ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 6
दि॒वो नो॑ वृ॒ष्टिं म॑रुतो ररीध्वं॒ प्र पि॑न्वत॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ धाराः॑। अ॒र्वाङे॒तेन॑ स्तनयि॒त्नुनेह्य॒पो नि॑षि॒ञ्चन्नसु॑रः पि॒ता नः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । नः॒ । वृ॒ष्टिम् । म॒रु॒तः॒ । र॒री॒ध्व॒म् । प्र । पि॒न्व॒त॒ । वृष्णः॑ । अश्व॑स्य । धाराः॑ । अ॒र्वाङ् । ए॒तेन॑ । स्त॒न॒यि॒त्नुना॑ । आ । इ॒हि॒ । अ॒पः । नि॒ऽसि॒ञ्चन् । असु॑रः । पि॒ता । नाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो नो वृष्टिं मरुतो ररीध्वं प्र पिन्वत वृष्णो अश्वस्य धाराः। अर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेह्यपो निषिञ्चन्नसुरः पिता नः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। नः। वृष्टिम्। मरुतः। ररीध्वम्। प्र। पिन्वत। वृष्णः। अश्वस्य। धाराः। अर्वाङ्। एतेन। स्तनयित्नुना। आ। इहि। अपः। निऽसिञ्चन्। असुरः। पिता। नः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सः मेघः कीदृश इत्याह ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! यूयं नो दिवो वृष्टिं ररीध्वं वृष्णोऽश्वस्य धाराः प्र पिन्वत योऽर्वाङ् वर्त्तमान एतेन स्तनयित्नुनाऽपो निषिञ्चन्नसुरो नः पितेव पालको मेघ एहि तं यूयं विजानीत ॥६॥
पदार्थः
(दिवः) सूर्य्यात् (नः) अस्मभ्यम् (वृष्टिम्) (मरुतः) वायुवद्वर्त्तमाना मनुष्याः (ररीध्वम्) दत्त (प्र) (पिन्वत) सिञ्चत (वृष्णः) वर्षकस्य (अश्वस्य) महतः। अश्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (धाराः) प्रवाहान् (अर्वाङ्) अधो वर्त्तमानः (एतेन) (स्तनयित्नुना) विद्युद्रूपेण (आ) (इहि) आगच्छन्ति। अत्र व्यत्ययः। (अपः) जलानि (निषिञ्चन्) नितरां सेचनं कुर्वन् (असुरः) मेघः। असुर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (पिता) जनक इव पालकः (नः) अस्माकम् ॥६॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! यैः कर्मभिर्वृष्टिरधिका भवेत्तानि कर्म्माणि सेवध्वम् ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह मेघ कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) वायुवद्वर्त्तमान मनुष्यो ! आप लोग (नः) हम लोगों के लिये (दिवः) सूर्य्य से (वृष्टिम्) वृष्टि को (ररीध्वम्) दीजिये तथा (वृष्णः) वर्षनेवाले (अश्वस्य) बड़े मेघ के (धाराः) प्रवाहों को (प्र, पिन्वत) सींचिये और जो (अर्वाङ्) नीचे वर्त्तमान और (एतेन) इस (स्तनयित्नुना) बिजुली रूप से (अपः) जलों को (निषिञ्चन्) अत्यन्त सेचन करता हुआ (असुरः) मेघ (नः) हम लोगों के (पिता) उत्पन्न करनेवाले पिता के सदृश पालन करनेवाला (आ, इहि) प्राप्त होता है, उसको आप लोग विशेष करके जनिये ॥६॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! जिन कर्म्मों से वृष्टि अधिक होवे, उन कर्म्मों का सेवन कीजिये ॥६॥
विषय
धारावान् मेघ और सेनाध्यक्ष ।
भावार्थ
भा० - जिस प्रकार ( मरुतः दिवः वृष्टिं रान्ति ) वायुगण अन्तरिक्ष से वृष्टि में प्रदान करते हैं और ( वृष्णः धारा प्र पिन्वत ) बरसने वाले मेघ की जल धाराओं को बरसाते हैं उसी प्रकार हे ( मरुतः ) वायुवत् बलवान् पुरुषों ! आप लोग ( नः ) हमारे लिये (दिवः ) व्यापार, व्यवहार से ( वृष्टिं ) ऐश्वर्य की समृद्धि, पुष्टि, ( ररीध्वम् ) प्रदान किया करो । और ( वृष्णः ) राष्ट्र का प्रबन्ध करने में कुशल ( अश्वस्य ) अश्ववत् हृष्ट पुष्ट और राष्ट्र के भोक्ता राजा के ( धाराः ) आज्ञा वाणियों को और अश्व सैन्य की 'धारा' नाम विशेष चालों को ( प्र पिन्वत ) खूब परिपुष्ट करो ( स्तनयित्नुना असुरः निषिञ्चन् अर्वाङ् एति ) जिस प्रकार मेघ वर्षता हुआ गर्जनशील विद्युत् के साथ आता है उसी प्रकार ( नः पिता ) हमारा पितावत् पालन करने वाला राजा ( अपः ) राज्यकर्म को और आप्त प्रजाजनों को ( नि सिञ्चन् ) सर्व प्रकार से पुष्ट करता हुआ ( स्तनयित्नुना ) उपदेश करने वाले विद्वान् वा गर्जनशील योद्धाजन चा अस्त्र समूह के साथ ( अर्वाङ् एति ) हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः। पर्जन्यो देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप, । ३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० भुरिक् पंक्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
असुरः पिता
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = वृष्टिवाहक वायुवो! आप (नः) = हमारे लिये (दिवः) = द्युलोक से (वृष्टिम्) = वृष्टि को (ररीध्वम्) = दो । (वृष्णः) = वृष्टि को करनेवाले (अश्वस्य) = अन्तरिक्ष में व्याप्त होनेवाले मेघ की (धाराः) = जलधाराओं को (प्रपिन्वत) = सींचो। [२] हे प्रभो! आप (एतेन) = इस (स्तनयित्नुना) = गर्जना करनेवाले मेघ से (अर्वाङ् इहि) = यहाँ नीचे पृथिवीलोक पर आइये । (अपः निषिञ्चन्) = जलों को सींचता हुआ (असुरः) = सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करनेवाला यह मेघ (नः) = पिता हमारा रक्षक है। हे प्रभो ! आप ही इस मेघ के द्वारा वर्षण करके अन्नोत्पादन द्वारा हमारा रक्षण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु वायुवों व मेघों द्वारा वृष्टि की व्यवस्था करके अन्नोत्पादन द्वारा सब प्राणियों की रक्षा करते हैं ।
मन्त्रार्थ
(मरुतः-नः-दिवः-वृष्टिं ररीध्वम्) हे मरुतो-वातस्तरो! हमारे लिए मेघमण्डल से वृष्टि को देवो-देते रहो (वृष्णः अश्वस्य धाराः प्रपिन्वत) वर्षक-वरसने वाले तथा व्यापनशील मेत्र की धाराओं को सींचो "पिवि से बने सेचने च" [भ्वादि०] (सुर:-न-पिता-अप:-निषिञ्चन्) मेघ "असुरो मेघनाम" (निघ० १।१०) हमारा पालक जलों को सींचने के हेतु (एतेन स्तनयित्नुता-अर्वाङ्-एहि) इस कडक ध्वनि करने वाले विद्युदेव के साथ "एहि-एतु पुरुषव्यत्ययः” इधर-नीचे आवे ॥६॥
विशेष
ऋषि- भौमोऽत्रिः(पृथिवी के बाहिरी स्तरों का वेत्ता विद्वान्)देवता—पर्जन्यः।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो! ज्या कार्याने वृष्टी अधिक होईल असे कर्म करा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the Maruts, windy currents of energy, bring us rain from the regions of the sun. May the mighty cloud showers of fertility bring us growth. O cloud, harbinger of vitality come down here with showers of rain flooding the earth and giving us breath of life and sustenance like a father.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More about nature the cloud is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned men! you are like winds. Send down for us rains from the heaven (light). Make the streams out of the vast cloud. Come down with sprinkling water along with this thundering cloud. You are the sender of the rains and our protector.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned people ! spread those arts by which it may rain more.
Foot Notes
(वृष्ण ) वर्षकस्य । पिवु-सेचने (भ्वा० ) | = Of the showerer. (अश्वस्य ) महत: । अश्व इति महन्नाम (NG 3, 3)। = ( पिन्वत ) सिंचत । पिवु सेचने सेवने वा । अत्र सिंचनार्थ: । = Sprinkles. (असुर:) मेघ: । असुर इति मेघनाम (NG 1, 10) = By lighting or electricity.
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