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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - सरस्वती छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    प्र या म॑हि॒म्ना म॒हिना॑सु॒ चेकि॑ते द्यु॒म्नेभि॑र॒न्या अ॒पसा॑म॒पस्त॑मा। रथ॑इव बृह॒ती वि॒भ्वने॑ कृ॒तोप॒स्तुत्या॑ चिकि॒तुषा॒ सर॑स्वती ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । या । म॒हि॒म्ना । म॒हिना॑सु । चेकि॑ते । द्यु॒म्नेभिः॑ । अ॒न्याः । अ॒पसा॑म् । अ॒पःऽत॑मा । रथः॑ऽइव । बृ॒ह॒ती । वि॒ऽभ्वने॑ । कृ॒ता । उ॒प॒ऽस्तुत्या॑ । चि॒कि॒तुषा॑ । सर॑स्वती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र या महिम्ना महिनासु चेकिते द्युम्नेभिरन्या अपसामपस्तमा। रथइव बृहती विभ्वने कृतोपस्तुत्या चिकितुषा सरस्वती ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। या। महिम्ना। महिनासु। चेकिते। द्युम्नेभिः। अन्याः। अपसाम्। अपःऽतमा। रथःऽइव। बृहती। विऽभ्वने। कृता। उपऽस्तुत्या। चिकितुषा। सरस्वती ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सा कीदृशीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! या महिम्ना महिनाऽपसामपस्तमा रथइव बृहती विभ्वने चिकितुषोपस्तुत्या कृता निष्पादिता सरस्वती द्युम्नेभिरन्या आसु प्र चेकिते तां यथावद्विज्ञाय सत्यां वाचं सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥१३॥

    पदार्थः

    (प्र) (या) (महिम्ना) महत्त्वेन (महिना) महती (आसु) (चेकिते) विज्ञापयतु (द्युम्नेभिः) प्रकाशनैर्यशोभिः (अन्याः) प्रतिप्राणिनं भिन्ना वाचः (अपसाम्) कर्मकर्तॄणाम् (अपस्तमा) अतिशयेन कर्मकर्त्री (रथइव) रमणीयाकाश इव (बृहती) बृंहती (विभ्वने) विभुत्वाय (कृता) जगदीश्वरेण निर्मिता (उपस्तुत्या) ययोपस्तौति तया (चिकितुषा) विज्ञापयित्र्या (सरस्वती) सरो विज्ञानं विद्यते यस्यां सा ॥१३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः ! सुविद्यासुशिक्षासत्सङ्गसत्यभाषणयोगाभ्यासादिभिर्निष्पन्ना वागियं व्याप्ता वा समर्था वर्त्तते तां यूयं विजानीत ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसी है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्या ! (या) जो (महिम्ना) बड़प्पन से (महिना) बड़ी (अपसाम्) कर्म करनेवालों में (अपस्तमा) अतीव कर्म करनेवाली और (रथइव) रमणीय आकाश के समान (बृहती) बढ़ती हुई (विभ्वने) विभुत्व के लिये (चिकितुषा) समझानेवाली (उपस्तुत्या) जिससे कि समीप स्तुति करता उससे (कृता) जगदीश्वर ने उत्पन्न की हुई (सरस्वती) जिसमें विज्ञान वर्त्तमान वह वाणी (द्युम्नेभिः) प्रकाश जो यशरूप हैं उनसे (अन्याः) प्रत्येक प्राणी के प्रति भिन्न-भिन्न है अर्थात् नाना प्रकार वाणी हैं =नाना की वाणियाँ हैं (आसु) उनमें जो (प्र, चेकिते) विज्ञान कराती उसको यथावत् जान के सत्य वाणी का अच्छे प्रकार प्रयोग करो ॥१३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! विद्या, सुशिक्षा, सत्सङ्ग, सत्यभाषण और योगाभ्यासादिकों से निष्पन्न हुई वाणी यह व्याप्त वा समर्थ है, उसको तुम जानो ॥१३॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( या ) जो वाणी, ( महिम्ना ) अपने महान् सामर्थ्य वा ज्ञान से ( महिना ) पूज्य है जो ( अप्सु ) इन सबमें (द्युम्नेभिः ) जो यशों वा ज्ञानमय प्रकाशों से ( अन्याः ) अन्य प्रजाओं को भी (चेकिते) ज्ञानयुक्त करती है। और ( अपसाम् ) कर्म करने वाले निष्ठ विद्वानों के बीच में भी ( अपस्तमा ) सबसे उत्तम कर्मोपदेश करने वाली है, ( रथः ) रथ, वा महान् आकाशवत् ( बृहती ) बहुत बड़ी, वेद वाणी ( विभ्वने) विभु, व्यापक परब्रह्म की स्तुति करने के लिये ( कृता ) प्रकट की जाती है, जो ( चिकितुषा) विद्वान् पुरुष द्वारा ( उपस्तुत्या ) उपासना काल में भी परमेश्वर की स्तुति के योग्य होती है वह (सरस्वती) वाणी, वा वेदवाणी सदा पूज्य है ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सरस्वती देवता ॥ छन्दः – १, १३ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती । ४, ६, ११, १२ निचृद्गायत्री । ५, विराड् गायत्री । ७, ८ गायत्री । १४ पंक्ति: ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अपसां अपस्तमा

    पदार्थ

    [१] (य) = जो (सरस्वती) = विद्या की अधिष्ठात्री देवता (महिम्ना) = अपनी महिमा से (महिना) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण (प्रचेकिते) = जानी जाती है। जो आसु इन प्रजाओं में (द्युम्नेभिः) = ज्ञान-ज्योतियों से अन्या विलक्षण ही है । (अपसां अपस्तमा) = कर्मशीलों में अत्यधिक कर्मशील है, सदा उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करनेवाली है। [२] यह सरस्वती (रथः इव) = इस जीवनयात्रा में रथ के समान है, (बृहती) = यह वृद्धि की कारणभूत है, (विभ्वने कृता) = उस सर्वव्यापक परमात्मा की प्राप्ति के लिये निर्मित हुई है। इस सरस्वती की आराधना हमें परमात्मा को प्राप्त करानेवाली है। यह सरस्वती (चिकितुषा) = समझदार स्तोता से (उपस्तुत्या) = स्तोतव्य होती है। वस्तुतः सरस्वती की स्तुति यही है कि हम स्वाध्याय को नियमितरूप से अपनाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्वाध्याय की महिमा अद्भुत है, यह हमें ज्योतिर्मय व कर्मनिष्ठ बनाता है। हमारे में गुणों का वर्धन करता हुआ हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य करता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! चांगली विद्या, सुशिक्षण, सत्संग, सत्यभाषण व योगाभ्यास इत्यादींनी निष्पन्न झालेली वाणी समर्थ असते हे जाणा. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    She that is distinguished as great by her grandeur in these things and regions, appears different and exceptional to different people by her light and lustre. She is most dynamic in the dynamics of existence, vast and expansive as space, created for the glory of Infinity by the lord creator, adorable by the celebrant: that is Sarasvati, dynamic spirit of omniscience.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is she (Sarasvati) - is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men 1 the cultured speech endowed with knowledge is marked out by majesty among the mighty one, most active among the doers of acts, (urging them to do good deeds) great like the charming sky, admired by the enlightened, praise for pervasiveness, made by the lord of the world, by illumining glories enlightens different utterances in different beings. You should know the real nature and power of this speech and use only truthful words.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should know well that this speech when cultivated accomplished with good knowledge, good education, association with goodmen, truthfulness and practice of Yoga etc. becomes vast, effective and very powerful.

    Foot Notes

    (धम्नेभिः) प्रकाशमेर्यंशोभिः । दयुम्नं द्योततेर्वशोवा अन्नंवेति (NKT 5, 1, 5)। = Enlightening glories. (अपसाम्) कर्मकर्तृणाम् । अप इति कर्मनाम (NG 2, 1)। = Of the doers of acts. (चिकितुषा) विज्ञापयित्र्या । कित-ज्ञाने (काशकृतस्वधातुपाठे 2, 74 ) । = Enlightener.

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