ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - सरस्वती
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
सर॑स्वति देव॒निदो॒ नि ब॑र्हय प्र॒जां विश्व॑स्य॒ बृस॑यस्य मा॒यिनः॑। उ॒त क्षि॒तिभ्यो॒ऽवनी॑रविन्दो वि॒षमे॑भ्यो अस्रवो वाजिनीवति ॥३॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वति । दे॒व॒ऽनिदः॑ । नि । ब॒र्ह॒य॒ । प्र॒ऽजाम् । विश्व॑स्य । बृस॑यस्य । मा॒यिनः॑ । उ॒त । क्षि॒तिऽभ्यः॑ । अ॒वनीः॑ । अ॒वि॒न्दः॒ । वि॒षम् । ए॒भ्यः॒ । अ॒स्र॒वः॒ । वा॒जि॒नी॒ऽव॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वति देवनिदो नि बर्हय प्रजां विश्वस्य बृसयस्य मायिनः। उत क्षितिभ्योऽवनीरविन्दो विषमेभ्यो अस्रवो वाजिनीवति ॥३॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वति। देवऽनिदः। नि। बर्हय। प्रऽजाम्। विश्वस्य। बृसयस्य। मायिनः। उत। क्षितिऽभ्यः। अवनीः। अविन्दः। विषम्। एभ्यः। अस्रवः। वाजिनीऽवति ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा किं करोतीत्याह ॥
अन्वयः
हे वाजिनीवति सरस्वती ! त्वं देवनिदो नि बर्हय [उत] विश्वस्य बृसयस्य मायिनः प्रजामविन्दः क्षितिभ्योऽवनीरविन्द एभ्यो विषमस्रवः ॥३॥
पदार्थः
(सरस्वति) विद्यायुक्ते स्त्रि (देवनिदः) ये देवान् विदुषो निन्दन्ति तान् (नि) नितराम् (बर्हय) निःसारय (प्रजाम्) (विश्वस्य) समग्रस्य (बृसयस्य) अविद्याछेदकस्य (मायिनः) प्रशंसितप्रज्ञस्य (उत) (क्षितिभ्यः) पृथिवीभ्यः (अवनीः) रक्षिका भूमीः (अविन्दः) प्राप्नुहि (विषम्) उदकम्। विषमित्युदकनाम। (निघं०१.१२) (एभ्यः) भूम्यन्तर्देशेभ्यः (अस्रवः) स्रावय (वाजिनीवति) विज्ञानक्रियायुक्ते ॥३॥
भावार्थः
सैव विदुषी स्त्री वरा या विदुषां विद्यायाश्च निन्दकान् दूरीकृत्य विद्याप्रशंसकान् सत्करोति या च भूगर्भादिविद्यावित्सर्वां प्रजां विद्याभिमुखां करोति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह क्या करती है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वाजिनीवति) विज्ञान, क्रिया और (सरस्वती) विद्यायुक्त स्त्री ! तू (देवनिदः) जो विद्वानों की निन्दा करते हैं उनको (नि, बर्हय) निकाल (उत) और (विश्वस्य) समग्र (बृसयस्य) अविद्या छेदन करनेवाले (मायिनः) प्रशंसित बुद्धियुक्त विद्वान् की (प्रजाम्) प्रजा को (अविन्दः) प्राप्त हो तथा (क्षितिभ्यः) पृथिवियों से (अवनीः) रक्षा करनेवाली भूमियों को प्राप्त हो और (एभ्यः) इन भूमि के भीतरी देशों से (विषम्) जल को (अस्रवः) चुआओ निकालो ॥३॥
भावार्थ
वही पण्डिता स्त्री श्रेष्ठ है, जो विद्वान् और विद्या के निन्दकों को निकाल विद्या के प्रशंसकों (बड़ाई करनेवालों) का सत्कार करती है और जो भूगर्भादि विद्या जाननेवाली समस्त प्रजा को विद्याऽभिमुख करती है ॥३॥
विषय
नदीवत् वाणी का वर्णन ।
भावार्थ
हे (सरस्वति ) उत्तम ज्ञानवति देवि ! वाणि ! तू ( देवनिदः) विद्वानों और देव, परमेश्वर की निन्दा करने वालों, और निंदा के भावों को भी (नि बर्हय) दूर कर । ( वृसयस्य ) संशय आदि करने वाले (विश्वस्य ) सब ( मायिनः ) प्रज्ञावान् पुरुष की (प्रजां) प्रजा, शिष्य आदि को ( अविन्दः ) प्राप्त कर ( उत ) और ( क्षितिभ्यः ) भूमि पर निवास करने वाले मनुष्यों के हितार्थ ( अवनीः ) नदीवत् सुरक्षित भूमियों को ( अविन्दः ) प्राप्त करा । हे ( वाजिनीवति ) ज्ञानयुक्त विद्याओं से समृद्ध वाणि ! तू ( एभ्यः ) इन लोगों के लिये ( विषम् ) मलशोधक जल के समान विविध पापों का अन्त कर देने वाले ज्ञान को ( अस्रवः ) और प्रवाहित कर । (२) नदी लोगों को बसने के लिये नाना स्थान देती जल प्रदान करती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सरस्वती देवता ॥ छन्दः – १, १३ निचृज्जगती । २ जगती । ३ विराड् जगती । ४, ६, ११, १२ निचृद्गायत्री । ५, विराड् गायत्री । ७, ८ गायत्री । १४ पंक्ति: ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विष-निराकरण
पदार्थ
[१] हे (सरस्वति) = ज्ञान की अधिष्ठात्रि देवि! तू (देवनिदः) = देवों से निन्दनीय भावों को (निबर्हय) = विनष्ट कर । (विश्वस्य) = सब हमारे अन्दर घुस आनेवाले (मायिनः) = मायावी (बृसयस्य) = ज्ञान की आवरणभूत वासना के [वस् द०] (प्रजाम्) = प्रादुर्भाव को विनष्ट कर। हमारे सब निन्दनीय वासनामय भाव विनष्ट हो जायें। [२] (उत) = और हे सरस्वति! तू (क्षितिभ्यः) = इन मनुष्यों के लिये (अवनीः अविन्दः) = आसुरभावों से आक्रान्त भूमियों को फिर से प्राप्त कराता है। अन्नमय आदि कोश एक-एक भूमि हैं। सरस्वती इन सब भूमियों को पवित्र बनाकर हमें प्राप्त कराती हैं । हे (वाजिनीवति) = सब बलों को प्राप्त करानेवाली सरस्वति ! तू (एभ्यः) = इन मनुष्यों के जीवन से (विषम्) = विष को (अस्त्रवः) = क्षरित करके दूर करती है। इनके जीवन को सब प्रकार के विषों से करके अमृतमय बनाती हो ।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान की आराधना हमारे से निन्दनीय वासनामय विषैले भावों को दूर करके अब अन्नमय आदि कोशों को स्वस्थ करती है ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी विद्वान व विद्येच्या निंदकांना दूर करते व प्रशंसकाचा सत्कार करते व जी भूगर्भविद्या जाणणारी असून संपूर्ण प्रजेला विद्याभिमुख करते तीच पंडिता स्त्री श्रेष्ठ असते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Sarasvati, mighty stream of light and inspiration, uproot the maligners of divinity and divine knowledge, take over the children of the wise givers of enlightenment across the world, adopt lands and nations, and let the streams of knowledge and culture flow for all peoples of the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What does Sarasvati (an enlightened lady) does- is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned lady! endowed with the practical knowledge of sciences, cast away all those, who scorn the enlightened truthful persons and receive (for giving education) the children of all wisemen-who are dispellers of ignorance. From the earth get good lands and from the internal part of the earth make the waters to flow.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
She alone is an enlightened lady, who casts away. the scorners of the enlightened men and their knowledge and honors the admirers of knowledge and who being the knower of Geology and other sciences makes all children learned.
Foot Notes
(बुसयस्य) अविद्याछेदकस्य । ब्रूस-हिंसायाम् (चु.) । = Of the dispellers of ignorance. वर्हय-निस्सारम। बरः-हिन्सायाम् (चु)। = Castaway, turnout. (मायिनः) प्रशन्सित प्राज्ञस्य।मायेति-प्रज्ञानाम (NG 3, 9) = Of a wiseman who possesses admirable intellect. (दिशम्). उदकम् । बिषमित्युद्रकनाम (NG 1, 12 ) । = water. (वाजिनीवति) विज्ञानक्रियायुक्ते । ज्ञानार्थं ग्रहण कृत्वा व्याख्या | = Sciences.
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