनं विभाय) इसके महा वधकारक प्रहार से सारा प्राणिजगत् डरता है (वृष्णयावतः-अनागाः-उत-ईषते) वर्ष णशील धाराओं वाले मेघ से अनपराधी जन भी दौड जाता है “इषति गतिकर्मा" [निघ० २।१४] पुनः (दुष्कृतः-यत् पर्जन्यः स्तनयन् हन्ति) दुष्कर्म करने वाले जनों को उनके पापकारण से भीत होने पर यह मेघ गरजता हुआ मार देता ॥२॥
टिप्पणी
"ओषधीषु गर्भे गर्भस्थानीयं रेतः-उदकं दधाति" (सायणः) "ओषधीषु रैतः-उदकं गर्भे दधाति" (दयानन्दः)
विशेष
ऋषि- भौमोऽत्रिः(पृथिवी के बाहिरी स्तरों का वेत्ता विद्वान्)देवता—पर्जन्यः।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे पालन करण्यायोग्यांचे पालन करतात व नाश करण्यायोग्य असणाऱ्यांचा नाश करतात. त्यांना राजसत्ता मिळते. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The cloud shakes the trees, destroys the demons whom the whole world fears, and when it roars and releases the water of rain pregnant with life, it kills the evil doers with the terrible bolt and saves the sinless and the generous forces of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of men are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as a carpenter hews down the trees, as a just king destroys the Rakshasas (demons from whom all fear), so the cloud when thundering or roaring aloud rains down water by its mighty weapon or strikes and even guiltless man or innocent men flies from the sender of rain, when it slays the wicked.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who protect those who are worth protecting (proper persons. Ed.) and kill those who deserve to be killed (or punished. Ed.) become (good. Ed.) administrators of the State.
Foot Notes
(भुवनम्) उदकम् भुवनम् । भुवनम् इत्युदकनाम (NG 1, 12)। = Water. (ईषते) हिनस्ति । ईष-गतिहिंसादर्शनेषु (म्वा०) अत्र हिंसार्थ-ग्रहणम् । = Destroys, flees.
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