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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अत्रिः देवता - पृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि क्र॑न्द स्त॒नय॒ गर्भ॒मा धा॑ उद॒न्वता॒ परि॑ दीया॒ रथे॑न। दृतिं॒ सु क॑र्ष॒ विषि॑तं॒ न्य॑ञ्चं स॒मा भ॑वन्तू॒द्वतो॑ निपा॒दाः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । क्र॒न्द॒ । स्त॒नय॑ । गर्भ॑म् । आ । धाः॒ । उ॒द॒न्ऽवता॑ । परि॑ । दी॒य॒ । रथे॑न । दृति॑म् । सु । क॒र्ष॒ । विऽसि॑तम् । न्य॑ञ्चम् । स॒माः । भ॒व॒न्तु॒ । उ॒त्ऽवतः॑ । नि॒ऽपा॒दाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि क्रन्द स्तनय गर्भमा धा उदन्वता परि दीया रथेन। दृतिं सु कर्ष विषितं न्यञ्चं समा भवन्तूद्वतो निपादाः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। क्रन्द। स्तनय। गर्भम्। आ। धाः। उदन्ऽवता। परि। दीय। रथेन। दृतिम्। सु। कर्ष। विऽसितम्। न्यञ्चम्। समाः। भवन्तु। उत्ऽवतः। निऽपादाः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स मेघः किं करोतीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो मेघो गर्भमाऽऽधा उदन्वता रथेनाऽभि क्रन्द स्तनय दृतिं सु कर्ष दुःखानि परि दीया विषितं न्यञ्चं सु कर्ष येनोद्वतो निपादाः समा भवन्तु तं विजानीत ॥७॥

    पदार्थः

    (अभि) आभिमुख्ये (क्रन्द) क्रन्दति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (स्तनय) गर्जति (गर्भम्) (आ) (धाः) समन्ताद्दधाति (उदन्वता) बहूदकसहितेन (परि) सर्वतः (दीया) उपक्षयति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं, द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (रथेन) रमणीयेन स्वरूपेण (दृतिम्) यो दृणाति तं दृतिरिव जलेन पूर्णम् (सु, कर्ष) विलिखति (विषितम्) (न्यञ्चम्) यो निश्चितमञ्चति तम् (समाः) वर्षाणि (भवन्तु) (उद्वतः) ऊर्ध्वदेशस्थाः (निपादाः) निश्चिता निम्ना वा पादा अंशा येषान्ते ॥७॥

    भावार्थः

    यो हि जलेन विश्वं पुष्यति दुःखं नाशयति फलानि जनयति स मेघो विश्वम्भरोऽस्तीति वेद्यम् ॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह मेघ क्या करता है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो मेघ (गर्भम्) गर्भ को (आ, धाः) चारों ओर से धारण करता और (उदन्वता) बहुत जल के सहित (रथेन) सुन्दर स्वरूप से (अभि) सम्मुख (क्रन्द) शब्द करता और (स्तनय) गर्जता है (दृतिम्) फाड़नेवाले के सदृश जल से पूर्ण को (सु, कर्ष) विशेष करके खोदता और दुःखों का (परि) सब प्रकार से (दीया) नाश करता और (विषितम्) बंधे (न्यञ्चम्) निश्चित सेवा करते हुए को विशेष करके लिखता अर्थात् चेष्टा में लाता है तथा जिससे हम लोगों के (उद्वतः) ऊर्ध्वस्थान में वर्त्तमान (निपादाः) निश्चित वा नाचे हैं अंश जिनके ऐसे (समाः) वर्ष (भवन्तु) होवें, उसको जानिये ॥७॥

    भावार्थ

    जो निश्चयपूर्वक जल से संसार को पुष्ट करता है और दुःख का नाश करता तथा फलों को उत्पन्न करता है, वह मेघ विश्वंभर है, ऐसा जानना चाहिये ॥७॥

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    विषय

    वर्षते मेघवत् राष्ट्र पोषक राजा के कर्त्तव्य । उत्तम न्याय व्यवस्था का आदर्श ।

    भावार्थ

    भा० - मेघ ( यथा क्रन्दति गर्भम् आधत्ते, उदन्वता रथेन परिदयति, विपितं न्यञ्च दृतिं सुकर्षति, उद्वतः निपादाः समा भवन्ति तथा ) जिस प्रकार गर्जता है, विद्युत् चमकाता है, जलमय रस्य रूप से आकाश में व्यापता है, नीचे आ उतरते हुए विदीर्ण मशक समान अपने 'दृति' अर्थात् जल पूर्ण भाग को अच्छी प्रकार बन्धन रहित सा करके खोल देता है और ऊंचे और निम्न खड्डों वाले सब प्रदेश जलमय होकर एक समान हो जाते हैं, उसी प्रकार हे राजन् ! प्रजापालक पुरुष ! तू ( अभि क्रन्द ) स्वयं सब ओर गर्जना कर, अपनी घोषणाएं दे ( स्तनय ) घोर नाद कर, अथवा स्तन के समान मेघ जिस प्रकार संतति-पालनार्थ दूध से भरता वा पुष्ट हो जाता है उसी प्रकार मेघ भी प्रजापोषणार्थ जल से भर कर पुष्ट हो जाता है, उसी प्रकार हे राजन् तू भी प्रजापालनार्थं ( स्तनय ) स्तनवत् उत्तम परिपोषक अन्न आदि देने में समर्थ, समृद्ध, पुष्ट होजा । तू (गर्भम् आधाः) गृहीत राष्ट्र का पालन पोषण कर, राष्ट्र को अपने गर्भ अर्थात् वश में सुरक्षित रख । ( उदन्वता रथेन परिदीयाः ) बलशाली रथ सैन्य से राष्ट्र की सब ओर से रक्षा कर वा उस प्रकार के सैन्यरहित राष्ट्र में बस और राष्ट्र को बसा वा शत्रु का नाश कर । ( न्यञ्चं ) नीचे विनय से झुकने वाले ( वि-षितं ) बन्धनादि से मुक्त वा विशेष रूप के नियम-प्रबन्धादि से प्रबद्ध, ( दृतिं ) शत्रु बल को विदारण करने में समर्थ सैन्य बल को ( सुकर्ष ) अच्छी प्रकार सञ्चालित कर और विनीत, बन्धन युक्त, ( दृतिं ) भयप्रद शत्रु बल को ( सुकर्ष ) खूब निर्बल कर जिससे (उदन्वतः ) उत्कृष्ट बल वाले और ( नि-पादाः ) निम्न स्थान पर स्थित सभी प्रजाजन भी ( समाः भवन्तु ) न्याय दृष्टि से समान हो जांय । उत्तम पदस्थ निम्नों को न सता सकें ।

    टिप्पणी

    'सुकर्ष' - ' स कर्षन् महतीं सेना ॥ रघु०॥ यश्च सेनां विकर्षति ॥ महाभा० इत्यादि प्रयोगेषु कृषधातोः सैन्यस्य नायकवत् सञ्चालनार्थे प्रयोगेऽतिप्राचीनः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः। पर्जन्यो देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप, । ३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० भुरिक् पंक्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वृष्टि से ओषधियों की उत्पत्ति

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! इस बादल के रूप में (अभिक्रन्द) = भूमि की ओर गर्जना करनेवाला हो । (स्तनय) = विद्युत् को तू शब्द करानेवाला हो। (गर्भं आधाः) = ओषधियों में तू गर्भ को स्थापित कर, सब ओषधियाँ खूब फलित हों। (उदन्वता रथेन) = इस जलवाले रथरूप मेघ से (परिदीया) = चारों ओर गतिवाले होइये। [२] इस (विषितम्) = विशेषरूप से बद्ध व (स्यूत दृतिम्) = चर्मपात्ररूप मेघ को (न्यञ्चम्) = निम्न गतिवाले को (सुकर्ष) = आकृष्ट करिये। मेघ मानो एक चर्मपात्र है, जो जल से परिपूर्ण है। इसे नीचे आकृष्ट करना ही इसका बरसाना है। प्रभु इसे बरसाते हैं और (उद्वत:) = उन्नत प्रदेश व (निपादाः) = निम्न प्रदेश सब (समाः भवन्तु) = समपृष्ठवाले हो जाते हैं। सर्वत्र पानी फैल जाने से (निम्नोन्नत) = विभाग नहीं रह जाता। सब एक पृष्ठ प्रतीत होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- बादल बरसता है और ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार सब प्रदेश जल परिपूर्ण होकर समान पृष्ठवाले प्रतीत होते हैं ।

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    मन्त्रार्थ

    (अभिक्रन्द) हे मे! तू पृथिवी पर बरसने को अभिमुख गमन कर "ऋदि वैक्लव्ये वैकल्ये च" (स्वादि०) (स्तनय) गरज करके "स्तन देवशब्दे" (चुरादि) (गर्भम् अधाः) पृथिवी में वनस्पतियों का गर्म धारण करा (उदन्वता रथेन परिदीया) जलवाले रथ-रमणक्रम से सब ओर से पृथिवी पर परिभ्रमण कर घूम वरसता चला जा "दीयति गतिकर्मा" (निघ० २।१४) (विषितं दृतिम्) जल पूर्ण खुली मशक समान अपने जल पूर्ण अङ्ग को (न्यञ्च सुकर्ष) नीचे की ओर सम्यक सरका दे-छोड़ दे (उद्वतः-निपादाः समः भवन्तु) ऊंचे स्थान निम्न प्रदेश सब समान स्थान वर्षाजल से हो जावें ऊंचे नीचे प्रदेशों पर वर्षाएं हो जावे हरियाले हो जावें+ "शस्यं च समा च" (निरु० ९।३५,३६) ॥७॥

    विशेष

    ऋषि- भौमोऽत्रिः(पृथिवी के बाहिरी स्तरों का वेत्ता विद्वान्)देवता—पर्जन्यः।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो जलाने जगाला पुष्ट करतो. दुःखाचा नाश करतो तसेच फळे उत्पन्न करतो तो मेघ विश्वंभर असतो हे जाणावे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thunder and roar, O cloud, bring the vitalities of life and fertilise the earth for generation. Go far and wide by chariot run on water, draw the reservoir of waters released unto yourself, and conduct them downward so that the upward vapours may be brought down in showers.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What actions of the cloud are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should know that cloud which cries aloud over the earth, thunders, impregnates the plants, traverses over the sky with its water like laden a chariot. Draw open the tight fastened, down waters. Down-turned water bags and may the high and low places may be at even level.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    You should know that cloud is the upholder of the world, which nourishes the universe by water, destroys all miseries and generates (grows. Ed.) fruits.

    Foot Notes

    (दीया) उपक्षयति । अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं द्वयचोतस्तिङ् इति दीर्घश्च । दीड्-उपक्षये (दिवा० ) । = Destroys. (दुतिम् ) यो दुणाति दृतिरिव जलेन पूर्णम् । = Full of water.

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