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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अत्रिः देवता - पृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒हान्तं॒ कोश॒मुद॑चा॒ नि षि॑ञ्च॒ स्यन्द॑न्तां कु॒ल्या विषि॑ताः पु॒रस्ता॑त्। घृ॒तेन॒ द्यावा॑पृथि॒वी व्यु॑न्धि सुप्रपा॒णं भ॑वत्व॒घ्न्याभ्यः॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान्त॑म् । कोश॑म् । उत् । अ॒च॒ । नि । सि॒ञ्च॒ । स्यन्द॑न्ताम् । कु॒ल्याः । विऽसि॑ताः । पु॒रस्ता॑त् । घृ॒तेन॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । वि । उ॒न्धि॒ । सु॒ऽप्र॒पा॒नम् । भ॒व॒तु॒ । अ॒घ्न्याभ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महान्तं कोशमुदचा नि षिञ्च स्यन्दन्तां कुल्या विषिताः पुरस्तात्। घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्यः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान्तम्। कोशम्। उत्। अच। नि। सिञ्च। स्यन्दन्ताम्। कुल्याः। विऽसिताः। पुरस्तात्। घृतेन। द्यावापृथिवी इति। वि। उन्धि। सुऽप्रपानम्। भवतु। अघ्न्याभ्यः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मेघनिमित्तानि कानि सन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः सूर्य्यो महान्तं कोशमुदचा येन पृथिवीं नि षिञ्च पुरस्ताद्विषिताः कुल्याः स्यन्दन्तां यो घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि सोऽघ्न्याभ्यः सुप्रपाणं भवत्विति वित्त ॥८॥

    पदार्थः

    (महान्तम्) महत्परिमाणम् (कोशम्) धनादीनां कोश इव जलेन पूर्णं मेघम्। कोश इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (उत्) (अचा) ऊर्ध्वं गच्छति (नि) नितराम् (सिञ्च) सिञ्चति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (स्यन्दन्ताम्) प्रस्रवन्तु (कुल्याः) निर्म्मिता जलगमनमार्गाः (विषिताः) व्याप्ताः (पुरस्तात्) (घृतेन) जलेन। घृतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (द्यावापृथिवी) भूम्यन्तरिक्षे (वि) (उन्धि) विशेषेणोन्दयति क्लेदयति (सुप्रपाणम्) सुष्ठु प्रकर्षेण पिबन्ति यस्मिन् स जलाशयः (भवतु) (अघ्न्याभ्यः) गोभ्यः ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! या विद्युत् सूर्य्यो वायुश्च मेघनिमित्तानि सन्ति तानि यथवत्प्रयोजयत यतो वर्षणेन गवादीनां यथावत् पालनं स्यात् ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब मेघनिमित्त कौन हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो सूर्य्य (महान्तम्) बड़े परिमाणवाले (कोशम्) घनादिकों के कोश के समान जल से परिपूर्ण मेघ को (उत्) (अचा) ऊपर प्राप्त होता है और जिससे पृथिवी को (नि, सिञ्च) निरन्तर सींचता है और (पुरस्तात्) प्रथम (विषिताः) व्याप्त (कुल्याः) रचे गये जल के निकलने के मार्ग (स्यन्दन्ताम्) बहें और जो (घृतेन) जल से (द्यावापृथिवी) पृथिवी और अन्तरिक्ष को (वि, उन्धि) अच्छे प्रकार गीला करता है वह (अघ्न्याभ्यः) गौओं के लिये (सुप्रपाणम्) उत्तम प्रकार प्रकर्षता से पीते हैं जिसमें ऐसा जलाशय (भवतु) हो, यह जानो ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो बिजुली, सूर्य्य और वायु मेघ के कारण हैं, उनको यथायोग्य प्रयुक्त कीजिये जिससे वृष्टि द्वारा गौ आदि पशुओं का यथावत् पालन होवे ॥८॥

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    विषय

    मेघवत् कोश वृद्धि और सद् व्यय का उपदेश

    भावार्थ

    भा०—जिस प्रकार मेघ ( महान्तं कोशम् उत् अञ्चति ) बड़ी भारी जल राशि को अपने भीतर उठाता है, (वि सिञ्चति ) उसे बरसाता है, ( स्यन्दन्ति कुल्याः विषिताः ) बहुतसी धारा निर्बन्ध होकर छूट बहती हैं और मेघ, आकाश और भूमि दोनों को (घृतेन व्युनत्ति ) जल से आर्द्र कर देता है (अघ्न्याभ्यः सुप्रपाणं भवति) गौ आदि पशुओं के पीने के लिये बहुत जल हो जाता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( महान्तं कोशम् ) बड़े भारी कोश, ख़जाने को (उद्द्अच) उन्नत कर, और बहुत बलवान् (कोशं) खड्ग अर्थात् शस्त्र बल तथा धन को उत्पन्न कर, ( नि सिञ्च ) उस कोश को शस्त्र को प्रजागण और शत्रु पर बरसादे, जिससे ( पुरस्तात् ) आगे (वि-सिताः ) कटी ( कुल्याः ) राष्ट्र में जल की और रण में रक्त की नहरें (स्यन्दन्ताम् ) बह जावें और ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य भूमिवत् राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों को ( घृतेन ) स्नेह से (वि-उन्धि ) आर्द्र कर, वे दोनों प्रेम से एक दूसरे पर कृपालु और अनुरक्त रहें । ( अघ्न्याभ्यः ) गौओं के समान अहिंसनीय प्रजाओं के लिये ( सुप्रपाणं ) उत्तम, सुखजनक पालन की व्यवस्था ( भवतु ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः। पर्जन्यो देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप, । ३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० भुरिक् पंक्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    महान् कोश का उदञ्चन

    पदार्थ

    [१] हे महान् विजेता [पर्जन्य] प्रभो! आप (महान्तं कोशम्) = इस मेघरूप महान् कोश को (उदचा) = उद्गत करिये आकाश में इस महान् जलकोश को स्थापित करिये। (निषिञ्च) = इसे यहाँ नीचे भूमि पर क्षरित करिये। आपकी इस व्यवस्था से (विषिताः) = सब बन्धनों से मुक्त हुई हुई (कुल्याः) = ये नदियाँ (पुरस्तात्) = आगे-आगे (स्यन्दन्ताम्) = प्रवाहित होनेवाली हों। [२] इस व्यवस्था के द्वारा हे प्रभो! आप (घृतेन) = इस दीप्ति के कारणभूत जल से द्यावापृथिवी (व्युन्धि) = द्युलोक व पृथिवीलोक को आप क्लिन्न करिये । पृथिवी को यह महान् मेघकोश का जल सींचता ही है और सारे वायुमण्डल को भी गीला करनेवाला होता है। इस स्थिति में (अघ्न्याभ्यः) = इन न मारने योग्य गौवों के लिये (सुप्रपाणं भवतु) = उत्तम पीने योग्य जल-स्थानों का निर्माण भवतु हो । गवादि पशुओं के लिये सर्वत्र मेघजल सुप्राप्त हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वृष्टि हो जाती है, नदियाँ प्रवाहित होने लगती हैं और सर्वत्र पशुओं के लिये पानी सुलभ हो जाता है।

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    मन्त्रार्थ

    (महान्तं कोशम्-उदच निषिञ्च) हे मेघ ! तू अपने जलपूर्ण महान् कोश को ऊपर से खोल और नीचे सींच दे (पुरस्तात्-विषिता: कुल्याः स्यन्दन्ताम्) प्रथम से विशेष बंधी हुई रुकी हुई कुल्याएँ पृथिवी पर बहने लगें (घृतेन द्यावापृथिवी व्युन्धि) जल से द्युलोक और पृथिवी लोक को गीला कर दे "घृतमुदकनाम" (निघ० १।१२) (अघन्याभ्यः सुप्रपाणं भवतु) गौ आदि पशुओं के लिए भली प्रकार पान करने योग्य वृष्टि से तडाग आदि हो जावें-भर जावें ॥८॥

    विशेष

    ऋषि- भौमोऽत्रिः(पृथिवी के बाहिरी स्तरों का वेत्ता विद्वान्)देवता—पर्जन्यः।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जे विद्युत, सूर्य, वायू, मेघाचे कारण असतात त्यांचा यथायोग्य उपयोग करून घ्या. ज्यामुळे वृष्टीद्वारे गाई इत्यादी पशूंचे पालन यथायोग्य व्हावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The sun holds the mighty reservoir of vapours up on high, the cloud pours it down in showers. Let the lakes and rivers flow with waters released to freedom. O cloud, fill the earth and sky with water so that there may be ample food and water for the cows.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The causes (factors. Ed.) of the cloud are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The sun which raises on high the mighty cloud (full of water like the treasure) and pours down the contents, the rivers flow unimpeded on the earth, and saturates both heaven and earth with water. Let there be abundant drinking water for the inviolable kine.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the lightning, sun and the air make the cloud. Make proper use of them, so that by rain there may be proper protection of the cows and other creatures.

    Foot Notes

    (कोशम्) धनादीनां कोश इव जलेन पूर्णं मेघम् । कोश इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Cloud full of water like a treasure. ( विषिता: ) व्याप्ताः । विष्लु-व्याप्तौ ( जुहो० ) | = Pervading.

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