ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
र॒थीव॒ कश॒याश्वाँ॑ अभिक्षि॒पन्ना॒विर्दू॒तान्कृ॑णुते व॒र्ष्याँ॒३॒॑ अह॑। दू॒रात्सिं॒हस्य॑ स्त॒नथा॒ उदी॑रते॒ यत्प॒र्जन्यः॑ कृणु॒ते व॒र्ष्यं१॒॑ नभः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठर॒थीऽइ॑व । कश॑या । अश्वा॑न् । अ॒भि॒ऽक्षि॒पन् । आ॒विः । दू॒तान् । कृ॒णु॒ते॒ । व॒र्ष्या॑न् । अह॑ । दू॒रात् । सिं॒हस्य॑ । स्त॒नथाः॑ । उत् । ई॒र॒ते॒ । यत् । प॒र्जन्यः॑ । कृ॒णु॒ते । व॒र्ष्य॑म् । नभः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथीव कशयाश्वाँ अभिक्षिपन्नाविर्दूतान्कृणुते वर्ष्याँ३ अह। दूरात्सिंहस्य स्तनथा उदीरते यत्पर्जन्यः कृणुते वर्ष्यं१ नभः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठरथीऽइव। कशया। अश्वान्। अभिऽक्षिपन्। आविः। दूतान्। कृणुते। वर्ष्यान्। अह। दूरात्। सिंहस्य। स्तनथाः। उत्। ईरते। यत्। पर्जन्यः। कृणुते। वर्ष्यम्। नभः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं वेदितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यद्यः पर्जन्यः कशयाऽश्वानभिक्षिपन् रथीव वर्ष्यान् दूतानाविष्कृणुतेऽह ते दूरात् सिंहस्येवोदीरते पर्जन्यो वर्ष्यन्नभः कृणुते तं त्वं स्तनथाः ॥३॥
पदार्थः
(रथीव) बहवो रथा विद्यन्ते यस्य तद्वत् (कशया) ताडनार्थरज्वा (अश्वान्) तुरङ्गान् (अभिक्षिपन्) आभिमुख्ये प्रेरयन् (आविः) प्राकट्ये (दूतान्) (कृणुते) करोति (वर्ष्यान्) वर्षासु साधून् (अह) विनिग्रहे (दूरात्) (सिंहस्य) (स्तनथाः) शब्दयेः (उत्) (ईरते) कम्पयन्ति गच्छन्ति वा (यत्) यः (पर्जन्यः) मेघः (कृणुते) (वर्ष्यम्) वर्षासु भवम् (नभः) अन्तरिक्षम् ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा सारथिरश्वान् यथेष्टं स्थानं नेतुं शक्नोति तथैव मेघो घनानीतस्ततो नयति ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! (यत्) जो (पर्जन्यः) मेघ (कशया) मारने के लिये रस्सी अर्थात् कोड़े से (अश्वान्) घोड़ों को (अभिक्षिपन्) सन्मुख लाता हुआ (रथीव) बहुत रथवाले के सदृश (वर्ष्यान्) वर्षाओं में श्रेष्ठ (दूतान्) दूतों को (आवि, कृणुते) प्रकट करता है (अह) परतन्त्र करने में वे (दूरात्) दूर से (सिंहस्य) सिंह के सदृश (उत्, ईरते) कम्पाते वा चलते हैं और पर्जन्य (वर्ष्यम्) वर्षाओं में हुए (नभः) अन्तरिक्ष को (कृणुते) करता अर्थात् प्रकट करता है, उसको आप (स्तनथाः) पुकारिये ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे सारथी घोड़ों को यथेष्ट स्थान में ले जाने को समर्थ होता है, वैसे ही मेघ जलों को इधर-उधर ले जाता है ॥३॥
विषय
सैन्यप्रबन्धक एवं सारथिवत् विचेता का मेघवत् रूप ।
भावार्थ
भा०—जिस प्रकार ( पर्जन्यः नभः वर्ष्यं कुरुते ) मेघ अन्तरिक्ष को वृष्टि करने वाला बना देता है, ( वर्ष्यान् दूतान् आविः कृणुते ) वर्षा के दूत सदृश शीतल वायुओं को प्रकट करता है, (सिंहस्य स्तनथा उत् ईरते ) सिंहवत् गर्जनाएं होती हैं उसी प्रकार ( यत् ) जब ( पर्जन्यः ) शत्रु पराजयकारी, प्रजा को समृद्ध करने वाला राजा ( वर्ष्यम् ) वृष अर्थात् बलवान् शस्त्रवर्षी वीर भटों से बने सैन्य को ( नभः ) सुप्रबद्ध ( कृणुते ) करता है और ( रथी इव ) जिस प्रकार कोचवान् ( कशया ) हण्टर से ( अश्वान् अभिक्षिपति ) घोड़ों को हांकता है, और मेघ जिस प्रकार ( कशया अश्वान् अभिक्षिपन् ) दीप्ति युक्त विद्युल्लता से मेघ एवं वेग युक्त वायुओं को ताड़ता है उसी प्रकार ( रथी ) वह महारथी, ( कशया ) अपनी वाणी से ही ( अश्वान् ) वेग से जाने वाले अपने अश्व सैन्यों को ( अभिक्षिपन् ) सब ओर शीघ्र भेजता हुआ और ( वर्ष्यान् ) वर्षों में वृद्ध ( दूतान् ) शत्रुसंतापक एवं उत्तम कुशल अनुभवी पुरुषों को अपना दूत ( आविः कृणुते ) बनाता है । उसी समय ( सिंहस्य ) सिंह के समान पराक्रमशाली वीर जनों के ( स्तनथाः ) गर्जन शब्द ( दूरात् ) दूर से ( उत् ईरते ) उठते, सुनाई देते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः। पर्जन्यो देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप, । ३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० भुरिक् पंक्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'मेघों के प्रेरक' प्रभु
पदार्थ
[१] (इव) = जिस प्रकार (रथी) = रथ का स्वामी (कशया) = चाबुक से (अश्वान्) = घोड़ों को (अभिक्षिपन्) = चारों ओर प्रेरित करता है, इसी प्रकार वे (पर्जन्य:) = महान् विजेता प्रभु (अह) = निश्चय से (वर्ष्यान् दूतान्) = वृष्टि को करनेवाले मेघों के प्रेरक मरुतों को, वायुओं को (आविः कृणुते) = प्रकट करते हैं। [२] (यत्) = जब (पर्जन्य:) = वे परातृप्ति के जनक प्रभु (नभः) = आकाश को (वर्ष्यम्) = वृष्टि के लिये उद्यत (कृणुते) = करते हैं तो (दूरात्) = उस दूर देश से (सिंहस्य) = वर्षण के द्वारा दुर्भिक्ष के विनाशक मेघरूप सिंह के (स्तनथा:) = गर्जन (उदीरते) = उद्गत होते हैं। आकाश में बादल शेर के समान गर्जता है और वर्षण के द्वारा दुर्भिक्ष आदि का विनाश करनेवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ— जैसे रथी चाबुक से घोड़ों को प्रेरित करता है, उसी प्रकार प्रभु आकाश में वृष्टिवाहक वायुओं को प्रेरित करते हैं। जब कभी प्रभु आकाश को वृष्टि के अभिमुख करते हैं तो मेघरूप सिंहों की गर्जना सुन पड़ती है।
मन्त्रार्थ
(यत् पर्जन्य:) जब मेघ (वर्ण्य नभः कृणुते) वर्षा योग्य 'जभमण्डल को कर देता है (रथी-इव कशया) जैसे रथवान् ताडनसाधनी रज्जु-हरटर से (अश्वान् अभिक्षिपन्) घोड़ों को आगे प्रेरित करता है ऐसे (दूतान् वर्ष्यान् अह-आविष्कृणुते) दूतरूप मरुतों वातस्तरों को प्रेरित करता हुआ वर्षावाले बना देता है (दूरात् सिंहस्य स्तनथा: उदीरते) सिंहसदृश मेघ के शब्द उच्च स्वर उठते हैं ॥३॥
टिप्पणी
"अश्वान् मेघान्" (सायण:) "दूतान् दूत्वद् वृष्टिप्रेरकान्-मरुतो वा” (सायणः)
विशेष
ऋषि- भौमोऽत्रिः(पृथिवी के बाहिरी स्तरों का वेत्ता विद्वान्)देवता—पर्जन्यः।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सारथी घोड्यांना योग्य स्थानी घेऊन जाण्यास समर्थ असतो तसेच मेघ जलाला इकडे तिकडे घेऊन जातात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indeed like a charioteer urging on the horses by the whip, the cloud condenses and intensifies the rain carrier showers down to the earth, and, for that, when it strikes the ocean of vapours in the sky with thunder to turn it into rain, the space resounds from far like the roar of a lion.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The aim of human knowledge is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! like a charioteer whipping his horses, the cloud puts forth its messengers in the form of rains from distant thunderings of the loin-like cloud arise when it fills the sky with rain. Tell about this knowledge to others.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a charioteer takes the horses to the desired place, likewise the clouds take its different components hither and thither.
Foot Notes
(कशया) ताड़नार्थ रज्वा। = With a whip. (स्तनथा:) शब्दयेः । स्तन-देवशब्दे ( चुरा० ) । = Tell, utter.
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